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संयत
३. प्रमादजनक दोष परिचय
४. संज्वलनके उदयके कारण औदयिक क्यों नहीं ध. १/१.१.१४/१७७/१ संज्वलनोदयात्संयमो भवतीत्यौदयिक
व्यपदेशोऽस्य कि न स्यादिति चेन्न, ततः संयमस्योत्पत्तेरभावात् । क तद् पाप्रियत इति चेत्प्रत्याख्यानावरणसर्वधातिस्पर्धकोदयक्षयसमुत्पन्न संयममलोत्पादने तस्य व्यापार' | प्रश्न-संज्वलन कषायके उदयसे संयम होता है, इसलिए उसे औदयिक नामसे क्यों नहीं कहा जाता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, संचलन कषायके उदयसे संयमकी उत्पत्ति नहीं होती है। प्रश्न-तो संज्वलनका व्यापार कहाँ पर होता है। उत्तर-प्रत्याख्यानावरण कषायके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयाभावी क्षयसे उत्पन्न हए संयममें मलके उत्पन्न करने में संज्वलनका व्यापार होता है।।
५. सम्यक्त्वकी अपेक्षा तीनों भाव हैं ध. १/१,१,१४/१७७/४ संयम निबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया क्षायिकक्षायोपशमिकापशमिक गुण निबन्धनः । -संयमके कारणभूत सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो यह गुणस्थान क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावनिमित्त क है। (और भी दे. भाव/२/१०)।
11)। वह प्रमाद वश कदाचित चारित्रके परिणामोंसे स्खलित भी हो जाता है-(दे. संयत/१/२)। उसका आचरण चित्रल होता है(दे. संयत/१/०)। परन्तु यह आते ध्यान सर्वसाधारण नहीं होता।
-(दे. अगले संदर्भ )]। र, सा./११०-१११ बसहोपडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंगजाइकले। सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुयजाते कप्पड़े पुच्छे ।११०। 'पिच्छे संथरणे इच्छाम लोहेण कुणइ ममयाई। यावच्च अट्टरुद्द ताव ण मुंचेदिण ह सोक्खं ।११। -वसतिका, प्रतिमोपकरण, गण, गच्छ, समय, जाति, कुल, शिष्य, प्रतिशिष्य, विद्यार्थी, पुत्र, पौत्र, कपड़े, पुस्तक. पीछी, संस्तर, आदिमें लोभसे जो साधु ममत्व करता है, तथा ममरव करनेके कारण जन तक आतं और रौदध्यान करता है, तब तक क्या वह मोक्षसुख से वंचित नहीं रहता ।११०-१११॥ ज्ञा./२६/४१-४२ इत्यात रौद्रे गृहिणामजस्त्र ध्याने सुनिन्छ' भवतः स्वतोऽपि। परिग्रहारम्भकषायदोषै : कलङ्कितेऽन्त करणे विशङ्कम। ।४११ क्वचिकचिदमी भावाः प्रवर्तन्ते मुनेरपि । प्राकर्म गौरवाच्चित्रं प्रायः संसारकारणम् ।४२ - इस प्रकार ये आप्त और रौद्रध्यान गहस्थियोंके परिग्रह आरम्भ और कषायादिके दोषसे मलिन अन्त:करणमें स्वयमेव निरन्तर होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।४। और कभी-कभी ये भाव पूर्वमकी विचित्रतासे मुनिके भी होता है। बाहुल्यसे ये संसारके कारण हैं ।४२१ ।। दे, गुरु/२/२ [ कदाचित शिष्यको लात तक मार देते है।) दे. अपबाद/३ [ परोपकारार्थ कदाचित् मन्त्र तन्त्र व शस्त्रावि भी प्रदान
करते हैं। दे. अपवाद/४/३ । परन्तु योग्य ही उपधिका ग्रहण करता है अयोग्य
का नहीं। दे. साधु/२/- [ बिना सोधे आहारादिका ग्रहण नहीं करता, मैत्रीभाव
से रहित हो पैशुन्य आदि भाव नहीं करता। दूसरोंको पीड़ा नहीं देता. आरम्भ व सावध कार्य नहीं करता। मन्त्र तन्त्र आदिका प्रयोग नहीं करता इत्यादि। दे. तीसरा शीर्षक-[ यद्यपि संज्वलनके तीव्र उदयसे अनेकों प्रकारके
शुभ कार्यो में रत रहता है, शुद्धात्म भावनासे च्युत हो जाता है, परन्तु फिर भी वह संयतपनेको उल्लंघन नहीं करता।
६. फिर सम्यक्त्वकी अपेक्षा इन्हें औपशमिकादि क्यों नहीं कहते ध. १.७.७/२०३/१० दसणमोहणीयकम्मस्स उबसमखय-रखओयसमै अस्सिदूण संजदासजदादीणमोवस मियादिभावा किण्ण परूविदा। ण, तदो संजमासंजमादिभावाण मुप्पत्तीए अभावादो। ण च एत्थ सम्मत्त विसया पुच्छा अस्थि, जेण दसणमोहणिबंध: ओनसमियादिभावे हि संजदासंजदादी बवएसो होज्ज । ण च एवं तधाणुवलंभा।
प्रश्न-दर्शनमोहनीयकर्म के उपशम, क्षय और क्षयोपशमका आश्रय करके संयतासयतादियों के औपशमिकादि भाव क्यों नहीं बताये गये : उत्तर-नहीं. क्योंकि. दर्शनमोहनीयकमके उपशमादिसे संयमासंयम आदि भावों की उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे, यहाँपर सम्यक्त्व विषयक पृच्छ ( प्रश्न) भी नहीं है, जिससे कि दर्शनमोहनीय निमित्तक औपशमिका दि भावोंकी अपेक्षा संयतासंयतादिकके औपश भिकादि भावोंका व्यपदेश हो सके। ऐसा है नहीं. क्योंकि उस प्रकार की व्याख्या नहीं पायी जाती है। दे. सान्निपातिक-[ अथवा सान्निपातिक भावोंकी अपेक्षा करने पर यहाँ
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशामिक व पारिणामिक इन चारों भावोंके द्वित्रि आदि संयोगी अनेक भंग बन जाते हैं। ७. सामायिक व छेदोपस्थापनामें तीनों भाव कैसे ध.७/१,१,४६/६३/8 कधमेकस्स चरित्तस्स तिणि भावा। ण एकस्स विचित्तपयंगस्स बचण्णदंसणादो। -[संयत सामान्य, सामायिक वछेदोपस्थापना संयम इनमें औषशामिक, क्षायिक व क्षायोपशामिक तीनों भाव संभव हैं-दे. भाब/२/१०] । प्रश्न-एक ही चारित्रमें औपशमिकादि तीनों भाव कैसे होते हैं ! उत्तर-जिस प्रकार एक . ही बहुवर्ण पक्षीके बहुत से वर्ण देखे जाते हैं, उसी प्रकार एक ही चारित्र नाना भावों से युक्त हो सकता है। ३. प्रमादजनक दोष परिचय
१. आर्तध्यान व स्खलना होते है पर निरर्गल नहीं नोट- साधुको प्रमाद बश आर्तध्यान होना सम्भव है--( दे. आत
ध्यान/३)। परन्तु उसे रौद्रध्यान कदापि नहीं होता ( दे. रौद्रध्यान/८)। बकुश व प्रतिसेवना कुशील साधुको भी उपकरणों में आसक्ति होनेके कारण कदाचित आर्तध्यान सम्भव है (दे. साधु/
२. साधु योग्य शुभ कार्योकी सीमा प्र. सा./मू./गा, बालो वा बुड्ढो समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधाण हव दि २३० अरहंतादिम भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजत्ता भबे चरिया ।२४६। बंदणणसणे हि अट ठाणाणुगमणपडिवसी। समणेसु समावणओण' किंदिदा रायच रियाम्हि ।२४७दसणणाणूबवेसो सिस्सरगहण च पोसणं तेसि । चरिया हि सरागाणं जिणिदप्लजोबदेसो य ।२४८. उबकुण दि जो चि णिच्च चादुव्यण्णस्स समणसंघस्स। कायबिराधणहिदं सो बि सरागप्पधाणो से ।२४। जोण्हाणं हिरवेक्त्रं सागारणगारचरियजुत्ताणं। अणुकंपयोवयार कुव्वदु लेवो जदि वि अप्पो ।२५। रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिठा समणं साह पडिबज्जद् आदसत्तीए ।२१२। -बाल, वृद्ध, श्रान्त, या ग्लान श्रमण मूलका छेद जैसे न हो उस प्रकारसे अपने योग्य आचरण करो ।२३० [अर्थात युवाकी अपेक्षा वृद्ध और स्वस्थकी अपेक्षा रोगी में यद्यपि अवश्य ही कुछ शिथिलता होती है, और इसलिए उनकी क्रियाओं में भी तरतमता होती पर वह मूलगुणोंको उनलंघन नहीं कर पाती] | श्रामण्यमें यदि अरहतादिकोंके प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है, वह शुभयुक्त चर्या है ।२४६। श्रमणों के प्रति वन्दन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति करना तथा उनका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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