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संक्रमण
४. उद्वेलना संक्रमण निर्दे
- मूल प्रकृतियोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरणी कभी दर्शनावरणी रूप नहीं होती। सारांश मह हुआ कि उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है।
३. उत्तर प्रकृतियोंमें संक्रमण सम्बन्धी कुछ अपवाद ध. १६/३४१/१ ईसणमोहणीयं चारित्तमोहणीए ण संकमदि, चारित्तमोहणीयं पि दंसणनोहणीए ण संकमदि । कुदो। साभावियादो।... चदुण्णमाउआणं संकमो णस्थि। कुदो । साभावियादो। दर्शन मोहनीय चारित्र मोहनीयमे संक्रान्त नहीं होती, और चारित्र मोहनीय भी दर्शनमोहनीयमें संक्रान्त नहीं होती, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।...चारों आयुकर्मका संक्रमण नहीं होता क्यों कि ऐसा स्वभाव है । ( गो. क./मू./४१०/५७४) । क.पा. ३/३,२२/४११-४१२/२३४/४ दंसणमोहणीयस्स चारित्तमोहणीय
संकमाभावादो। कसायाणं णोकसाएस णोकसायाणं च कसाएसु कुदो संकमो। ण एस दोसो, चारित्तमोहणीयभावेण तेसिं पच्चासत्तिसंभवादो। मोहणीयभावेण दंसणचारित्तमोहणीयाण पच्चासत्ति अस्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि। ण, पडिसेज्झमाणदंसणचारित्ताणं भिष्णजादित्तणेण तेसि पच्चासत्तीए अभावादो। - दर्शनमोहनीयका चारित्र मोहनीयमें संक्रमण नहीं होता है। प्रश्न-कषायों का नोकषायों में और नोकषायों का कषायों में संक्रमण किस कारणसे होता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है क्योंकि दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अतः उनमें परस्पर में प्रत्यासत्ति पायी जाती है, इसलिए उनका परस्परमें संक्रमण हो जाता है। प्रश्नदर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं, इस रूमसे इनकी भी प्रत्यासत्ति पायी जाती है, अतः इनका परस्पर में संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि परस्परमें प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारिख मोहनीयके भिन्न जाति होनेसे उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति नहीं पायी जाती, अतः इनका परस्परमें संक्रमण नहीं होता है।
आदिके सात ही करण होते हैं। उससे आगे सयोग केवली तक संक्रमणके बिना छह ही करण होते हैं ।४४२॥
६. संक्रमण द्वारा अनुदय प्रकृतियोंका भी उदय क. पा. ३/३,२२/६४३०/२४४/४ उदयाभावेण उदयनिसेयट्ठिदी परसरूवेणं
गदाए...। जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेक स्थितिके उपान्त्य समयमें पररूपसे संक्रामित हो जाती है।
७. अचलावली पर्यन्त संक्रमण सम्भव नहीं क. पा. ३/३,२२/६४११/२३३/४ अचलावलियमेत्त कालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सट्ठिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो। कुदो एसो। णियमो। साहावियादो। बंधी हुई सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अचलावली काल तक नौकषायों में संक्रमण नहीं होता। प्रश्न -विवक्षित समयमें बंधे हुए कर्मपुंजका अचलावलौ कालके अनन्तर ही पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों उत्तर-स्वभावमे ही यह नियम है।
८. संक्रमण पश्चात् आवली पर्यन्त प्रकृतियों की अचलता ध.६/१.१-८,१६/गा. २१/३४६ संकामेदुक्क उदि जे असे ते अवठ्ठिदा होति। आवलियं ते काले तेण परं होति भजिदया ।२११- जिन कर्म प्रदेशोंका संक्रमण अथवा उत्कर्षण करता है वे आवलीमात्र काल तक अबस्थित अर्थात् क्रियान्तर परिणामके बिना जिस प्रकार जहाँ निक्षिप्त हैं उसी प्रकार ही वहाँ निश्चल भावसे रहते हैं। इसके पश्चात उक्त कर्म प्रदेश वृद्धि, हानि एवं अवस्थानादि क्रियाओंसे भजनीय हैं।२१॥
४. दर्शनमोह त्रिकका स्व उदय कालमें ही संक्रमण नहीं होता
गो. क./म् /४११/५७५ सम्म मिच्छ मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेब
संकमदि । १४११॥ - सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय अपने-अपने असंयतादि गुणस्थानों में तथा मिथ्यात्व गुणस्थानमें और मिश्रमें नहीं संक्रमण करती।
५. प्रकृति व प्रदेश संक्रमणमें गणस्थान निर्देश क. पा. ३/३,२२/६३४८/३८८/१० ण, तस्य दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसन्मामिच्छत्ताण... सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयका संक्रमण नहीं होता। गो, क /मू. व जी. प्र./४११/५७४ सासणमिस्से णियमा दसणतियसंकमो णस्थि ।४११॥...सासादन मिश्रयोनियमेन दर्शनमोहत्रयस्य संक्रमण नास्ति । असंयतादिचतुर्ध्वस्तीत्यर्थः। - सासादन गुणस्थान में नियमसे दर्शनमोह त्रिकका संक्रमण नहीं होता। असं यतादि (४-७) में होता है। गो, क./मू./४२६ बंधपदेसाणं पुण संकमणं सुहमरागोत्ति ४२६॥ गो. क./मू. व टी./४४२,५६४ आदिमसत्तेव तदो सुहम कसायोत्ति
संकमेण विणा। छच्च सजोगित्ति...१४४२।.. तित्रापि सक्रमकरणं विना षडेर सयोगपर्यन्तं भवन्ति । अन्धरूप प्रदेशोंका संक्रमण भी सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त है। क्योंकि 'बंधे अधापबत्तो' इस गाथासूत्रके अभिप्रायसे स्थितिबंध पर्यन्त ही संक्रमण संभव है।४२१। उस अपूर्वकरण गुणस्थानके ऊपर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यन्त
४. उद्वेलना संक्रमण निर्देश
१. उद्वेलना संक्रमणका लक्षण नोट-[करण परिणामों अर्थात् परिणामों की विशुद्धि व संक्लेशसे निरपेक्ष कर्म परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणमन हो जाना, अर्थात रस्सीका बट खोलनेवत् उसी प्रकृतिरूप हो जाना जिसमें कि संक्रम कर पहले कभी इस प्रकृतिरूप परिणमन किया था, सो उद्वेलना संक्रमण है। इसका भागाहार अंगुल/असं. है, अर्थात सबसे अधिक है। अर्यात प्रत्येक समय बहुत कम द्रव्य इसके द्वारा परिणमाया जाना सम्भव है। यह बात ठीक भी है, क्योंकि बिना परिणामों रूप प्रयत्न विशेषके धीरे-धीरे हो कार्यका होना सम्भव है। जो प्रकृति उस समय नहीं बंधती है और न ही उसको बाँधनेकी उस जीवमें योग्यता है उन्हों प्रकृतियोंको उद्वेलना होती है। मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही होती है। यह काण्डकरूप होती है अर्थात प्रथम अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा विशेष चयहीन क्रमसे तथा द्वितीय अन्तर्मुहूर्त में उससे दुगुने चयहीन क्रमसे होती है । अधःप्रवृत्त पूर्वक ही होती है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त ही होती है। यह प्रकृतिके सर्वहीन निषेकोंको परिणमाने पर होता है, थोड़े माअपर नहीं। प्रत्येक काण्डक पत्य/असं. स्थिति वाला होता है। गो, क./जी. प्र./३४६/५०३/२ बल्बजरज्जुभावविनाशयत् प्रकृतेरुद्वेषलन भागाहारेणापकृष्य परप्रकृतिता नीत्वा विनाशनमुढल्लनं ।३४६ - जैसे जेवड़ी (रस्सी)के बटने में जो बल दिया था पीछे उलटा घुमानेसे वह बल निकाल दिया। इसी प्रकार जिस प्रकृतिका बंध किया था, पीछे परिणाम विशेषसे भागाहारके द्वारा अपकृष्ट करके, उसको अन्य प्रकृतिरूप परिणमाके उसका नाश कर दिया (फल-उदयमें नहीं आने दिया, पहले ही नाश कर दिया ।) उसे उद्वेलन संक्रमण कहते हैं।
.. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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