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संक्रमण
सक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
१. संक्रमण सामान्य निर्देश
१. संक्रमण सामान्यका लक्षण क. पा. १/१, १८/६३१/३ अंतरकरणे कए जं णवंसयवेयकवणं तस्स 'संकमणं ति सण्णा । - अन्तरकरण कर लेनेपर जो नपुंसकवेदका (क्षपकके जो ) पण होता है यहाँ उसको ( उस कालकी ) संक्रमण
संज्ञा है। गो, क./जी. प्र./४३८/५६१/१४ परप्रकृतिरूपपरिणमन संक्रमणम् । जो प्रकृति पूर्व में बँधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। (गो, क /जी, प्र./४०६/५७३/५) ।
सम्यक्त्व प्रकृतिके पूरण काल में और मिथ्यात्वके क्षय करनेमें अपूर्वकरण परिणामोके द्वारा मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी उपाध्य फालिपर्यन्त गुणसंक्रमण और अन्तिम फासिमें सर्व संक्रमण होता है। ४. सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलनामें चार संक्रमणों
का क्रम गो, क./मू./४१२-४१३ मिच्छेसमिस्साणं अधापवत्तो मुहुत्त अंतोत्ति।
उज्वेलण तु तत्तो दुचरिमकंडोत्ति शियमेण ।४१२१ उध्वेलणपयडोणं गुणं तु चरिमम्हि कंडये णियमा। चरिमे फालिम्मि पुणो सब्वं च र होदि संकमणं ।४१३१- मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयका अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त तक अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है। और उद्वेलन नामा संक्रमण द्विचरम काण्डक पर्यन्त नियमसे प्रबलता है।४१२। उद्वेलन प्रकृतियोंका अन्तके काण्डकमें नियमसे गुण संक्रमण होता है। और अन्तको फालिमें सर्व संक्रमण होता है ।४१३॥
२. संक्रमणके भेद १. सामान्य संक्रमणके भेद घ. १५/२८२-२८४
संक्रमण या विपरिणमन
अपवर्तन
उद्वर्तनअन्य प्रकृतिअपकर्षण -
उत्कर्षण... संक्रम
अन्यप्रकृति.. सक्रम निर्जरा
अन्यप्रकृति संक्रमण
प्रकृति स्थिति अनुभाग
२. संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
१. केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ मूल उत्तर
पं. सं./प्रा./२/८ आहारय-वेउविय-णिर-णर-देवाण होंति जुगलाणि |
सम्मत्तुच्चं मिस्सं एया उब्वेलणा-पयडी।आहारक युगल (आहारक शरीर-आहारक अंगोपांग), वैक्रिमिक युगल (वै क्रियिक शरीर,
वैक्रियिक-अंगोपांग), नरक युगल (नरकगति, नरक गत्यानुपूर्वी), गो. जो/मू./५०४/१०३ संकमणं सट्ठाण बरठाणं होदि । - संक्रमण दो नरयुगल ( मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी), देवयुगल, ( देवगति, प्रकारका है-स्वस्थान संक्रमण और परस्थान सक्रमण [इसके देवगत्यानुपूर्वी), सम्यक्त्व प्रकृति, मिश्रप्रकृति और उच्चगोत्र ये अतिरिक्त आनुपूर्वी संक्रमण (ल. सा./म./२४६ ), फालि संक्रमण और तेरह उद्वेलन प्रकृतियाँ हैं । (गो. क./मु/४१४५७७ ) काण्डक संक्रमण (गो.क./जी.प्र/४१२/५७५ ) का निर्देश भी आगममें पाया जाता है।
२. केवल विध्यात योग्य प्रकृतियाँ २. भागाहार संक्रमणके भेद
गो. क./मु./४२६ सम्मत्तणुव्वेलणथीणतितीसं च दुवस्ववीसं च । वज्जो
राल दुतित्थं मिच्छं विज्झादसत्तराठी १४२६ सम्यक्त्व मोहनीयके ध. १६/गा, १/४०६ उज्वेलणविज्झादो अधापवत्तो गुणो य सम्यो य । (संकमणं)...1४०/- उसके ( भागाहार या संक्रमणके) उद्वेलन,
बिना उद्वेलन प्रकृतियाँ १२ ( दे. संक्रमण/२/१), स्त्यानगृद्विध तीन विध्यात, अधःप्रवृत्त, गुणसंक्रम, और सर्वसंक्रमणके भेदसे पॉच
आदिक ३० प्रकृतियाँ (दे. संक्रमण/२/१२), असाता वेदनीय आदिक
२० प्रकृतियाँ (दे, संक्रमण/२/8), वज्रर्पभनाराचसंहनन, औदारिक प्रकार हैं।४०१) ( गो. क./मू./४०६)।
युगल, तीर्थ कर प्रकृति और मिथ्यात्व प्रकृति ये (१२+३०+२०+ ३. पाँचों संक्रमणोंका क्रम
५ = ) ६७ प्रकृतियाँ विध्यात संक्रमणवाली हैं। गो.क./मू.व. जी.प्र/४१६ बंधे अधापवत्तो विज्झाद सत्तमोत्ति ह
३. केवल अधःप्रवृत्त योग्य प्रकृतियाँ अबंधे। एत्तो गुणो अबंधे पयडीणं अप्पसंस्थाण।४१६ प्रकृतीनां बन्धे- गो, क./मू/११६-४२०/५८० मुहमरम बंधधादी सादं संजलणलोहपंचिंदी। सति स्वस्व बन्धव्युच्छित्तिपर्यन्तमधःप्रवृत्तसक्रमण: स्यात न मिथ्या- तेजदुसमवष्णचङ अगुरुलहुपरघाद उस्सासं १४१६। सत्यगदी तसदसयं स्वस्य । ...बन्धब्युच्छित्तौ सत्यामसंयताद्यप्रमत्तपर्यन्त विध्यात- णिमिणुगुदाले अधापवत्तो दु ।..."४२०- सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें संक्रमण स्यात् । इत. अप्रमत्तगुणस्थानादुपर्युपशान्तकषायपर्यन्तं अंधव्युच्छिन्न होनेवाली धातिया कोको १४ प्रकृतियाँ ( दे. प्रकृतिबन्धरहिताप्रशस्तप्रकृतीनो गुण संक्रमणं स्यात् । ततोऽन्यत्रापि प्रथमो- बंध./9/२ ) साता वेदनीय, संज्वलन लोभ, पंचेन्द्रिय जाति, तेजस, पशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयादन्तर्मुहूर्त पर्यन्तं पुनः मिश्रसम्यक्त्व- कार्मण, समचतुरस्त्र, वर्णादि ४, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, प्रकृत्योः पूरणकाले मिथ्यात्वक्षपणायामपूर्वकरणपरिणामान्मिथ्यात्व. प्रशस्तबिहायोगति. त्रस आदि १० (दे, उदय/4/९) और निर्माण चरमकाण्डकद्विक चरमफालिपर्यन्तं च गुणसंक्रमणं स्यात् । चरमफालौ इन ३६ प्रकृतियों में अधःप्रवृत्त संक्रमण है। सर्व संक्रमणं स्यात् । प्रकृतियों के बंध होनेपर अपनी-अपनी बंध ___गो. क./मु./४२७/५८४ मिच्छूणि गिवीससयं अधापवत्तस्स होति पयव्युच्छित्ति पर्यन्त अध प्रवृत्त संक्रमण होता है परन्तु मित्यात्व डोओ।...1४२७१-मिथ्यात्व प्रकृतिके बिना १२१ प्रकृतियाँ अधःप्रवृत्त प्रकृतिका नहीं होता। और बन्धको व्युच्छित्ति होने पर असंयतसे संक्रमणकी होती हैं। लेकर अप्रमत्तपर्यन्त विख्यातनामा संक्रमण होता है। तथा अप्रमत्तसे
४. केवल गुण संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ आगे उपशान्त कषाय पर्यन्त बन्ध रहित अप्रशस्त प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण होता है। इसी तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व आदि अन्य गो, क./मू./४२७-४२८/५८४-५८५.. मुहमस्स बंधघादिप्पहुदी उगुदातुजगह भी गुणसंक्रमण होता है ऐसा जानना। तथा मिश्र और रालदुगतिथं ।४२७१ वज्ज संजलणति ऊणा गुणसं कमरस पयडीओ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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