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संयत
संयतासंयत
श्रम दूर करना रागचर्याय निन्दित नहीं है ।२५७) दर्शनज्ञानका उपदेश, शिष्योंका ग्रहण तथा उनका पोषण और जिनेन्द्रकी पूजाका उपदेश वास्तव में सरागियोंकी चर्या है ।२४८० जो कोई सदा छह कायकी विराधनासे रहित चार प्रकारके श्रमणसंघका उपकार करता है, वह भी रागकी प्रधानतावाला है ।२४। यद्यपि अल्प लेप होता है तथापि साकार अनाकार चर्या युक्त ( अर्थात् शुद्धात्माके ज्ञानदर्शनमें प्रवर्तमान वृत्तिवाले ) जैनोंका अनुकम्पासे निरपेक्षतया ( शुभोपयोगसे ) उपकार करो ।२५१॥ रोगसे, श्रुधासे, तृषासे अथवा श्रमसे आक्रान्त श्रमणको देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार
वैयावृत्ति आदि करो ।२५२।। मू. आ./६१५ पोसह उत्रओ परखे तह साहू जो करेदि णियदं तु । णावाए कालाणं चादुम्मासेण णियमेण ११॥ = जो साधु चातुमासिक प्रतिक्रमणके नियमसे दोनों चतुर्दशी तिथियों में प्रोषधी
पवास अवश्य करता है वह सुखकी प्राप्ति अवश्य करता है ।१५॥ र. सा./EE तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगदो होइ मुणिराओ। - जो मुनिराज सदा आत्मतत्त्वके विचार करनमें लीन रहते हैं, मोक्षमार्गको आराधन करनेका 'जिनका स्वभाव हो जाता है, और जिनका समय निरन्तर धर्मकथामें
हो लीन रहता है. वे ही यथार्थ मुनिराज कहाते हैं। दे० संयम/१/६ [वत, समिति, गुप्ति, आदि पालन साधुका धर्म है और
दामपूजा आदि गृहस्थोंका। दे,साधु/२/२ [पाँच महावत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का रोध, केशलोंच, षड् आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधोवन, स्थिति भोजन, एकभुक्ति ये तो साधुके २८ मूलगुण हैं और १८००० शील व ८४०००,०० उत्तर गुण इन सबका यथा योग्य पालन करता है। दे. कृतिकर्म/१/१ [ देव बन्दना. आचार्य वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण,
प्रत्याख्यान आदि साधुके नित्यकर्म है।] दे. वैयावृत्त्या८ [वैयावृत्त्यके अर्थ लौकिक जनोंके साथ मातचीत करना
निन्द्य नहीं है। दे. अपवाद/३ सल्लेखना गत क्षपकके लिए आहार वर्तन आदि माँगकर लाते हैं, उनको तेलमर्दन करते हैं, गर्मियों में शीतोपचार और सर्दियों में उष्णोपचार करते हैं, कदाचित उसको अनीमा लगाते हैं, क्षपकके मृत शरीरके अंग आदिका छेदन करते हैं, इत्यादि अनेकों अपवाद ग्रस्त क्रियाएँ भी कारण व परिस्थिति वश करता है।]
नात्मन्यतत्परः ।६८२॥ तत्रावश्यं विशुद्धय शस्तेषां मन्दोदयादिति । संक्लेशांशोऽथवा तीव्रोदयानाय विधिः स्मृतः ।६८३. किन्तु देवाद्विशुद्धबंशः संक्लेशांशोऽथवा क्वचित । तद्विशुद्धेर्विशुद्धबंशः संक्लेशाशोदयः पुनः ६४तेषां तीवोदयस्तावदेताबानत्र बाधकः । सर्वतश्चेत्प्रकोपाय नापराधोऽपरोऽस्त्यतः ।६८॥ तेनात्रैतावता नून शुद्धस्यानुभवच्युतिः। कत्तु न शक्यते यस्मादत्रास्त्यन्यः प्रयोजक: ६८६। = जो मोहसे अथवा प्रमादसे जितने काल तक वह लौकिकी क्रियाको करता है उतने काल तक अन्तरंग व्रतोसे च्युत होनेके कारण वह आचार्य नहीं है ।६५७। वास्तवमें संज्वलन कषायका तीव या मन्द उदय ही चारित्रको क्षति व अक्षतिमें हेतु है।६८० संक्लेशसे क्षति होती है और असंक्लेशसे अक्षति । वह संक्लेश भी तरतमताकी अपेक्षा अनेक प्रकारका है और वह तरतमता भी अपने कारणोंकी अपेक्षा अनेक प्रकार की है।६८१॥ उस संक्लेश या विशुद्धिके योगसे आचार्यके शिथिलता होवे या न होवे परन्तु इतने मात्रसे उनकी आत्मामें अतत्परता सिद्ध नहीं होती।६२ तथा उस संज्वलनके मन्दोदयसे होनेवाला विशुद्धि अंश और उसके तीवोदयसे होनेवाला संक्लेश अंश ये दोनों ही उस आचार्य पदके साधक या बाधक नहीं हैं, कर्मोदयवश कभी विशुद्धि अंश और कभी संक्लेश अंश उनके पाये ही जाते हैं । ६८३-६८४। उसका तीव उदय बास्तबमें उस विशुद्धिका ही बाधक है, पर आचार्य पदका नहीं। यदि वह संक्लेश आचार्य पदका ही बाधक हो जाय तो फिर उससे बड़ा कोई अपराध ही नहीं है। अर्थात् फिर उसे मल दोष न कहकर अपराध कहना चाहिए ।६८५ उस तीवोदयके द्वारा उनकी आत्मा शुद्धात्मानुभवसे च्युत नहीं को जा सकती, क्योंकि ऐसा करने में संज्वलनका तीव्र उदय नहीं बल्कि मिथ्यात्व का उदय कारण है ।६८६॥ दे. संयत/२/१ [बत समिति गुप्ति रूप चारित्र प्रमादसे नष्ट नहीं किया
जा सकता, क्योंकि उसका प्रतिबन्धक प्रत्याख्यानावरण है, न कि संयतोंमें पाया जानेवाला संज्वलनका स्वल्पकालिक मन्दतम उदय। दे. संयत/२/४ [ संज्वलनके उदयसे संयममें केवल मल उत्पन्न होता है,
उसका विनाश नहीं। दे. धर्म/६/६ [ व्यवहाररूप शुभधर्म प्रायः गृहस्थों को होता है, साधुओंके
केवल गौणरूपसे पाया जाता है।] संयतासंयत-संयम धारनेके अभ्यासकी दशामें स्थित कुछ संयम
और कुछ असंयम परिणाम युक्त श्रावक संयतासं यत कहलाता है। विशेष दे. श्रावक ।
३. परन्तु फिर भी संयतपना धाता नहीं जाता
प्र. सा./मू./२२१-२२२ किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदवम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि २२१। छेदो जेण ण विजदि गहण बिसग्गेसु सेवमाणस्स । समणो तेणिह बढ्दु कालं खेत्तं बियणित्ता १२२२२ = प्रश्न-उपधिके सद्भावमें उस भिक्षुके मूर्छा आरम्भ या असंयम न हो यह कैसे हो सकता है, तथा जो परद्रव्यमें रत हो वह आत्माको कैसे साध सकता है ।२२१। उत्तरजिस उपधिके ग्रहण विसर्जनमें, सेवन करने में, जिससे सेवन करनेवालेके छेद नहीं होता, उस उपधियुक्त [ अर्थात् कमण्डलु पीछी व शास्त्ररूप लौकिक जनोंके द्वारा अप्रार्थनीय उपधियुक्त-दे. अपबाद/४/३] काल, क्षेत्रको जानकर इस लोकमें श्रमण भले वर्ते ।२२२॥ पं.ध/उ./६५७, ६८०-६८६ या मोहात्प्रमादाद्वा कुर्याद्या लौकिको क्रियाम् । तावत्काल स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तवताच्युत. १६५७
सति संज्वलनस्योच्चैः स्पर्धकाः देशघातिनः । तद्विपाकाऽस्त्यमन्दो + वा मन्दो हेतुः क्रमाद्वयाः ६८०। संक्लेशस्तक्षतिनं विशुद्धिस्तु
तवक्षतिः। सोऽपि तरतमस्वांशैः सोऽप्यनेकैरनेकधा ६८१। अस्तु यद्वा न शैथिल्यं तत्र हेतुशादिह । तथाप्येतावताचार्यः सिद्धो
१ संयतासंयतका लक्षण ।
संयतासंयतका विशेष स्वरूप । -दे, श्रावका संयम व असंयम युगपत् कैसे । संयतासंयतके ११ अथवा अनेक भेद ।
-दे. श्रावक/१/२। संयमासंयम आरोहण विधि। -दे. क्षयोपशम/३ । गुणस्थानोंमें परस्पर अवरोहण आरोहण क्रम।
-दे. गुणस्थान/२/१1 इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरारूप होते हैं ।
-दे. करण/४। | इसके परिणामोंमें चतुःस्थानपतितहानि वृद्धि । | इसमें आत्मानुभवके सद्भाव सम्बन्धी।
-दे. अनुभव/1
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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