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संघात
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संज्वलन
संहननादे कस्यापि सङ्घत्वसिद्ध । उक्तं च-संघो गुणसंघादो कम्माण विमोयदो हव दि संघो। दसणणाणचरित्ते संघादितो हवदि सघो।-प्रश्न-संघ, गण और समुदाय ये एकार्थवाची है. तो इस कारण एक साधुको संघ कैसे कह सकते हैं। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्यों कि एक व्यक्ति भी अनेक गुणवतादिका धारक होनेसे संघ कहा जाता है। कहा भी है-गुण संघातको संघ कहते हैं। कर्मों का नाश करने और दर्शन, ज्ञान और चारित्रका संघटन करने से एक साधु
को भी संघ कहा जाता है। संघात-१. संघात सामान्यका लक्षण स. सि./५/२६/२६८/४ पृथग्भूतानामेकत्वापत्ति. संघातः। = पृथग्भूत हुए पदार्थों के एकरूप हो जानेको संघात कहते हैं । (रा. बा./५/२६/२/४६३/२५) घ. १४/५,६,६८/१२१/ परमाणुपोग्गलसमुदायसमागमो संघादो णाम।
- परमाणु पुद्गलोंका समुदाय समागम होना संघात है।
२. भेद संघातका लक्षण ध, १४/५.६,६८/१२१/४ भेदं गंतूण पुणो समागमो भेदसंधादो णाम ।
-भेद को प्राप्त होकर पुनः संघात अर्थात समागम होना भेद संघात
२. संघातन-परिशातन ( उभय रूप ) कृतिका लक्षण ध.६/४,१,६९/३२०/२ अप्पिदसरीरस्स पोग्गलक्रबंधाणमागम-णिज्ज
राओ संघादण-परिसादणकदी णाम। =(पाँचों शरीरों मे-से ) विवक्षित शरीरके पुद्गल स्कन्धोंका आगमन और निर्जराका एक साथ होना संघातन-परिशातन कृति कही जाती है । * पाँचों शरीरोंकी संघातन-परिशातन कृति।
दे० (घ. १/३५५-४५१)। . संघात समास ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III संघातिम-दे० निक्षेप/५/६ । संघायणी-बृहत्संग्रहणी सुत्रका अपरनाम है। -दे० बृहत्संग्रहणी
सूत्र।
३. संघात नामकर्मका लक्षण स. सि./८/११/३१०/१ यदुदयादौदारिकादिशरीराणां विवररहितान्यो
ऽन्यप्रदेशानुप्रवेशेन एकत्वापादन भवति तत्संघातनाम । - जिसके उदयसे औदारिका दि शरीरोंकी छिद्र रहित होकर परस्पर प्रदेशों के अनुप्रवेशन द्वारा एकरूपता आती है वह संघात नामकर्म है। (रा. का./८/११/७/५७६/२७); (गो. क./जो. प्र /३३/२६/२) ध, ६/१,६-१,२८/१३/३ जेहि कम्मरबंधेहिं उदयं पत्तेहि बंधणणामकम्मोदएण धमागयाणं सरीरपोग्गलववंधाणं महत्तं कीरदे तेसि सरीरसंघादसण्णा । जदि सरीरसंघादणाम कम्मजीवस्स ण होउज, तो तिलमोअओ व अबुदुसरीरी जीवो होज्ज। = उदयको प्राप्त जिन कर्म स्वन्धों का मृष्टत्व अर्थात छिद्र रहित संश्लेष किया जाता है उन पुद्गल स्कन्धों की 'शरीरसंघात' यह संज्ञा है। यदि शरीर संघात नामकर्म सज्ञा न हो, तो तिलके मोदकके समान अपुष्ट शरीरवाला जीव हो जावे। (ध. १३/५,५.१०१/१६४/२)
४. शरीर संघातके भेद । ष. खं, ६/१६-१,/सु. ३३/७० जंतं सरीरसंघादणामकम्मं तं पंचविहं,
ओरालियसरीरसंघाद णामं वेउब्वियसरीरसंघाद णाम आहारसरीरसंघादणाम तेजससरीरसंघादणामं कम्मइयसरीरसंघादणाम चेदि । --जो शरीर संघात नामकर्म है, वह पाँच प्रकार है-औदारिक शरीर संघात नामकर्म, वै क्रियकशरीर संघात नामकर्म, आहारकशरीरसंघातनामकर्म, तैजसशरीर संघातनामकर्म, और कार्मणशरीरसंघात नामकर्म । (प. बं. १३/५.६/सू. १०६/३६७) संघात-दूसरे नरकका दसवाँ पटल -दे० नरक/५/११॥ संघात ज्ञान-दे० श्रुतज्ञान/III संघातन-१. संघातन कृतिका लक्षण ध. १/४.१.६९/३२६/६ तत्थअप्पिदसरीरपरमाणूण णिज्जराए विणा
जो संचयो सा संघादणकदी णाम ! -(पाँचों शरीरों में से ) बिबक्षित शरीरके परमाणुओं का निर्जराके बिना जो संचय होता है उसे संघातन कृति कहते हैं।
संचया-पूर्व विदेहस्थ मंगलावती क्षत्रकी मुख्य नगरी। -दे.
लोक/७। सचार-१. एक अक्ष या भंगको अनेक भंगनि विषै क्रमसे पलटना ।
-दे० गणित/II/३। २. न्या. बि./वृ./१/२०/२१७/२६ असंचारः असंप्रतिपत्तिः । -असं
चार अर्थात् प्रतिपति यानी निश्चयका न होना। सचेतन-स.सा./आ./क. २२४ पं. जयचन्द्र-किसी के प्रति एकाग्र होकर उसका ही अनुभव रूप स्वाद लिया करना उसका संचेतन
कहलाता है। संजयत-म.प्र./18/श्लोक सं. पूर्व भव सं.७ में सिंहपुर नगरका
राजा सिंहसेन ( १४६) छठे में साल की बनमें अशनिघोष नामक हाथी हुआ (११७)। में रविप्रभ विमानमें देव (२१८-२१८) चौथेमे राजपुत्र रश्मिदेव तीसरेमें कापिष्ठ स्व. में देव (२३७-२३८) दूसरे में राजा अपराजितका पुत्र ( २३६) पूर्व भवमे सर्वार्थ सिद्धिमे देव था (२७३)। वर्तमान भवमे गन्धमालिनी देशमें वीतशोक नगर के राजा वैजयन्तका पुत्र था (१०६-११०) विरक्त होकर दीक्षा ग्रहण की (११२)। ध्यानस्थ अवस्था में एक विद्य. भ्रष्ट नामक विद्याधरने इनको उठाकर इला पर्वत पर नदीमे डुबो दिया। तथा पत्थरों की वर्षा की। इस घोर उपसर्गको जीतनेके फलस्वरूप मोक्ष प्राप्त किया ( ११६-१२६) । (म. पु./५६/३०६-३०७), (प.
पु./१/२७-४४)। संजयंत नगरो-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर --दे०
विद्याधर। संजय-एक परिव्राजक था। जिसने मौद्गलायन व सारिपुत्सको
बुद्धका शिष्य होनेसे रोका था। संज्वलन-१. संज्वलनका लक्षण स. सि./८/९/३८६/१० समेकोभावे वर्तते । संयमेन सहायस्थानादेकीभूय ज्वल न्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलनाः क्रोध मानमायालोभाः। ='सं' एकीभाव अर्थ में रहता है। संयमके साथ अवस्थान होनेसे एक होकर जो ज्वलित होते हैं अर्थात चमकते हैं या जिनके सद्भाव में संयम चमक्ता रहता है वे संज्वलन, क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । (रा. वा./८/६/५/५७५/४), (गो. क./
जी. प्र./३३/२८/५). (गो. क./जी. प्र./४५/४६/१३)। ध. १३/५०५,६५/३६०/१२ सम्यक् शोभन ज्वलतीति संज्वलन। -जो सम्यक् अर्थात शोभन रूपसे 'ज्वल ति' अर्थात प्रकाशित होता है वह
संज्जलन कषाय है। गो. जी./जी. प./२८३/६०८/१५ संज्वलनास्ते यथारख्यातचारित्रपरिणाम कषन्ति, सं समीचीनं विशुद्धं संयम यथारख्यातचारित्रनामधे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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