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संख्या
२. सख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
है उनके प्रमाणका वर्णन करनेवाली संख्या (द्रव्यानुयोग) प्ररूपणा करती है।
२.संख्या प्रमाणक भेद ति, प./४/३०६/१७६/१ एत्थ उक्स्स संखेज्जयजाण णिमित्त वदीववित्थार सहस्सजोयण उठवेधपमाणचत्तारिसराधया कादब्बा। सलागा पडिसलागा महासलागा ऐदे तिणि वि अवट्ठिदा च उत्थो अणवटिहो। एदे सम्वे पण्णाए ठविदा। एत्थ चउत्थसरावयअभंतरे दुवे सरिसवेत्युदे तं जहण्णं संखे जयं जादं । एदं पढमवियप्पं तिणि सरिसवेच्छदधे अजहण्ण मणुकस्ससं खेज्जयं । एवं सराबए पुण्णे एदमुवीमज्झिमवियप । ...तदो एगरूवमवणीदे जादमुक्कस्ससंबज्ज अ । जम्हि जम्हि संखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि-तम्हि य जहण्ण मणुक्कस्ससखेज्जयं गंतूण घेत्तव्यं । तं कस्स विसओ। चोइसविस्स हाँ उत्कृष्ट संख्यातके जाननेके निमित्त जम्बूद्वीपके समान विस्तारवाले (एक लाख योजन) और हजार योजन प्रमाण गहरे चार गड्ढे करना चाहिए। इनमें शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये तीन गड्ढे अवस्थित और चौथा अनस्थित है। ये सब गड्ढे बुद्धिसे स्थापित किये गये हैं। इनमेसे चौथे कुण्डके भीतर दो सरसोंके डालनेपर बह जघन्य संरख्यात होता है। यह संख्यातका प्रथम विकल्प है। लीन सरसोंके डालनेपर अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात होता है। इसी प्रकार एक-एक सरसोंके डालनेपर उस कुण्डके पूर्ण होने तक यह तीनसे ऊपर सब मध्यम संख्यातके विकल्प होते हैं। (रा वा./३/ ३८/५/२०६/१८)। दे. गणित/1/१६ ।
३. संख्या व विधानमें अन्तर रा. वा./९/८/११/४३/४ विधानग्रहणादेव संख्या सिद्धिरितिः तन्न; किं कारणम् । भेदगणनार्थत्वात् । प्रकारगणन हि तत, भेद गणन र्थ सिदमुच्यते-उपशमसम्यग्दृष्टय इयन्तः, क्षायिकसम्यादृष्टय पतावन्तः इति ।-प्रश्न-विधानके ग्रहण से हो संख्याको सिद्धि हो जाती है। उत्तर ऐसा नहीं है क्योकि विधानके द्वारा सम्यग्दर्शनादिकके प्रकारों की गिनती की जाती है-इतने उपशम सम्यग्दृष्टि है, इतने क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आदि ।
४. कोडाकोडी रूप संख्याओंका समन्वय ध. ७/२.५,२९/२५८/३ एसो उबदेसी कोडाकोडाकोडाको डिए हेहुदा त्ति
मुत्तेग कधं ण विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूगदसकोडाकोडाकोडाको डि त्ति एसब पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो। = प्रश्न यह उपदेश कोडाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस मूत्रसे कैसे विरोधका प्राप्त न होगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि, एक कोडाकोड़ा कोड़ाकोड़ीको आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोडी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकाड़ी रूपसे ग्रहण किया गया है। २. संख्या प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
१. कालकी अपेक्षा गणना करनका तात्पर्य ष. खं. ३/१.२/स. ३/२७ अणं ताणताहि ओस प्पिणि-उम्सपिण्णीहि ण
अवहिरति कालेज 11 घ./१,२,३/२८/4 कपंकालेण मिणिज्जते मिच्छाइट्टी जीवा । अणता
णं ताणं ओसप्पिणि-उस्स चिपणीण समए स्वेद्रण मिच्छाइट्ठिरासि च ठवेऊण कालम्हि एगो समयो मिच्छाइटिरासिम्हि एगो जीवो अवहिरिजदि। एबमबाहिरिज्जमाणे अबहिरिज्जमाणे सब्वे समया अवहि रिजंति, मिच्छाइट्ठिरासीण अवहिरिज्जदि । -१. कालकी अपेक्षा मिथ्यावृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसपिणियों और उत्सपिणियों के द्वारा अपहृत नहीं होते है ।३। २. प्रश्न-काल प्रमाणकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण कैसे निकाला जाता है। उत्तर
एक और अनन्तानन्त अबसपिणियों और उत्सपिणियों के समयों को स्थापित करके और दूसरी ओर मिथ्यावृष्टि जीवोंकी राशिको स्थापित करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीव राशिके प्रमाण मेसे एक-एक जीव कम करते जाने चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर काल के समय और जीव राशिके प्रमाणको कम करते हुए चले जानेपर अमन्तानन्त अबसपिणियों
और उत्पपिणियोंके सब समय समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव राशिका प्रमाण समाप्त नहीं होता।
२. क्षेत्रकी अपेक्षा गणना करनेका तात्पर्य प. वं. ७/१,२/सू.४/३२ खेत्तेण अणं ताणता लोगा।४। घ. ३/१,२,४/३२-३३/६ खेतेण कथं मिच्छाइटिरासी मिणिज्जदे। बुच्चरे--जधा पत्थेण जब-गधूमादिरासी मिणिज्जदि तथा लोएण मिच्छाइद्विरासी मिणिज्जदि (३२/६) एक्छे कम्मि लोगागासपदेसे एक्केवक मिच्छाइटिजी णिवखेविऊण एक्को लोगो इदि मणेण संकप्पेयचो । एवं पुणो पुणो मिणिज्जमाणे मिच्छाइद्विरासी अणंतलोगमेत्तो होदि । १.क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण मिथ्याष्टि जीव राशिका प्रमाण है ।४। २. प्रश्न-क्षेत्र प्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी अति जानी जाती है। उत्तरजिस प्रकार प्रस्थ मे गेहूँ, जौ आदिको राशिका माप किया जाता है, उसी प्रकार लोकप्रमाणके द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि मापी अर्थात् जानी जाती है (३२/६) लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर एक-एक मिथ्याष्टि जीवको निक्षिप्त करके एक लोक हो गया इस प्रकार मनसे संकल्प करना चाहिए इस प्रकार पुनः-पुनः माप करनेपर मिथ्याष्टि जोवराशि अनन्तानन्त लोकप्रमाण होती है।
३. संयम मार्गणामें संख्या सम्बन्धी नियम ध.७/२,११,१७४/५६८/१ जस्स मंजमम्स तद्विद्वामाणि बहुआणि तत्थ जीवा वि बहुआ चेच, जत्थ योवाणितन्थ थोवा चेव होति ति। - जिस संयमके लब्धिस्थान बहुत हैं उसमें जीव भी बहुत ही हैं, तथा जिस संयममें लब्धिस्थान थोड़े है उसमें जीव भी थाड़ ही है।
४. उपशम व क्षपक श्रेणीका संख्या सम्बन्धी नियम ध. १११,८.२४४/३२३/१ णाण वेदादिसम्वनियप्पेसु उबसमसेडिं चरतजीवेहितो खबगडि चढतजीत्रा दुगुणा त्ति आइगिओवदेसादो।
ज्ञान वेदादि सर्प विकल्पोमें उपशम श्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंसे क्षपक श्रेणीपर चढ़नेवाले जीव दुगुणे होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है।
५ सिद्धोंकी संख्या सम्बन्धी नियम ध. १४/५.६,११६/१४३/१० सव्वकालमदोदकालस्स सिद्धा असखेज दि
भागो चेवः छम्मासमंतरिय शिवुइगमनणि यमादी । - सिद्ध जीव सर्वदा अतीतकालके असंख्यात भागप्रमाण ही होते है, क्योंकि छह महोनेके अन्तरसे मोक्ष जानेका नियम है।। ६. संयतासंयत जीव असंख्यात कैसे हो सकते हैं ध.५/१,८,१०/२४८/४ माणुसखेतम्भतरे चेय संजदासजदा होंति, यो
बाहिद्वा; भोगभूमि म्हि संजमासंजमभावविरोहा। ण च माणुसखेत्तभंतरे असंखेज्जाणं संजदासंजदाणमथि संभत्रो, तेत्तियमेत्ताणमेल्यावहाणविरोहा । तदो संखेज गुणे हि संजदासंजदेहि होठवमिदि। ण, सर्यपहपबदपरभागे असंखेन्ज जोयणवित्थडे कम्मभूमिपडिभाए तिरियरवाणमसंखेज्जाणं संजमासंजमगुणस हिदाणमुबलं भा। या प्रश्न-संयतासंयत मनुष्यक्षेत्रके भीतर ही होते हैं, बाहर नहीं, क्योंकि, भोगभूमि में संयमासं यमके उत्पन्न होनेका विरोध है। तथा मनुष्य क्षेत्रके भीतर असंख्यात संयतासं यतोंका पाया जाना सम्भव
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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