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संयत
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१. संयत सामान्य निर्देश
३. अप्रमत्त संयत सामान्यका लक्षण पं.सं./प्रा./१/१६ ण डासेसपमाओ वयगुणसीलोलिमडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो सो १३ -जो व्यक्त
और अव्यक्तरूप समस्त प्रकारके प्रमादसे रहित है, महावत, मूलगुण और उत्तरगुणोंकी मालासे मण्डित है, स्व और परके ज्ञानसे युक्त है और कषायों का अनुपशामक या अक्षपक होते हुए भी ध्यानमे निरन्तर लीन रहता है, वह अप्रमत्तसया कहलाता है। (ध. १/१.१.१/गा. ११६/१७६), (गो. जो./मू-/४६/१८)। रा.वा./8/१/१८/५६०/६ पूर्ववव सयममास्कन्दन पूर्वोक्तप्रमादविरहात्
अविचलितसंयमवृत्तिः अप्रमत्तसंयतः समाख्यायते। -पूर्ववत (दे० प्रमत्तसंयतका लक्षण ) संयमको प्राप्त करके, प्रमादका अभाव होनेसे
अविचलित संयमी अप्रमत्त संयत कहलाता है। ध, १/१,१,१५/१७०/७ प्रमत्तसंयताः पूर्वोक्तलक्षणाः, न प्रमत्तसं यता
अप्रमत्तसंयताः पञ्चदशप्रमादरहितसंयता इति यावत् । -प्रमत्तसंयतोंका स्वरूप पहले कह आये हैं (दे० शीर्षक स./२)। जिनका संयम प्रमाद सहित नहीं होता है उन्हें अप्रमत्तसंयत कहते हैं। अर्थात संयत होते हुए जिन जीवोंके पन्द्रह प्रकारका प्रमाद नहीं पाया जाता है, उन्हें अप्रमन्तसयत समझना चाहिए । गो, जी./मू./४५/१७ संजलणणोकसायाणुदयो मदो जदा तदा होदि । अपमत्तगुणो तण य अपमत्तो संजदोहोदि। -जब क्रोधादि संत्रलन कषाय और हास्य आदि नोकपाय इनका मन्द उदय होता है, तब अप्रमत्तगुण प्राप्त हो जानेसे वह अप्रमत्त संयत कहलाता है।४।। (द्र. सं./टी./१३/१४/१०)।
४. स्वस्थान व सातिशय अप्रमत्त निर्देश गो. जी./जो. प्र./४५/89/ स्वस्थानाप्रमत्तः सातिशयप्रमत्तश्चेति द्वी
भेदी। तत्र स्वस्थानाप्रमत्तसंयतस्वरूप निरूपयति । -अप्रमत्त संयतके स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त ऐसे दो भेद हैं। तहाँ स्वस्थान अप्रमत्तसंयतका स्वरूप कहते हैं। [ मूल व उत्तर गुणोंसे मण्डित, व्यक्त व अव्यक्त प्रमादसे रहित, कषायोंका अनुपशामक व अक्षपक होते हुए भी ध्यान में लीन अप्रमत्तसं यत स्वस्थान अप्रमत्त कहलाता है-गो, जी./मू./४६ (दे० शीर्षक नं. ३)] । ल.सा./मू./२०५/२५६ उवसमचरियाहिमुहो वेदगसम्भो अणं विज
यित्ता । अंतो हुत्तकालं अधापवत्तो पमत्तो य ।२०६॥ ल. सा./जो...२२०/२७३/७ चारित्रमोहोपशमने कर्तव्ये अधःप्रवृत्त
करणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरण...चेत्यष्टाधिकारा भवन्ति । तेष्वधःप्रवृत्तक । सातिशयाप्रमत्तसयतः...यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाभिमुखसातशयमिथ्यादृष्टेभणितानि...। - उपशमचारित्रके सम्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव (अप्रमत्त गुणस्थानमें) अनन्तानुबन्धोका विसंयोजन करके अन्तर्मुहर्त काल पर्यन्त अध प्रवृत्त अप्रमत्त कहलाता है ।२०। बारित मोहके उपशमनमें अध प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि आठ अधिकार होते हैं। उनमें से जो अध.प्रवृत्तकरण, अप्रमत्तमं यत है वह,सातिशय अप्रमत्त कहलाता है, जिस प्रकार कि प्रथमोपशम सम्यक्थ्यके सम्मुख जीव सातिशय मिथ्यादृष्टि होता है। ५. दोनों गुणस्थानोंका आरोहण व अवरोहण क्रम १. अप्रमत्तपूर्वक ही प्रमत्त गुणस्थान होता है ध. १/१.६,१२१/७४/८ उषसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जगवं पडिवण्णो पमत्तो जादो हेवा पडिदूर्ण तरिदो सगढिदि परिभमिय अपच्छिमे भवे मणुसो जादो । .. अंतोमुहत्ताबसैसे संसारे अप्पमत्तो होदूण पमत्तो जादो। लद्धमतरं।
ध./१६,१२१/७५/२ उबसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो... अंतरिदो...मणुस्सेसु अववण्णो.. अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे विमुद्धो अप्पमत्तो जादो। तदो पमत्ती अप्पमत्तो ...। ध.५/१,६,३५६/१६५/३ एको सेडोदो ओदरिय असंजदो जादो। तत्थ
अंतोमुत्तमच्छिय संजमासंजमं पडिवण्णो। तदो अप्पमत्तो पमत्तो होदूण असंजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं। ध, १/१.६,३६३/१६७/३ एको सेडोदो ओदरिय संजदासजदो जादो।
अंतोमुत्तमच्छिय अप्पमत्तो पमत्तो असंजदो च होण संजदासजदो जादो। लद्धमुक्कस्संतरं । -१. ( कोई जीव ) उपशमसम्यक्त्व और अप्रमत्तसंयतको एक साथ प्राप्त हुआ. पश्चात प्रमत्तसंयत हुआ। पीछे नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थिति प्रमाण परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें मनुष्य हुआ। अन्तर्मुहूर्त काल संसारमें अवशिष्ट रहने पर अप्रमत्त संयत होकर पुनः प्रमत्तसंयत हुआ। इस प्रकार प्रमत्तसयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। २. ( कोई जोव) उपशम सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुणस्थानको युगपत् प्राप्त हुआ। पश्चात अन्तरको प्राप्त हो मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। संसारके अन्तर्मुहूर्त अबशेष रहने पर विशुद्ध हो अप्रमत्त संयत हुआ। पश्चात् प्रमत्तसंयत हो पुन: अप्रमत्त संयत हुआ। इस प्रकार अप्रमत्त संयतका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ३. एक संयत उपशम श्रेणीसे उतरकर असंयत सम्यग्दृष्टि हुआ। वहाँ अन्तर्मुहर्त रहकर संयमासंयमको प्राप्त हुआ। पश्चात अप्रमत्त
और प्रमत्त संयत होकर असंयतसम्यग्दृष्टि हो गया। इस प्रकार प्रकार उपशम सभ्यग्दृष्टि असंयतोंका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ।४. एक संयत उपशम श्रेणीसे उतरकर संयतासंयत हुआ। अन्तमुहूर्त रहकर अप्रमत्तसंयत, प्रमत्तसंयत और असंयत सम्यग्दृष्टि होकर पुनः सयतासंयत हो गया। इस प्रकार संयतासंयत उपशम सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ। ५. {इसी प्रकार काल व अन्तर प्ररूपणाओं में सर्व पहले अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराके पीछे प्रमत्त गुणस्थान प्राप्त कराया गया है। (और भी दे० गुणस्थान/२/१)। २. आरोहण व अवरोहण सम्बन्धी कुछ नियम ध,४/१.१.६/१४३/६ तस्स संकिलेस-विसोही हि सह पमत्तापुम्बरणे
मोत्तूण गुणं तरगमणाभावा। मदस्स वि असं जदसम्मादिट्टि दिरित्तगुणं तरगमणाभावा। -अप्रमत्तसयत जीवके संक्लेशकी वृद्धि हो तो प्रमत्त गुणस्थानको और यदि विशुद्धिकी वृद्धि हो तो अपूर्वकरण गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमनका अभाव है। यदि अप्रमत्त संयत जीवका मरण भी हो तो असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में गमन नहीं होता है। [ल. सा./
मू. व जी. प्र/३४६/४३५)। दे० उपशीर्षक सं. १/१,२ [ मिथ्यादृष्टि सीधा सम्यक्त्व व अप्रमत्त गुण। स्थानको युगपत् प्राप्त कर सकता है। तथा संयतासंयतसे भी सीधा
अप्रमत्त हो सकता है। दे. गुणस्थान/२/१ [ आरोहणकी अपेक्षासे अनादि व सादि दोनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि, तीनों सम्यवत्वोसे युक्त सम्यग्दृष्टि, संयत्तासंयत व प्रमत्त संयत ये सब सीधे अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त कर सकते हैं। अवरोहणकी अपेक्षासे अपूर्वकरण गुणस्थानवी ही अप्रमत्तसंयतको प्राप्त होता है अन्य नही और अप्रमत्तसं यत ही प्रमत्तसंयतको प्राप्त है
अन्य नहीं।] दे. काल/६/२ [ अपने उत्कृष्ट काल पर्यंत प्रमत्त संयत रहे तो नियमसे मिथ्यात्वको प्राप्त होता है।
६. संयत गुणस्थानोंका स्वामित्व गो.जी./मू./०१० दुविहं पि अपज्जत्तं ओघे मिच्छेब होदि णियमेण । सासण अयद पमते णिवत्तिअप्पुण्णगो होदि १७६०॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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