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संख्यात
संगति
संख्यात-दे, संख्या। संख्यातुल्य घात-Raising of number to its own
Power. (ध. ५/प्र. २८) संख्या व्यभिचार-दे.नय./III/६/८। सगांत-मनपर संगतिका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक होनेके कारण मोक्षमार्ग में भी साधुओंके लिए दुर्जनों, स्त्रियों व आर्यिकाओं आदिके संसर्गका कड़ा निषेध किया गया है और गुणाधिककी संगतिमें रहनेकी अनुमति दी है।
१. संगतिका प्रभाव भ, आ./मू./३४३ जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिसो चेव । बासिज्जइ च्छरिया सा रिया वि कणयादिसंगण ।३४३ - जैसे री सुवर्णादिककी जिल्हई देनेसे सुवर्णादि स्वरूपकी दीखती है वैसे मनुष्य भी जिसकी मित्रता करेगा वैसा ही अर्थात् दुष्ट के सहबाससे दुष्ट और सज्जनके सहवाससे सज्जन होगा।३४३। २. दुर्जनकी संगतिका निषेध भ. आ./मू./३४४-३४८ दुजणसंसग्गोए जहदि णियगं गुणं खु सजणो
वि। सीयलभाव उदयं जह पजहदि अग्गिजोएण ३४४ा सुजणो वि होइ लहुओ दुज्जणसंमेलणाए दोसेण । माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसं सिट्ठा ।३४५॥ दुज्जणसंसग्गीए संकिज्जदि स्जदो वि दोसेण । पाणागारे दुद्ध पियंतओ बंभणो चेव ।३४६। अदिसंजदो वि दुज्जणकरण दोसेण पाउणइ दोसं । जह धूगकए दोसे हंसो य हो अपावो वि ।३४८। - सज्जन मनुष्य भी दुर्जनके संगसे अपना उज्ज्वल गुण छोड़ देता है। अग्निके सहवाससे ठण्डा भी जल अपना ठण्डापना छोड़कर क्या गरम नहीं हो जाता । अर्थात हो जाता है ३४४। दुर्जनके दोषोका संसर्ग करनेसे सज्जन भी नीच होता है, बहुत कीमत की पुष्पमाला भी प्रेतके (शबके) संसर्गसे कौड़ोकी कीमतकी होती है ।३४६। दुर्जनके संसर्ग से दोष रहित भी मुनि लोकों के द्वारा दोषयुक्त गिना जाता है। मदिरागृहमें जाकर कोई ब्राह्मण दूध पीवे तो भी मद्यपी है ऐसा लोक मानते हैं ।३४६। महान तपस्वी भी दुर्जनों के दोषसे अनर्थ में पड़ते हैं अर्थात दोष तो दुर्जन करता है परन्तु फल सज्जनको भोगना पड़ता है। जैसे उसलूके दोषसे निष्पाप हंस पक्षी मारा गया ।३४८,
३. लौकिकजनोंकी संगतिका निषेध प्र. सा./म् /२६८ णिच्छिद सुत्तत्थ पदो समिदकसाओ तबोधिगो चावि । लोगिगजणसंसग्गंण चयदि जदि संजदो ण हदि । - जिसने सूत्रों के पदोको और अर्थोंको निश्चित किया है, जिसने कषायोंका शमन किया है और जो अधिक तपवान है ऐसा जीव भी यदि लौकिकजनों के संसर्गको नहीं छोड़ता, तो वह संयत नहीं है ।२६८० र. सा./मू./४२ लोइयजणसंगादो होइ मइमुहरकुडिलदुन्भावो। लोइयसग तहमा जइ वि त्तिविहेण मुंचाओ ।४२। -लौकिक मनुष्यों को संगतिसे मनूष्य अधिक मोलनेवाले वक्कड कुटिल परिणाम और दुष्ट भावोसे अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं इसलिए लौकिकजनोंकी सगतिको मन-वचन-कायसे छोड़ देना चाहिए। स. श. मू./७२ जनेभ्यो बाक ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनोगी ततस्त्यजेत् ।७२। =लोगोंके संसर्गसे वचनकी प्रवृत्ति होती है। उससे मनकी व्यग्रता होती है, तथा चित्तकी चंचलतासे चित्तमें नाना विकल्प होते हैं। इसलिए योगी लौकिकजनोंके संसर्गका त्याग करे। भ. वि./वि./६०६/८०७/१५ उपवेशन अथवा गोचरप्रविष्टस्य गृहेषु निषद्या कस्तत्र दोष इति चेद ब्रह्मचर्यस्य विनाशः खोभिः सह संवा.
सात् ।...भोजनार्थिनां च विघ्नः । कथमिव यतिसमीपे भुजिक्रिया संपादयामः ।...किमर्थमयमत्र दाराण मध्ये निषण्णो यतिक्ते न यातीति । -आहार के लिए श्रावकके धरपर जाकर वहाँ बैठना यह भी अयोग्य है। स्त्रियों के साथ सहवास होनेसे ब्रह्मचर्यका विनाश होता है। जो भोजन करना चाहते है उनको विघ्न उपस्थित होता है, मुनिके सनिधि में आहार लेने में उनको संकोच होता है..."ये यति स्त्रियों के बीच में क्यों बैठते हैं, यहाँसे क्यों अपने स्थानपर जाते नहीं ?" घरके लोग ऐसा कहते हैं। पं.ध./उ./६५५ सहासंयमिभिर्लोकः संसर्ग भाषणं रतिम् । कुर्यादाचार्य इत्येके नासौ सूरिन चाईत. १६५३१ = आचार्य असंयमी पुरुषों के साथ सम्बन्ध, भाषण, प्रेम-व्यवहार, करे कोई ऐसा कहते हैं, परन्तु बह आचार्य न तो आचार्य है और न अर्हवका अनुयायी ही।६५५॥
४. तरुणजनोंकी संगतिका निषेध भ, आ./मू./१०७२-१०८४ खोभेदि पत्थरो जह हे पडतो पसण्णमवि पंक। खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी ।१०७२। संडय संसग्गीए जह पादु' संडओऽभिलस दि सुरं। विरुए तह पयडीए संमोहो तरुणगोट्ठीए ।१०७८। जादो खु चारुदत्तो गोट्ठोदोसैण तह विणीदो वि। गणियासत्तो मज्जासत्तो कुलदूसओ य तहा ।१०२१ परिहरइ तरुण गोट्ठी विसं व बुढासले य आयदणे। जो वसइ कुणइ गुरुणिसं सो णिच्छरइ बंभं । १८८४। -जैसे बड़ा पत्थर सरोबरमें डालनेसे उसका निर्मल पानी उछलकर मलिन बनता है वैसा तरुण संसर्ग मनके अच्छे विचारोंको मलिन बनाता है ।१०७२। जैसे मद्यपीके सहवाससे मद्यका प्राशन न करनेवाले मनुष्यको भी उसके पानकी अभिलाषा उत्पन्न होती है वैसे तरुणोके संगसे वृद्ध मनुष्य भी विषयोंकी अभिलाषा करता है ।१०७८। ज्ञानी भी चारुदत्त कुसंसर्गसे गणि कामें आसक्त हुआ, तदनन्तर उसने मद्य में आसक्ति कर अपने कुलको दूषित किया ।१०८२जो मनुष्य तरुणोंका संग विष तुल्य समझकर छोड़ता है, जहाँ बृद्ध रहते हैं, ऐसे स्थानमें रहता है, गुरुकी आज्ञाका अनुसरण करता है वही मनुष्य ब्रह्मचर्यका पालन करता है। * सल्लेखनामें संगतिका महत्त्व-दे सल्लेखना/५
५. सत्संगतिका माहात्म्य भ. आ./मू /३५०-३५३ जहदि य णि ययं दोस पि दुजणो सुयणवइयरगुणेण । जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययच्छवि जहदि ।३५०। कुसममगंधमवि जहा देवयसेसत्ति करिदे सीसे। तह सुयणमझत्रासी वि दुज्जणो पूइओ होइ ।३५१॥ संविग्गाणं मज्झे अप्पियधम्मो वि कायरो वि णरों। उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलज्जाहि ॥३५२। स विग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झारम्मि। होइ जह गंधदुत्ती पयडिसुर भिदव्य संजोए ।३५३। - दुर्जन मनुष्य सज्जनों के सहवाससे पूर्व दोषोंको छोडकर गुणोंसे युक्त होता है, जैसे-कौवा मेरुका आश्रय लेनेसे अपनी स्वाभाविक मालिन कान्तिको छोड़कर सुवर्ण कान्तिका आश्रय लेता है ।३५० निर्गन्ध भी पुष्प यह देवताकी शेषा है-प्रसाद है ऐसा समझकर लोक अपने मस्तकपर धारण करते हैं वैसे सज्जनों में रहनेवाला दुर्जन भी पूजा जाता है ।३५१। जो मुनि संसारभीरु मनुष्यों के पास रहकर भी धर्म प्रिय नहीं होते हैं। तो भी भावना, भय, मान और लज्जाके वश पाप क्रियाओंको वे त्यागते हैं १३५२। जो प्रथम ही संसारभीरु हैं वे संसारभोरुके सहवाससे अधिक संसार भीरु होते हैं। स्वभावतः गन्धयुक्त कस्तूरी, चन्दन वगैरह पदार्थोंके सहवाससे कृत्रिम गन्ध पूर्व से भी अधिक सुगन्धयुक्त होता
भ, आ./मू /१०७३-१०८३ कलुसीकदंपि उदयं अच्छ' जह होइ कदयजोएण। कलुसो वि तहा मोहो उक्समदि हु बुढसेवाए ।१०७३।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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