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संयत
२. संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ
गो.जी./जी. प्र./७०३/६ प्रमत्ते मनुष्याः पर्याप्ता; साहारकळ यस्तु उभये। अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ताः पर्याप्ताः । -१. निवृत्ति व लब्धि ये दानों प्रकारके अपर्याप्त नियमसे मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। सासादन असयत व प्रमत्तसंयतमें नित्यपर्याप्त आलाप तो होता है ( पर लब्ध्यपर्याप्त नहीं ) । २. प्रमत्तसंयत मनुष्य पर्याप्त होते हैं परन्तु आहारक ऋद्धि सहित पर्याप्त व अपर्याप्त (नित्यपर्याप्त) दोनों होते हैं और अप्रमत्तादि क्षीणकषाय पर्यंत केवल पर्याप्त ही होते हैं । ( और भी दे./काय/२/४ )। दे. मनुष्य/२/२ [ मनुष्यगतिमें ही सम्भव है।] दे, मनुष्य/३/२ [ मनुष्य व मनुष्यनियाँ (भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी) दोनों में सम्भव है। वहाँ भी कर्मभूमिजोंमें ही सम्भव है भोगभूमिजों में नहीं, आर्यखण्डमें ही सम्भव है म्लेच्छ खण्डों में नहीं, आर्यखण्ड में आकर म्लेच्छ भी तथा उनको कन्याओंसे उत्पन्न हुई सन्तान भी कदाचित् संयत हो सकते हैं, विद्याओंका त्याग कर देनेपर विद्याधरों में भी सम्भव है अन्यथा नहीं।] दे. वह बह गति-[नरक तिथंच व देव गतिमें सम्भव नहीं। दे, आयु/६/७ [ देव आयुके अतिरिक्त अन्य तीन आयु जिसने पहिले
बाँध ली है, उसको संयमकी प्राप्ति नहीं हो सकती।] दे. चारित्र/३/७-८ [मिथ्यादृष्टि व्रतीको भी संयत नहीं कहा जा सकता
२. अप्रमत्तसे पृथक अपूर्वकरणादि गुणस्थान क्या हैं ध. १/१,९,१५/१७/८ शेषाशेषसं यतानामत्रैवान्तर्भावाच्छेषसंयतगुणस्थानानामभाव: स्यादिति चेन्न. संयतानामुपरिष्टात्प्रतिपद्यमानविशेषणाविशिष्टानामस्तप्रमादानामिह ग्रहणात् । प्रश्न-बाकी के सम्पूर्ण संयतोंका इसी अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमे अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए शेष गुणस्थानों का अभाव हो जायगा। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जो आगे चलकर प्राप्त होनेवाले अपूर्वकरण आदि विशेषणोंसे अविशिष्ट है अर्थात भेदको प्राप्त नहीं होते हैं और जिनका प्रमाद नष्ट हो गया है, ऐसे संयतोंका ही यहाँपर ग्रहण किया गया है, इसलिए आगेके समस्त गुणरथानोंका इसमें अन्तर्भाव नहीं होता है।
३. संयतोंमें क्षायोपशमिक भाव कैसे
दे. वेद/७ -[ द्रव्य स्त्री संयत नहीं हो सकती।]
२. संयत निर्देश सम्बन्धी शंकाएँ
१. प्रमत्त होते हुए भी संयत कैसे ध.१/१,१.१४/१७६/१ यदि प्रमत्ताः न संयताः स्वरूपासंवेदनाद ।
अथ संयताः न प्रमत्ताः संयमस्य प्रमादपरिहाररूपत्वादिति नैष दोषः, संयमो नाम हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिः गुप्तिसमित्यनुरक्षितः नासौ प्रमादेन विनाश्यते तत्र तस्मान्मलोत्पत्तेः ।। संयमस्य मलत्पादक एवात्र प्रमादो विवक्षितो न तद्विनाशक इति । कुतोऽवसीयत इति चेत् संयमाविनाशान्यथानुपपत्त । न हि मन्दतमः प्रमादः क्षणक्षयी संयम विनाशकोऽसति विबन्धर्यनुपलब्धः। -प्रश्न-यदि छठे गुणस्थानवर्ती जोव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, उनको अपने स्वरूपका संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि संयम भाव प्रमादके अभावस्वरूप होता है ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, हिसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँच पापोंसे बिरतिभावको संयम कहते हैं, जो कि तीन गुप्ति और पंच समितियों से अनुरक्षित हैं (दे, संयम/१) । वह संयम वास्तव में प्रमादसे नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, संयममें प्रमादसे केवल मलकी ही उत्पत्ति है । प्रश्न - ऐसा ही सूक्ष्म प्रमाद यहाँ विवक्षित है, यह कैसे जाना ? उत्तर-छठे गुणस्थानमें संयमका बिनाश न होना अन्यथा बन नहीं सकता। वहाँ होनेवाला स्वरूप कालवी मन्दतम प्रमाद संयमका नाश भी नहीं कर सकता है, क्योंकि, सकल संयमका उत्कट रूपसे प्रतिबन्ध करनेवाले प्रत्यारण्यानावरण के अभाव में सयमका नाश नहीं पाया जाता। गो. जी. जी. प्र./३३/६३/४ अत्र साकल्यं महत्त्वं च देश संयत्तापेक्षया ज्ञातव्यं, ततः कारणादेव प्रमत्तसं यतः चित्रलाचरण इत्युक्तम् । यहाँ सकल चारित्रपना या महावतपना अपनेसे नोचेवाले देशसंयम की अपेक्षा जानना चाहिए अपनेसे ऊपरके गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं। इस लिए ही प्रमत्तसंयतको चित्रलाचरण कहा गया है।
ध. १/१.१,१४/१७६/७ पञ्चसु गुणेषु के गुणमाश्रित्यायं प्रमत्तसंयतगुण
उत्पन्नश्चेत्संयमापेक्षया क्षायोपश मिकः । कथम् । प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्धकोदयक्षयात्तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमात संज्वलनोदयाच्च प्रत्याख्यानसमुत्पत्तः। -प्रश्न-पाँचों भावों से किस भाव का आश्रय लेकर यह प्रमत्त संयत गुणस्थान उत्पन्न होता है। उसर-संयमकी अपेक्षा यह क्षायोपशमिक है। प्रश्न-क्षायोपशमिक किस प्रकार है । उत्तर-१. क्योकि वर्तमानमें प्रत्यारण्यानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोके उदय क्षय होनेसे और आगामी कालमें उदयमें आनेवाले सत्तामें स्थित उन्होंके उदयमें न आनेरूप उपशमसे तथा संज्वलन कषायके उदयसे प्रत्याख्यान अर्थात संयम उत्पन्न होता है इसलिए क्षायोपशमिक है। [बिलकुल इसी प्रकार अप्रमत्तगुणस्थान भी क्षायोपशमिक है-(ध. १/१,१,१५/१७६/२)] (ध. ५/१,७,७/२०३/१)। घ.७/२.१.४६/१२/४ कई व ओवसमिया लद्धी। चदुसंज्वलण-णवणोकसायाणं देसघादिफयाणमुदयेण संजमुत्पत्तीदो। कधमेदेसिं उदयस्स खोवसमववएसो। सबधादिफयाणि ( दे. क्षयोपशम/१/१) ।... एवं सामाइयच्छेदोवट्ठाणसुद्धिसंजदाणं पिबत्तब्ब-प्रश्न-१.सं यतके क्षायोपशामिक लब्धि कैसे होती है ? उत्तर-२. चारों संज्वलन कषायों और नौ नोकषायों के देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे संयमकी उत्पत्ति होती है, इस प्रकार संयतके क्षायोपशमिक लब्धि पायी जाती है। प्रश्न-नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदयको क्षयोपशम नाम क्यों दिया गया । उत्तर-[ सर्वघाली स्पर्धकोंकी शक्तिका अनन्त गुणा होना ही क्षय है और देशघाती स्पर्धकों के रूपमें उनका अवस्थान उपशम है। दोनों के योगसे क्षयोपशम नाम सार्थक है (दे. क्षयोपशम/१/१)] इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसं यतोंके विषय में भी कहना चाहिए।
घ. १/१.७.७/२०२/३ पच्चक्रवाणावरण-चदुसंजलणणवणोकसायाणमुद. यस्स सव्वापणा चारित्तविणासणसत्तीए अभावादी तस्स खयमण्णा। तेसिं चेव उप्पण्णचारित्तं सेडिबाबार तस्स उबसमसण्णा। तेहि दोहितो उम्पण्णा एदे तिणि वि भावा खोबसमिया जादा । ३. प्रत्यारव्यानावरण, संज्वलन चतुष्क और नवनोकषायोके उदयके सर्वप्रकारसे चारिच विनाश करनेको शक्तिका अभाव है, इसलिए उनके उत्यकी क्षय संहा है. उन्हीं प्रकृतियोंको उत्पन्न हुए चारित्रको अथवा श्रेणीको आवरण नहीं करनेके कारण उपशम संज्ञा है। क्षय और उपशम इन दोनोंके द्वारा उत्पन्न हुए ये उक्त तीनों भाव (संयतासं यत, प्रमत्तस यत और अप्रमत्तसंग्रत ) भी क्षायोपशमिक हो जाते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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