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संक्रमण
१०. आनुपूर्वी व स्तिवुक संक्रमण
१३. गुणश्रेणी विधान विषयक यंत्र
अपकृष्ट द्रव्य
प्रथम खण्ड
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द्वितीय खण्ड
० तृतीय खण्ड
तदियट्ठिदीए तत्तो असंखेज गुणे देदि । एवमसंखेजगुणाए सेडीए णेदवं जाब गुणसेडीचरिमसमओ त्ति । तदो उवरिमाणं तराए छिदीए असंखेज्जगुणहीणं दव्वं देदि। तदुवरिमट्टिदीए विसेसहीण देदि । एवं बिसेसहोणं विसेसहीण चेव पदेसगं णिरंतरं देदि जाब अप्पप्पणो उक्कोरिद ट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तोत्ति । णवरि उदयावलियबाहिरहिदिमसंखेज्जालोगेण खंडिदेगखंड समऊणावलियाए वे त्तिभागे अइच्छाविय समयायितिभागे णिक्विवदि पुवं व विसेसहीण कमेण । तदो उरिमट्टिदीए एसो चेव णिवखेबो । णवरि अइच्छावणा समउत्तरा होदि । एवं णेयध्वं जाव अइच्छावणा आवलियमेत्ता जादा त्ति । तदो उबरिमणिवखेवो चेव वड् ढदि जाव उकस्सणिवखे पत्तो त्ति । जासि द्विदीर्ण पदेसग्गस्स उदयावलियभंतरे चेक णिक्खेको तासि 'पदे मस्स ओकणभागाहारो असंखेजा लोगा । एवमुव रिमसव्वसमएम कीरमाणगुणसेटीणमेसो चेत्र अत्थो बत्तबो। - उदयमें आयी हुई प्रकृतियोंकी उदयावलीसे बाहर स्थित स्थितियोंके प्रदेशाग्रको निषकों को) अपकर्षण भागाहार ( पत्य/असं.) के द्वारा खण्डित करके, एक खण्डको असंख्यात लोकसे भाजित करके एक भागको ग्रहण कर उदयमें बहुत प्रदेशाग्र को देता है। दूसरे समय में विशेष हीन प्रदेशाग्र को देता है। इस प्रकार उदयावलीके अन्तिम समय तक विशेष हीन देता हुआ चला जाता है । ...यह क्रम उदयमे आयी हुई प्रकृतियोंका ही है, शेष ( सत्तावाली) प्रकृतियोंका नहीं, क्योंकि उनमे उदयावलीके भीतर आने वाले प्रदेशागों का अभाव है।
उत्कीरित स्थिति
अपकृष्ट विधान के अनुसार विशेष हीन क्रमसे निक्षेप
शीर्ष
००००००००० ०००
००००००००००
गुणश्रेणी शीर्ष
असं. गुणहीन क्रमसे निक्षेप
उदयावली
विशेष हीन क्रमसे निक्षेप
आबाधा .
१४. नोकर्मकी गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती ध.६/४,१,७१/३५२/१ गोकम्मस्स गुण सेडीए णिज्जराभावादो। -नोकर्मकी गुणश्रेणी रूपसे निर्जरा नहीं होती।
उदयमें आयी हुई और उदय में नहीं आयी हई प्रकतियों के प्रदे- शाप्रोको तथा उदयावलोके बाहर की स्थिति में स्थित प्रदेशाग्रोको (पूर्वोक्त प्रकार ) अपकर्षण भागाहारके द्वारा खण्डित करके एक खण्डको ग्रहण कर असंख्यात समय प्रबद्धोंको उदयावती के बाहरकी स्थितिमें देता है। इससे ऊपरको स्थितिमें उससे भी असख्यात गुणित समय प्रबद्रोंको देता है। तृतीय स्थितिमें उससे भी असंख्यात गुणित समय प्रबद्धोंको देता है । इस प्रकार यह क्रम असंख्यात गुणित श्रेणीके द्वारा गुण श्रेणीके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए।
९. सर्व संक्रमण निर्देश
१. सर्व संक्रमणका लक्षण . नोट-[ अन्तकी फाली में शेष बचे सर्व प्रदेशोंका अन्य प्रकृतिरूप होना
सर्व संक्रमण है। क्योंकि इसका भागाहार एक है।] गो, क./जी.प्र./४१३/५७६/१० चरमकांडकचरमफाले. सर्व प्रदेशाग्रस्य यत्संक्रमणं तत सर्वसंक्रमणं णाम। -अन्तके काण्डककी अन्तकी फालिके सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतिरूप नहीं हुए हैं उन परमाशुओं का अन्य प्रकृति रूप होना वह सर्व संक्रमण है।
पंक्रमण
उससे ऊपर की अनन्तर स्थितिमें असंख्यात गुणित हीन द्रव्यको देता है। उससे ऊपरकी स्थिति में विशेषहीन द्रव्यको देता है। इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन ही प्रदेशाग्रको निरन्तर तब तक देता है, जब तक कि अपनी अपनी उत्कीरित स्थिति को आवलि मात्र काल के द्वारा प्राप्त न हो जाये। विशेष बात यह है कि उदयावलिसे बाहरकी स्थितिके...एक समय कम २/३ का अतिस्थापन करके (प्रारम्भ का) एक समय अधिक आवलिके त्रिभागमें पूर्वके समान विशेषहीन क्रमसे निक्षिप्त करता है। उसमे ऊपरकी स्थितिमें (भी) यही ( विशेष हीन क्रम वाला) निक्षेप है। केवल विशेषता यह है कि अतिस्थापना एक समय अधिक होती है। इस प्रकार यह क्रम तब तक ले जाना चाहिए जब तक कि अतिस्थापना पूर्णावली मात्र हो जाती है। उससे ऊपर उपरिम विशेष हो उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होने तक बढ़ता जाता है।
१. आनुपूर्वी संक्रमणका लक्षण ल. सा./जी. प्र./२४६/३०५/१ स्त्रीनपंसकवेदप्रकृत्योर्द्रव्यं नियमेन वेद एव संक्रामति । वेदहास्यादिषणोकषायाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानक्रोधद्वयद्रव्यं नियमेन संज्वलनक्रोध एव संकामति । संज्वलनक्रोधाप्रत्याख्यान प्रत्यारधान मान्द्यद्रव्य नियमेन संज्वलनमाने एच संक्रामति संज्वलनमायाप्रत्याख्यान प्रत्याख्यामलोभद्वयद्रव्यं संज्वलन लोभेएव नियमत. संक्रामतिरडत्यानपूा संक्रमो । जो स्त्री.नपंसक वेद प्रकृतिके द्रव्यको तो पुरुषवेदमें ही संक्रमण करता है। और पुरुष, हास्यादि छह, तथा अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान कोधका संज्वलन क्रोध, संज्वलन क्रोध, अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यान मानका संज्वलन मान ही संक्रमण • करता है। और संज्वलन मान व अप्रत्यारख्या प्रत्याख्यान मायाका संज्वलन मायामें ही संक्रमण करता है। संबल माया अप्रत्याख्यान प्रत्यारम्यान लोभका संज्वलन लोभ हीमें नियमगे संक्रमण होता है. अन्यथा नहीं होता है, यह आनुपूर्वी संक्रमण है।
जिन स्थितियों के प्रदेशाग्रों का उदयावलोके भीतर ही निक्षेप करता है, उन स्थितियों के प्रदेशानोंका अपकर्षण भागाहार असंख्यात लोक प्रमाण है। इस प्रकारसे सर्व समयोमे को जाने वाली गुणश्रेणियों का यही अर्थ कहना चाहिए। (ल. सा./जी.प्र/६८-७४) विशेषता यह है कि प्रथम समग्रमें अपकर्षण · दे० अपकर्षण ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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