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संगति
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संज्ञा
९. आर्यिकाको साधुसे सात हाथ दूर रहनेका नियम मू. आ./१६५ पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरि
अणज्जाओ गवासणेणेव बंदति ।१६५। =आर्यिकाएँ साधुसे पाँच हाथ दूरसे, उपाध्यायको छह हाथ दूरसे और साधुओं को सात हाथ दूरसे गौ आसनसे बैठकर नमस्कार करती हैं ।१९।।
१. कथंचित् एकान्तमें आर्यिकाकी संगति प. पु./१०६/२२५-२२८ ग्रामो मण्डलिको नाम तमायात. सुदर्शनः । मुनिमुद्यानमायात बन्दित्वा तं गता जनाः ।२२५॥ सुदर्शनां स्थिता तत्र स्वसारं सचो व वन् । ईक्षितो वेदवत्याऽसौ सत्या श्रमणया तया ।२२६। ततो ग्रामीणलोकाय सम्यग्दर्शनतत्परा | जगाद पश्यतेवृक्ष श्रमणं ब्रथ सुन्दरम् ।२२७। मया मुयोपिता सार्क स्थितो रहसि बीक्षित। तत. कैश्चित प्रतीतं तन्न तु कैश्चिद्विचक्षण ।२२८। - उस ग्राममें एक सुदर्शन नामक मुनि आये। वन्दना कर जब सब लोग चले गये तब उनके पास एक सुदर्शना नामकी आर्यिका जो कि मुनिकी बहन थी बैठी रही और मुनि उसे सद्वचन कहते रहे । अपने आपको सम्यग्दृष्टि बताने वाली वेदवती ( सीताके. पूर्व भवकी पर्याय ) ने गाँवके लोगोंसे कहा कि मैंने उन साधुओंको एकान्तमें सुन्दर स्त्रीके साथ बैठे देखा है। * पाश्र्वस्थादि मुनि संग निषेध-दे० साधु/५ ।
कर भाग जाता है। ऐसे लोगोंसे मैत्री रब नेसे तो अकेला रहना ही हजारगुभा अच्छा है ।४। सज्ञा-क्षुद्र प्राणीसे लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चारके प्रति मो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचलो भूमिओं में ये व्यक्त होती हैं और ऊपरकी भूमिकाओं में अव्यक्त । १. संज्ञा सामान्यका लक्षण १. नामके अर्थमें स. सि./२/२४/१८१/१० संज्ञा नामेत्युच्यते । - संज्ञाका अर्थ नाम है। (रा. वा./२/२४/५/१३६/१३) । २. ज्ञानके अर्थमें दे. मतिज्ञान/१ मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता ये सर्व सम्यग्ज्ञानकी
संज्ञाएँ हैं। स. सि./१/१३/१०६/५ संज्ञानं संज्ञा। = 'संज्ञानं संज्ञा' यह इनकी
व्युत्पत्ति है। गो. जो./मू./६६० णो इंदियआवरणरत्र ओवसमं तज्जबोहणं सण्णा ।
= नोइन्द्रियावरण कर्मके क्षयोपशमको या तज्जन्य ज्ञानको संज्ञा
११. मित्रता सम्बन्धी विचार १. मित्रतामें परीक्षाका स्थान कुरल/८०/१.३,१० अपरीक्ष्यैव मैत्री चेत कः प्रमादो ह्यतः परः। भद्राः प्रीति विधायादौ न तां मुञ्चन्ति कर्हिचित् ।। कथं शीलं कुलं किं कः संबन्धः का च योग्यता। इति सर्व विचार्येव कर्तव्यो मित्रसंग्रहः । विशुद्धहृदयरायः सह मैत्री विधेहि वै । उपयाचितदानेन मुञ्चस्वानार्य मित्रताम् ।१०। इससे बढ़कर अप्रिय बात और कोई नहीं है कि बिना परीक्षा किये किसी के साथ मित्रता कर ली जाय, क्योंकि एक बार मित्रता हो जाने पर सहृदय पुरुष 'फिर छोड़ नहीं सकता।१जिस मनुष्यको तुम अपना मित्र बनाना चाहते हो उसके कुलका, उसके गुण-दोषोंका, किन-किनके साथ उसका सम्बन्ध है, इन सब बातोंका विचार कर, पश्चात् यदि वह योग्य हो तो मित्र बना लो।३. पवित्र लोगों के साथ बड़े चावसे मित्रता करो, लेकिन जो अयोग्य हैं उनका साथ छोड़ दो, इसके लिए चाहे तुम्हें कुछ भी देना पड़े ।।
२. मित्रतामें विचार स्वतन्त्रताका स्थान कुरल/८१/२,४ सत्यरूपात तयोमैत्री वर्तते विज्ञसमता । स्वाश्रितो यत्र पक्षौ द्वौ भवतो नापि बाधकः ॥२॥ प्रगाढमित्रयोरेकः किमप्यनुमति विना । कुरुते चेद् द्वितीयोऽपि सख्यमाध्याय हृष्यति ।४। -सच्ची मित्रता वही है जिसमें मित्र आपस में स्वतन्त्र रहें और एक-दूसरेपर दबाव न डालें । विज्ञजन ऐसी मित्रताका कभी बिरोध नहीं करते ।। जब कि जिन दो व्यक्तियों में प्रगाढ़ मैत्री है उनमेंसे एक दूसरे की अनुमतिके बिना ही कोई काम कर लेता है तो दूसरा मित्र आपसके प्रेमका ध्यान करके उससे प्रसन्न ही होगा।४। ३. अयोग्य मित्रकी अपेक्षा अकेला रहना ही अच्छा है कुरल/८२/४ पलायते यथा युद्धात पातयित्वाश्ववारकम् । कुत्स्यसप्तिस्तथा मायी का सिद्धिस्तस्य सख्यतः १४। -कुछ आदमी उस अक्खड़ घोड़ेकी तरह होते हैं कि जो युद्धक्षेत्र में अपने सबारको गिरा
३. इच्छाके अर्थमें स. सि./२/२४/१२/१ आहारादिविषयाभिलाषः संज्ञति । आहारादि विषयोंकी अभिलाषाको संज्ञा कहा जाता है। (रा.वा./२/२४/७/
१३६/१७)। पं.स प्रा./१/५१ इह जाहि नाहिया वि य जीवा पावं ति दारुणं दुक्खें।
सेवंता वि य उभए॥५१॥ = जिनसे बाधित होकर जीव इस लोकमें दारुण दुःखको पाते हैं, और जिनको सेवन करनेसे जीव दोनों ही भवोंमें दारुण दुःखको प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं. सं.।
सं./१/३४४); (गो. जी./मू /१३४)। गो.जी./जी. प्र./२/२१/१० आगमप्रसिद्धा वाञ्छा संज्ञा अभिलाष इति ।
- आगममें प्रसिद्ध वाञ्छा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं । (गो. जी./जी. प्र./१३४/३४७/१६) ।
२. संज्ञाके भेद घ. २/१.१/४१३/२ सण्णा चउबिहा आहार-भय-मेहणपरिग्गहसण्णा
चेदि।-खीणसण्णा वि अत्थि (पृ. ४१६/१)। -संज्ञा चार प्रकारकी है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। क्षीण संज्ञावाले भी होते हैं । (ध.२/१,१/४१६/१); (नि. सा./ ता. वृ./ ६६); (गो. जी/जी.प्र | १३४/३४७)।
३. आहारादि संज्ञाओंके लक्षण गो. जी./जी. प्र./१३५-१३८/३४८. ३५१ आहार-विशिष्टान्नादौ संज्ञाबाब्छा आहारसंज्ञा (१३५-३४८) भयेन उत्पन्ना पलायनेच्छा भयसंज्ञा (१३६/३४६) मैथुने-मिथुनकमणि सुरतव्यापाररूपे संज्ञा-वाञ्छा मैथुनसंज्ञा (१३७/३५०) परिग्रहसंज्ञा-तदर्जनादि बाञ्छा जायते । (१३८/३५१) - विशिष्ट अन्नादिमें संज्ञा अर्थात् वाग्छाका होना सो आहारसंज्ञा है। (१३५/३४८) अत्यन्त भयसे उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदिकी इच्छा सो भयसंज्ञा है। मैथुनरूप क्रियामें जो बाब्छा उसको मैथुनसंज्ञा कहते हैं। धन-धान्यादिके अर्जन करने रूप जो वाञ्छा सो परिग्रहसंज्ञा जाननी। ध.२/१,१/४१६/३ एदासिं चउण्डं सणाणं अभावो खीणसण्णा णाम ।
-इन चारों संज्ञाओं के अभावको क्षीणसंज्ञा कहते हैं।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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