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संज्वलन
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संबंध
ज्वल न्ति दहन्ति इति संज्वलनाः इति निरुक्तिबलेन तदुदये सत्यपि सामायिकादीतरसंयमाविरोधः सिद्धः । - संज्वलन क्रोधादिक सकल कषायके अभाव रूप यथाख्यात चारित्रका घात करते हैं। 'सं' कहिए समीचीन निर्मल यथारख्यात चारित्रको 'ज्वलति' कहिए दहन करता है, तिनको संज्वलन कहते हैं, इस निरुक्तिसे संज्वलनका उदय होने पर भी सामायिक आदि चारित्रके सद्भावका अविरोध सिद्ध होता है।
२. संज्वलन कषायमें सम्यकपना क्या ध.६/१,४-१,२३/४४/६ किमत्र सम्यक्त्वम् । चारित्रंण सह ज्वलनम्। चारित्तमविणासेंता उदयं कुणं ति त्ति जं उत्तं होदि। -प्रश्न-इस संज्वलन कषायमें सम्यक्पना क्या ? उत्तर-चारित्रके साथ जलना ही इसका सम्यक्पना है अर्थात् चारित्रको विनाश नहीं करते हुए
भी ये उदयको प्राप्त होते हैं, यह अर्थ कहा है। ध. १३/५.१.६५/३६१/९ कुतस्तस्य सम्यक्त्वम् । रत्नत्रयाविरोधात् ।प्रश्न- हसे ( संचलनको) सम्यकपना कैसे है ! उत्तर-रत्नत्रयका अविरोधी होनेसे।
७. अन्य सम्बन्धित विषय १. संज्वलन प्रकृतिके बन्ध उदय सत्व सम्बन्धी नियम व शंका समाधानादि ।
-दे०वह वह नाम । २. कषायोंकी मन्दता संज्वलनके कारणसे नहीं बल्कि लेश्याके कारणसे है।
-दे० कषाय/३। ३. संज्वलनमें दशों करण सम्भव हैं। -दे० करण/२। ४. संज्वलन प्रकृतिका देशवातीपना। -दे० अनुभाग/४। संज्वलित-तीसरे नरकका आठवाँ पटल । -देनरक/१/११॥
सतलाल-सिद्धचक्रपाठ व दशलक्षिक अंकके कर्ता एक जैन
कवि। (वि. श.१८ का मध्यः ई. श.१७-१८) हि.जे. सा. इ./१६६ कामता।
३. यह कषाय यथाख्यात चारित्रको घातती है पं.सं./प्रा./२/११५ च उत्यो जहरवायघाईया। संज्वलन कषाय यथा-
ख्यात चारित्रकी घातक है। (और भी दे. शीर्षक सं.१); (पं. सं./प्रा./१/११०): (गो. जी./२८३); (गो. क./मू./४५); (पंसं./ सं./१/२०४)।
४ इसके चार भेद कैसे ध. १३/५५५,६५/३६१/१ लोह-माण-माया-लोहेसु पादेवक संजलणणिसो किमठ कदो। एदेसि बंधोदया पुध पुध विराहा, पुल्लितिय घउक्कस्सैव अक्कमेण ण विणट्ठा त्ति जाणावण ठें। - प्रश्न-क्रोध, मान, माया और लोभमें-से प्रत्येक पदके साथ संज्वलन शब्द का निर्देश किस लिए किया गया है ! उत्तर-इनके बन्ध और उदयका विनाश पृथक्-पृथक् होता है, पहली तीन कषायोंके चतुष्कके समान इनका युगपत् विनाश नहीं होता, इस बातका हान कराने के लिए क्रोधादि प्रत्येक पदके साथ संज्वलन पद निर्देश किया गया है। (ध, ६/१,६-१.२३/४४/१) ।
संततता-Continuum (ज. प./प्र.१०६) । संतान-एक ग्रह । -ग्रह। संतोष भावना-दे० भावना। संथारा-दे० संस्तर। संदिग्धानेकान्तिक हेत्वाभास-दे० व्यभिचार । संदिग्धासिद्ध हेत्वाभास-दे० असिद्ध । संदृष्टि-symbol {ज. प./प्र. १०६) । साध-१. एक ग्रह-दे० ग्रह । २. औदारिक शरीरमें सन्धियोंका
प्रमाण-दे० औदारिक/१/७। सपराय-स. सि./8/१२/11813 संपरायः कवायः।-१. संपराय कषायको कहते हैं। (ध. १/१,१,१७/१८४/४) दे, आस्रब/१/५२. संपराय संसारको कहते हैं। संपच्छिनीदोष-दे. भाषा। संप्रज्वलित-तीसरे नरकका नवम पटल-दे. नरक/। संप्रति-मगधराज अशोक का पौत्र, अपर नाम चन्द्र गुप्त द्वि.।
समय-ई.पू. २२०-२११ । (द्वि. इतिहास/३/३/४)। संप्रदान कारक-१.प्र. सा./पं. जयचन्द्र/१६ कर्म जिसको देने में
आवे अर्थात जिसके लिए करने में आवे सो सम्प्रदान । २.अभिन्न कारकी व्यवस्थामें सम्प्रदान का प्रयोग- दे. कारक/१। संप्रदान शक्ति-स.सा./आ./परि./शक्ति ४४ स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी संप्रदान शक्तिः।-अपने द्वारा दिया जाता जी भाव उसके उपयत्वमय (उसे प्राप्त करनेके योग्यपनामय, उसे लेनेके पात्रपनामय ) सम्प्रदान शक्ति । संबंध-१. संबंध सामान्यका लक्षण न. च. कृ./२२५ संबंधो संसिलेसोणाणीण णाणणेय मादीहि-ज्ञानीका
ज्ञान और शेयका संसिलेश सो सम्बन्ध है। रा.वा./हिं.१/७/६४ प्रत्यासत्ति है सो ही सम्बन्ध है। रा. वा. हिं/४/४२/२०/११८७ जहाँपर अभेद प्रधान और भेद गौण होता है वहाँपर सम्बन्ध समझना चाहिए । २. सम्बन्धक भद आगममें अनेकों सम्बन्धों का निर्देश पाया जाता है। यथा-१शेय. ज्ञायक सम्बन्ध, ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध ( स. सा./आ./३१); भाव्यभावक सम्बन्ध (स.सा./आ./३२,८३); तादात्म्य सम्बन्ध (स.
५. इसको चारित्र मोहनीय कहनेका कारण ध: ६/१,६-१.२३/४४/६ चारित्तमविणासेता उदयं कुणं ति तिजं उत्तं होदि । चारित्तमविणासेंताणं संजुलणाणं कध' चारित्ताबरणत जुज्जदे । ण, संजमम्हि मलमुबाइय जहावखादचारित्तु पत्तिपहिबंधयाणं चारित्तावरगत्ताविरोहा। -चारित्रको विनाश नहीं करते हुए.ये ( संज्वलन) कषाय प्रगट होते हैं। प्रश्न-चारित्रको नहीं माश करने वाले संज्वलन कषायोंके चारित्रावरणता कैसे बन सकती है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि ये संज्वलन कषाय संयममें मलको उत्पन्न करके यथारख्यात चारित्रकी उत्पत्तिके प्रतिबन्धक होते हैं, इसलिए इनके चारित्रावरणता माननेमें विरोध नहीं है।
६. संज्वलन कषायका वासना काल गो.क./म. व टी./४६/४७ अंतोमुहत्त...संजलणमवासणाकालो दुणिय-. मेण ४६। उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो बासनाकालः स च संज्वलनानामन्तर्मुहुर्तः। - उदयका अभाव होनेपर भी कषायका संस्कार जितने काल तक रहे उसका नाम वासना काल है। सो संज्वलन कषायोंका वासना काल अन्तर्मुहुर्त है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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