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संज्ञा
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४. आहारादि संज्ञाओंके कारण
८. सं. / प्रा./१/५२-५५ आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुठेण । सादिरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु । ५२| अह भीमदंसणेण य तस्वओगेण कणससे भयकम्मुदीरणार भयसाणा जायदे पहि 15३ परिदरसभोयणे यतस्तुनोगे कुशीलवणार वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥ ५४॥ उबगरणदंसणेण यतस्तओगेण मुखिया व लोहस्सुदीरणाए परिजायते सा ॥५५॥ - बहिरंगमें आहारके देखनेसे उसके उपयोग और उदररूप कोडके खाली होनेपर तथा अन्तरंग में असाता बेदनीयकी उदीरणा होनेपर आहारमा उत्पन्न होती है ५१ हिरंग अति भीमदर्शनसे. उसके उपयोगसे, शक्तिकी हीनता होनेपर, अन्तरंग भयकर्म की उदीरणा होनेपर भयसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५३ बहिरंग गरिष्ठ स्वादिष्ठ और रसयुक्त भोजन करनेसे, पूर्व-भुक्त विषयोंका ध्यान करनेसे, कुशीलका सेवन करनेसे तथा अन्तरंग बेदकर्मकी उदीरणा होनेपर मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है ॥५४ महिर गर्ने भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणोंके देखनेसे उनका उपयोग करनेसे, उनमें मूर्छाfभाव रखनेसे तथा अन्तरंग में लोभकर्मकी उदीरणा होनेपर परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है ५५ गोजी./१२५-१३८) (पं.सं./सं./९/३४८-३३१) ।
५. संज्ञा व संज्ञीमें अन्तर
स.सि./२/२४/१८१८ ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वमनस्का इति विशेषणमनर्थकम् यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहार परीक्षा संज्ञापि संमेति तय कम् संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात संज्ञानामेत्युच्यते तवन्तः संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसङ्गः संज्ञा ज्ञानमिति चैव सर्वेषां प्राणिनां हानात्मकत्वादतिप्रसङ्गः आहारादिविषयाभिलाष' संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते । - प्रश्न – सूत्र में 'संज्ञिनः' इतना पद देनेसे ही काम चल जाता है, अतः 'समनस्काः ' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहितके श्यागकी परीक्षा करनेमें मनका व्यापार होता है। यही संज्ञा है उत्तर यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में उपभिचार पाया जाता है। संज्ञाका अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव ही माने जायें तो सभी जीवोंको संझीपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा । संज्ञाका अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होनेसे सबको संज्ञोपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयोंकी अभि Parent संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अतः सूत्र में 'समनस्का:' ग्रह पद रखा है। (रा.वा./२/१४/७/११/९०)
६. वेद व मैथुन संज्ञामें अन्तर
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घ. २ / ११ / ४१३ / २ मेथुनसंज्ञा वेदस्यान्तर्भवतीति चेन्न वेदत्रयोदयसामान्यनिबन्धनमै नहाया वेदोदयविशेषणस्यानुपपत्तेः । प्रश्न- मैथुन संज्ञाका वेदने अन्तर्भाव हो जायेगा। उत्तर- नहीं, क्योंकि तीनों वेदोंके उदय सामान्यके निमित्तसे उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है ।
७. लोभ व परिग्रह संज्ञा में अन्तर
म २/१.१/४१३/४ परिग्रहसंज्ञापि न सोने करमास्कन्दति लोभीदवसामान्यस्यालीवाह्मार्थसोभतः परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदाद ।
= परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषायके साथ एकत्वको प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थोंको विषय करनेवाला होनेके कारण परिग्रह सज्ञाको धारण करनेवाले लोभसे लोभकषायके उदयरूप सामान्य
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संज्ञी
लोभका भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थोंके निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं) और सोभ उपायके उदयसे उत्पन्न परिणामोंको लोभ कहते हैं ।
८. संज्ञाओंका स्वामित्व
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गो. जी. जी. प्र. ७०२ / ११३६/६ मिथ्याहादिपमतान्त आहारादि चत संज्ञा भवन्ति पठगुणस्थाने आहारसंज्ञा म्युखिन्ना । शेषास्तिसः अम्मचादिषुकरणात्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना। अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तमैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्तः । तत्र मैथुनसंज्ञा युना सूक्ष्मसाम्पराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना । उपरि उपशान्तादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न सन्ति कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादमिथ्या गुणस्थान से लेकर प्रमत पर्यन्त चारों संज्ञाएँ होती हैं पट्ट गुणस्थान में आहार संशाका छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यत शेष तीन संज्ञा है तहाँ भय संज्ञ का विद हो जाता है । अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यन्त मैथुन और परिग्रह दो संज्ञाएँ हैं। हाँ मैथुनका विच्छेद हो गया। तब सूक्ष्म साम्परायमें एक परिग्रहसंज्ञा रह जाती है, उसका भी वहाँ विच्छेद हो गया। तब ऊपरके उपशान्त आदि गुणस्थानमें कारणके अभाव में कार्यका अभाव होता है, अतः वह कार्य रहित भी संज्ञा नहीं है।
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९. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में संज्ञा उपचारसे है
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धं. २/९.१/४१३४३३/६३ यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आलीढबाह्यार्थाः, अप्रमत्तानां संज्ञाभावः स्यादिति चेन्न तत्रोपचारतस्तत्सत्याभ्युप गमात् । ४९३/६ (कारण कम्मोदय संभवादो भयमे परिग्गहसण्णा अत्थि ( ४३३ / ३) । प्रश्न- यदि ये चारों ही माह्या संसर्गसे उत्पन्न होती है तो अप्रमत गुणस्थानवर्ती जीवो के संज्ञाओंका अभाव हो जाना चाहिए। उत्तेर-नहीं क्योंकि अप्रमत्तों में उपचारसे उन संज्ञाओंका सद्भाव स्वीकार किया गया है । भय आदि संज्ञाओंके कारणभूत कर्मोंका उदय संभव है इसलिए उपचार भय और मैथुन संज्ञाएँ हैं।
गो. जी./मू./७०२ छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावखा । - मिध्यात्व से लेकर अम्मत पर्यन्त चारों ही संज्ञाएँ कार्यरूप होती हैं । किन्तु ऊपर के गुणस्थानोंमें तीन आदिक संज्ञाएँ कारणरूप होती हैं। (गो.क./मू./ १३६ ) ।
१०. संज्ञा कर्मके उदयसे नहीं उदीरणासे होती है
.. २/१.१/४३३/२ आसादावेदणीयस्स उदीरणाभावादी आहार सण्णा अप्पमत्त संजदस्स णत्थि = - अमाता वेदनीय कर्म की उदीरणाका अभाव होनेसे अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है ।
दे, संज्ञा / ४ चारों संज्ञाओंके स्वस्व कर्मकी उदीरणा होनेपर वह वह संज्ञा उत्पन्न होती है ।
* संज्ञाके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान आदि २० प्ररूपणाएँ । ३. सद
* संज्ञा प्ररूपणाका कपाय मार्गणामें अम्तमोव । २. मार्गा
संज्ञासंज्ञ - क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष / अपरनाम सन्नासन्न - दे. गणित / T / १ ।
संज्ञी - मनके सद्भाव के कारण जिन जीवोंमें शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकारसे विचार, तर्क आदि करनेकी शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि वृद जन्तुओं में भी पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थोंसे हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण
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