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संबंध
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सा./आ./५७,६१ ); संश्लेष सम्बन्ध ( स. सा./ता.वृ./५७); व्याप्यव्यापक सम्बन्ध (स. सा./आ./७५); आधार-आधेय सम्बन्ध (स. सा./आ./१८१-१८३ ); ( पं. ध. / पू. / ३५० ); आश्रय-आश्रयी (पं. ध. / पृ./७६); संयोग सम्बन्ध । सो दो प्रकारका है-देश प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध और गुण प्रत्यासत्तिक संयोग सम्बन्ध ( ध. १४ / २,६,२३/२७/२); ( पं. ध./पू / ७६ ); धर्म-धर्मिमें अविनाभाव सम्बन्ध (पं. ध. / पू. / ७,५४५. ५६१,६६.२४६ ); लक्ष्य लक्षण सम्बन्ध (पं.ध. / पू/ १२,८८, ६१६ ): साध्य साधक सम्बन्ध ( ५. ध. / पू. /५४५ ); दण्ड-दण्डी सम्बन्ध (पं.प./पू /४१) समवाय सम्बन्ध (पं.पू./७६); भविष्याभाव सम्बन्ध ( स. म. /९६/२९७/२४)] [ इनके अतिरिक्त बाध्य बाधक सम्बन्ध, बध्य घातक सम्बन्ध, कार्यकारण सम्बन्ध, वाच्य वाचक सम्बन्ध, उपकार्य - उपकारक सम्बन्ध, प्रतिबध्य प्रतिबन्धकं सम्बन्ध, पूर्वापर सम्बन्ध, द्योश्य द्योतक
सम्बन्ध, व्यंग्य-व्यंजक सम्बन्ध, प्रकाश्य प्रकाशक सम्बन्ध, उपादानउपादेय सम्बन्ध, निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध इत्यादि अनेकों सम्बन्धों का कथन आगममें अनेकों स्थलोंपर किया गया है । ]
३. सम्बन्धके भेदोंके लक्षण
१. भाव्य-भावक
मनो
स. सा.आ./१२ भावकत्वेन भवन्तमपि दूरतएव भाव्यस्य व्यावर्तनेन - 1 ( मोहकर्म ) भावकपनेसे प्रगट होता है। तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्माभाव्य...
२. व्याप्य व्यापक
स. सा./आ./७५ घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापक भाव...। - बड़े और मिट्टी के व्याप्यव्यापकभावका सद्भाव...
न्या. पी./३/१०/१०६/२ साहचर्य नियमरूप व्यातिक्रियां प्रति वर्ग बाध्यम्... एतामेव क्यामिकियां प्रति यस्तु व्यापक...एवं सति धूममति वस्तु न तथाऽग्निव्याप्नोति। - साहचर्य नियमरूप व्यातिक्रियाका जो कर्म है उसे व्याप्य कहते हैं.... व्याप्तिका जो कर्म है- विषय है वह व्याप्य कहलाता है ..... [अग्नि] धूमको व्यान करती है, किन्तु निको व्याम नहीं
करता ।
३. ज्ञेय शायक व ग्राह्य ग्राहक सा./१९ लक्षणबत्यास मन...भान्द्रियागुह्यमानरूपादीनी याज्ञायक संकरदो परवग्राह्यग्राहक लक्षण वाले सम्बन्धको निकटता के कारण... भावेन्द्रियों के द्वारा (ग्राहक) ग्रहण किये हुए, इन्द्रियोंके विषयभूत स्पर्शादि पदार्थोंको ( ग्राह्य पदार्थोंको )... ज्ञेय ( बाह्य पदार्थ ) ज्ञायक ( जाननेवाला) आत्मा संकर नामक दोष...
४. आधार-आचेव सम्बन्ध
स. सा. खा./१०१-१८१ न खम्येकस्य द्वितीयमसिइयोमप्रदेश
सात ते सहाधाराधेयमथोऽपि नास्येव ततः पक्षिण एवाधाराधेयसंबन्धोऽवतिष्ठते । - वास्तवमें एक वस्तुको दूसरी वस्तु नहीं है, क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं, इसलिए उनमें एक सत्ताको अनुपपत्ति है. इस प्रकार जबकि एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधार ( जिसमें रहा जाये) आधेय ( जो आश्रय लेवे ) सम्बन्ध भी नहीं है । स्व रूप में प्रतिष्ठित वस्तु में आधार-आधेय सम्बन्ध है ।
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४. अन्य सम्बन्धित विषय १. संयोग आदि अन्य सम्बन्धोंके लक्षण । २. संश्लेष सम्बन्ध |
२. सम्बन्धकी अपेक्षा वस्तु भेदाभेद । ४ मिन इन्योंगे आध्यात्मिक भेदाभेद । ५ द्रव्य गुण पर्यायोंमें युत सिद्ध व समवाय
संमूर्च्छन
-- दे. वह वह नाम ।
- दे. श्लेष ।
- दे. सप्तभंगी / ५ । - दे. कारक / २ ॥ सम्बन्धका निषेध । - दे. द्रव्य / ४ ।
संबंध कारक दे. कारक /२
संबंध शक्ति - स. सा. / आ. / परि. / शक्ति / ४७, स्वभाव मात्र स्वस्वाfeat संबन्धशक्तिः । स्वभावमात्र स्वस्वामित्वमयी सम्बन्ध शक्ति । ( अपना भाव स्व है और स्वयं उसका स्वामी है ऐसी सम्बन्धमयी सम्बन्ध शक्ति है । )
संभव -
-
१. एक ग्रह- दे, ग्रह; २. असत् वस्तुओं को भी कथंचित् सम्भावना - दे. असत । संभवनाथ- म. पू. / ४६ / श्लोक सं. पूर्वभव सं २ में कच्छ देशके क्षेमंकरपुरका राजा विमलवाहन या (२) पूर्वभवे सुदर्शन विमान अहमिन्द्र. (१) वर्तमान में तीसरे तीर्थंकर थे (१६) विशेष परिचय दे संभवयोग२/९
संभावना सत्य - दे. सत्य / १ ।
संभाषण
अनिता - संभिन्नमति
- म. पु. / सर्ग / श्लोक महाबल ( ऋषभदेवका पूर्वका नवमा भव) राजाका एक मिथ्यादृष्टि मन्त्री था ( ४ / १६१) । इसने राजसभामे नास्तिव मतकी सिद्धि की थी (५/३०-३८)। अन्तमे मरकर निगोद गया ( १०/७ ) । भिन्नत्व ऋद्धि
शुद्धि /२
संभ्रान्त - प्रथम नरकका छठा पटल- दे. नरक / ५ /११ तथा रत्नप्रभा । संमत सत्यदे / १
संमूमि-१. संमृमि का लक्षण
स.सि./२/११/१८० / ३ प्रषु लोके पूर्ध्व मास्तिर्य च देहस्य समन्ततो मूर्च्छनं संप्रकल्प तीनों लोकों में ऊपर, नीचे, और तिरछे देहका चारों ओरसे मूर्च्छन् अर्थात् ग्रहण होना सम्मूर्छन है । ( अर्थात चारों ओरसे पुद्गलोंका ग्रहण कर अवयवोंकी रचना होना ) ( रा. वा./२/११/१४०/२१) गो.जी./जी.प्र./८३/२०४ / १७ से समन्तात् मूर्च्छनं जायमामजीवा
ग्राहकाणी शरीराकारपरिगमनयोग्य न्धान समुद्रयणं सम्पूर्धनम् अर्थात समस्तपने, मूर्च्छन अर्थात जन्म ग्रहण करता जो जीव, उसको उपकारी ऐसे जो शरोराकार मरिणमने योग्य इस स्कन्धोंडा स्वमेव प्रगट होना सो संमूर्धन जन्म है।
२. संमूमि जम्मका स्वामित्व
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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१. हितमित अथवा मिष्ट व कटु संभाषणकी इष्टतासत्य / ३२. व्यर्थ संभाषणका निषेध
सू./२/५३ वषार्च्छनम् | ११- गर्भज और उपपाद जम्म बासोके अतिरिक्त शेष मोका न जन्म होता है। ति प / ४ / २६४८ उपती मजुवाणं गम्भज सम्मुच्छिन खु दुभेदा । - मनुष्यों का जन्म गर्भ व सम्मूर्च्छनके भेदसे दो प्रकारका है
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