________________
१२९
१. संयत सामान्य निर्देश
भोगभूमिमें संयम न होनेका कारण।
-दे. भूमि/ह। प्रत्येक मार्गणामें गुणस्थानोंके स्वामित्व सम्बन्धी शंका समाधान।
-दे. वह वह नाम।। दोनों गुणस्थानोंमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि २० प्ररूपणाएँ।
--दे. सत। दोनों गुणस्थानों सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पशेन काल अन्तरभाव व अल्पबहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।
-दे. वह वह नाम। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम।
-दे. मार्गणा। दोनों गुणस्थानोंमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय, सत्व।
-दे. वह वह नाम। संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ प्रमत्त होते हुए भी संयत कैसे। सामायिक स्थित भी गृहस्थ संयत नहीं।
-दे.सामायिक/३। * व्रती भी मिथ्यादृष्टि संयत नहीं है।
-दे. चारित्र/३/८ । २ अप्रमत्तसे पृथक् अपूर्वकरण आदि गुणस्थान क्या हैं।
संयतोंमें क्षायोपशमिक भाव कैसे। संज्वलनके उदयके कारण औदयिक क्यों नहीं। इन्हें उदयोपशमिक क्यों नहीं कहते।
-दे.क्षयोपशम/२/३ । सम्यक्त्वकी अपेक्षा तीनों भाव हैं। फिर सम्यक्त्वकी अपेक्षा इन्हें औपशमिकादि क्यों नहीं कहते। सामायिक व छेदोपस्थापना संयतमें तीनों भाव कैसे।
दे, संयम/१ | व्रत समिति आदि १३ प्रकारके चारित्रका सम्यक्त्वयुक्त
पालन करना संयम है। उस संयमको धारण करनेवाला संयत है। दे. अनगार श्रमण, संयत, ऋषि, मुनि, साधु, वीतराग, अनगार,
भदन्त, दान्त, यति ये सब एकार्थवाची हैं। दे. बती [घरके प्रति जो निरुत्सुक है, वह संयत है।) दे. साधु/३/४ [ कषाय हीनताका नाम चारित्र है और कषायसे असंयत होता है। इसलिए जिस व जितने काल में साधु कषायोंका उपशमन करता है, उस व उतने कालमें वह संयत होता है।
२. प्रमत्त संयतका लक्षण पं.सं./प्रा./१/१४ वत्तावत्तपमाए जो वसइ पमत्तसंजओ होइ । सयलगुणसीलकलिओ महबई चित्तलायरणो ।१४। जो पुरुष सकल मूलगुणोंसे और शील अर्थात उत्तरगुणोंसे सहित है, अतएव महावती, तथा व्यक्त और अव्यक्त प्रमादसे रहता है अतएव चित्रल आचरणी है, वह प्रमत्त रयत कहलाता है ।१४। (ध. १११.१.१५/गा. ११३/१७८ ); (गो. जी./मू./१३/६२); ( इसका विवेचन दे. आगे) रा. वा./8/९/१७/५६०/३ तन्मुलसाधनोपपादितोपजननं बाह्यसाधनसंनिधानाविर्भावमापद्यमानं प्राणेन्द्रिय विषयभेदात् द्वितयी वृत्तिमास्कन्तं संयमोपयोगमात्मसात्कुर्वन् पञ्चदश विधप्रमादयशात् किचिप्रस्खलितचारित्रपरिणामः प्रमत्तसंयत इत्यारख्यायते। - उस संयमलब्धि (दे. लब्धि/११) रूप अभ्यन्तर संयम परिणामोंके अनुसार बाह्य साधनों के सन्निधानको स्वीकार करता हुआ प्राणिसंयम और इन्द्रियर्सयमको पालता हुआ भी पन्द्रह प्रकार के प्रमादोंके वदा कही कभी चारित्र परिणामोंसे स्खलित होता रहता है, अतः प्रमत्त संयत
कहलाता है। ध. १/१.१ १४/१७४/१० प्रकर्षण मत्ताः प्रमत्ता, सं सम्यग यता विरताः संयताः । प्रमत्ताश्च ते संयताश्च प्रमत्तसंयताः । प्रकर्ष मे मत्त जीवको प्रमत्त कहते हैं. और अच्छी तरहमे विरत या संयमको प्राप्त जीवोंको संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त संयत कहते हैं। गो. जी./म./३२/६१ संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो वि य तम्हा हु पमत्त विरदो सो ३२१ क्रोधादि संज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय, इनके उदयसे उत्पन्न । होनेके कारण जिस संयममें मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद पाया
जाता है, वह प्रमत्तविरत कहलाता है। द्र. सं./टी./१३/३४/६ स एव सदृष्टिः...पञ्चमहावतेषु वर्तते यदा तदा
दु'स्वप्नादिव्यक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि षष्ठगुणस्थानवी प्रमत्तसंयतो भवति। - संयमासंयमको प्राप्त वहीं सम्यग्दृष्टि जन पच महावतों में वर्तता है: तब वह दुःस्वप्नादि व्यक्त या अव्यक्त प्रमाद सहित होता हुआ छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत होता है। गो. जी./जी.प्र./३३/६३/४ प्रमत्तसंयतः चित्रलाचरण इत्युक्तम् । चित्रं प्रमाद मिश्रितं लातीति चिवलं आचरणां यस्यासौ चित्रलाचरण । अथवा चित्रनः मारंग', तद्वत् शवलितं आचरण यस्यासौ चित्रलाचरणः । अथवा चित्तं लातीति चित्तलं. चित्तल आचरण यस्यासौ चित्तलाचरणः, इति विशेष व्युत्पत्तिरपि ज्ञातव्या । 1-प्रमत्त संयतको चित्रलाचरण कहा गया है । 'चित्र' अर्थात प्रमादसे मिश्रित, 'लाति' अर्थात ग्रहण करता है उसे चित्रल कहते हैं। ऐसा चित्रल आचरण बाला चित्रलाचरण है। अथवा चित्रल नाम चीतेका है, उसके समान चितकबरे आचरण वाला चिवलाचरण है। अथवा 'चित्तं लाति' अर्थात् मनको प्रमादस्वरूप करे सो चित्तल, ऐसे चित्तल आचरणवाला चित्तलाचरण है। ऐसी विशेप निरुक्ति भी पाठान्तरको अपेक्षा जाननी चाहिए।
प्रमादजनक दोष परिचय | आर्तध्यान व स्खलना होती है पर निरर्गल नहीं। | साधु योग्य शुभ कार्योंकी सीमा । शुभोपयोगी साधु भव्यजनोंको तार देते हैं।
-दे. धर्म/॥२॥ ३ । परन्तु फिर भी संयतपना पाता नहीं जाता।
१. संयत सामान्य निर्देश
१. संयत सामान्यका लक्षण ध. १/१,१,३२३/३६६/१ सम् सम्यक् सम्यग्दर्शनज्ञानानुसारेण यताः बहिरङ्गान्तरङ्गास्रवेभ्यो बिरताः संयताः । = 'सम्' उपसर्ग सम्यक अर्थ का वाची है, इससिए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यताः' अर्थात जो बहिरंग और अन्तरग आस्रबोंसे विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं।
भा०४-१७
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org