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संमूर्छन
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संमूर्छन
ति.प./५/२६३ उप्पत्ती तिरियाणं गभजसमुच्छिमो त्ति ।-तिर्यचों की उत्पत्ति गर्भ और संमूछ न जन्मसे होती है । ( गो, जी./जी.प्र./६१)
२१३/४), रा. वा./२/३३/११/१४४/२३ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पञ्चेन्द्रियाणा तिरश्चा मनुष्याणां च केषां चित्संमूर्छ नमिति...एक, दो, तीन, चार इन्द्रियवाले जीवोंका, किन्हीं पञ्चेन्द्रिय तियंचों तथा मनुष्योंका संमूर्च्छन जन्म होता है। गो. जी./जी. प्र./४/२०७/६ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां केषाचित्पञ्चेन्द्रियाणां लब्ध्यपर्यासमनुष्याणां च संमूर्छनमेव जन्मेति प्रवचने निर्दिष्टम् । = एकेन्द्रीय, दोइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, कोई पंचेन्द्रिय तियंच और लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य इनके सम्मूच्र्छन ही जन्म होता है. ऐसा प्रवचन में कहा है। (गो. जी./जी. प्र./१०/२१२/११)
३. संमूर्च्छन मनुष्य निर्देश भ आ./वि./७८१/६३७ पर उधृत गाथा-कर्मभूमिषु चक्रावहलभृदरि
भूभुजाम् । स्कन्धाबारसमहेषु प्रसवोच्चारभूमिषु । शुक्रसिघाणकश्लेष्मकर्ण दन्तमलेषु च। अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यः सम्मूछनेन ये॥ भूत्वाङगुलस्यासख्येयभागमात्रशरीरकाः। आशु नश्यम्त्यपप्तिास्ते स्युः सम्मूछना नराः ॥ - कर्मभूमिमें चक्रवर्ती, मलभद्र वगैरह बड़े राजाओंके सैन्योंमें मलमूत्रों का जहाँ क्षेपण करते हैं ऐसे स्थानों पर, वीर्य, नाकका मल, कफ, कान और दाँतोंका मल और अत्यन्त अपवित्र प्रदेश इनमें तो तत्काल उत्पन्न होते हैं। जिनका शरीर अंगुलके असंख्यात भाग मात्र रहता है। और जो जन्म लेनेके बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लब्ध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्छन मनुष्य कहते हैं। ४. संमूञ्छिम तिथंच संज्ञीभी होते हैं तथा सम्यक्त्वादि
प्राप्त कर सकते हैं ध.४/१,५.१८/३५०/२' सण्णि पंचिंदिय तिरिक्वसंमुच्छिमपज्जत्तएसु मच्छ-कच्छव-मंडूकादिसु उववष्णो। सबलहूएण अंतोमुत्तकालेण सव्वाहिपज्जत्तीहि पज्जत्तयदो जादो। विसंतो। विसुद्धो होदूण संजमासंजमं पडिवण्णो । पुवकोडिकालं संजमासंजममणुपालिदूणमदो सोधम्मादि-आरणच्चुदंतेसु देवेसु उबवण्णो। - संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्तक, ऐसे संभूर्छन तिर्यंच, मच्छ, कच्छप, मेंढका दिकों में उत्पन्न हुआ. सर्व लघु अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त पनेको प्राप्त हुआ। पुनः विश्राम लेता हुआ, विशुद्ध हो करके संयमासंयमको प्राप्त हुआ। वहाँपर पूर्वकोटि काल तक संयमासंयमको पालन करके मरा और सौधर्म कलपको आदि लेकर आरण, अच्युतान्तकरूपों में देवोंमें उत्पन्न हुआ। (ध.५/१,६,२३४/११५/६)
५ परन्तु प्रथमोपशमको नहीं प्राप्त कर सकते ध. ५४९.६ १२१/७३/३ सण्णिसम्मुच्छिम-पंचिदिएसुष्पाइय...पढम
सम्मत्तग्गणाभावा। -संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्मूर्छन जीवों में प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण का अभाव है। (ध.६/१.६,२३७/११८/११)। ६. संमूछिमोंमें संयमासंयम व अवधिज्ञानकी प्राप्ति सम्बन्धी दो मत
त्ति चुलियासुत्तादो।-१, मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकीसत्तावाला संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ।... विशुद्धि हो वेदक सम्यक्वको प्राप्त हुआ। पश्चाद अवधिज्ञानी हो गया। (ध.१११, ६,२३४/११९,११७) । २. संज्ञी सम्मूच्छिम पर्याप्तकों में संयमासंयमके समान अवधिज्ञान और उपशम सम्यक्त्वकी सम्भवताका अभाव है। -प्रश्न-यह कैसे जाना है ! उत्तर-पंचेन्द्रियों में दर्शनमोहका उपशमन करता हुआ गर्भोत्पन्न जीवोंमे ही उत्पन्न करता है। सम्मुच्छिमों में नहीं, इस प्रकार चूलिका सूत्रसे जाना जाता है ।
७. महामत्स्यकी विशालकायका निर्देश ध. ११/४,२,५,६/१६/६ के वि आइरिया महामच्छो मुहपुच्छेमु सुट सहओ त्ति भणं ति । एत्थतणमच्छे दटतण एदं ण घडदे, कपिलमच्छगेसु वियहिचारदसणादो । अधवा एदे विश्वं भुस्सेहा समवरणसिद्धा ति के वि आइरिया भणं ति। ण च सुद्छु सण्णमुहो महामच्छो अण्णेगजोयणसदोगाहणतिमि गिलादिगिलणखमो, विरोहादो। महामत्स्य मुख और पूछ में अतिशय सूक्ष्म हैं, ऐसा कितने ही अाचार्य कहते हैं। किन्तु यहाँके मत्स्योंको देखकर यह घटित नहीं होता, तथा कहीं-कहीं मत्स्योंके अंगों में व्यभिचार भी देखा जाता है। अथवा ये विष्कम्भ और उत्सेध समकरणसिद्ध हैं. ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। दूसरी बात यह है कि अतिशय सूक्ष्म मुख से संयुक्त महामत्स्य एक सौ योजन की अवगाहना वाले अन्य तिमिगिल आदि मरस्यों के निगलनेमें समर्थ नहीं हो सकता. क्योंकि विरोध आता है। ध.१४/५.६,५८०/४६७-४६८/१० ण च महामच्छउकस्सविस्सासुवचओ
अणं तगुणो होदि, जह्मणबादरणिगोदवग्गणादो उक्कस्ससुहमणिगोदवग्गणार अणंतगुणत्तप्पसंगादो।... महामच्छाहारो पोग्गलकलावी पत्तेयसरीरबादर-सुहुमणिगोदवग्गणसहममेतो ण होदि किंतु तस्स पुट्ठीए संभूदउठ्ठियकलावो तत्तो सम्मुच्छिदपत्थरसज्जज्जुण-णिब-कर्यबंब जंवु-जंबीर-हरि-हरिणादयो च विस्ससोवच यंतभूदा दट्ठना। ण च तत्थ मट्टियादीणमुप्पत्ती असिद्धा, सइलोदए पदिदपण्णाण पि सिलाभावेण परिणामदंसणादो मुत्तिवुडपदिदोद बिंदूर्ण मुत्तालागारेण परिणामुवल भादो। ण च तत्थ सम्मुछिमपंचिदियजीवाणमुप्पत्ती असिद्धा, पाउसयार भवासजलधरणिसबंधेण भेगंदर-मच्छ-कच्छादीणमुप्पत्ति दंसणादो।... ण च एदेसि महामच्छत्तमसिद्ध'. माणुसजडसप्पण्णगंडुवालाणं पि माणुसक्वएम. बलभादो। सब्वे सिमेदेसि गहणादो सिद्ध उसस्सविस्सासुबचयस्स अणंतगुणतं । अधवा ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरमाणुपोग्गलाणं बंधणगुणेण जे एयबंधणबद्धा पोग्गला विस्सासुवचयसणिया तेसि सचित्तवग्गणाणं अंतम्भावो होदि। ...जे पुण.. बंधणगुणेण तस्थ समवेदा पोग्गला · जीवेण अणणगय भावादो अलद्धसचित्तवग्गणववएसा ते एत्थ विस्सासुवचया घेत्तव्या। ण च णिज्जीवविस्सासुवचयाणं अत्थित्तमसिद्ध, रुहिर-वस-सुक्क-रस-सेंभ-पित्त-मुत्तरवरित्तमथुलिंगादीणं जीवव ज्जियाणं विस्सासुवचयाण मुवलभादो। ण च दंतहड़ वाला हव सव्वे विस्सासुवचया णिज्जीवा पञ्चवरखा चेत्र, अणुभावेण अगताणं विस्सासुवचयाणं आगमचक्रतु गोयराणमुवलं भादो। एदे विस्सासुवचय। महामच्छदेहभूदछज्जीवणिकायविसया अणं तगुणा त्ति घेत्तवा। प्रश्न-महामत्स्यका उत्कृष्ट विखसोपचय अनन्तगुणा नहीं है. क्योंकि जघन्य बादर निगोद वर्गणासे उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणाके अनन्तगुणे प्राप्त होनेका प्रसंग प्राप्त होता है 1 उत्तर-महामत्स्यका आहार रूप जो पुद्गल कलाप है. वह प्रत्येक शरीर, बादर-निगोद-वर्गणा और सूक्ष्मनिगोदवर्गणाका समुदायमात्र नहीं होता है किन्तु उसकी पीठपर आकर जमी हुई जो मिट्टीका प्रचय है वह और उसके कारण उत्पन्न हुए पत्थर, सर्ज नामके वृक्ष विशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन, जम्बीर, सिंह और
घ.११६.२३४/११/११ अठावीससंतकम्मिओ सण्णि-समुच्छिमपज्जत्तएस"विसुद्धो वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो तदो अंतोमुहत्तेण
ओघिणाणी जादो। घ.५/१,६.२३७/११८/११ सण्णिसमुच्छिमपज्जत्तएम संजमासंजमस्सेव
ओहिणाणुवसमसम्मत्ताणं संभवाभावादो। तं कधं णवबदे। पंचिदिएसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसामेदि, णो सम्मुच्छियेमु'
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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