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संक्रमण
८. गुणश्रेणी
लिए निश्चित करता है। एक अन्तर्मुहूर्त तक संक्रमानेके लिए जो द्रव्य निश्चित किया उसे काण्डक कहते हैं। उस द्रव्यको अन्तर्मुहूर्तकाल' पर्यन्त विशेष चय हानि क्रमसे खपाता है। उसके समाप्त हो जानेपर अगले अन्तर्मुहूर्त के लिए अगला काण्डक उठाता है। गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/९ बन्धप्रकृतीनां स्वबन्धसंभव विषये यः प्रदेशसंक्रमः तदधःप्रवृत्तसंक्रमण नाम। -बंध हुई प्रकृतियोंका अपने बंधमें संभवती प्रकृतियोंमें परमाणुओंका जो प्रदेश संक्रम होना वह अधःप्रवृत्त संक्रमण है।
२. यह नियमसे फालीरूप होता है गो. क./जी, प्र./११२/१७५/७ तत्राधःप्रवृत्तसंक्रमः फालिरूपेण उद्वेलनसंक्रमः काण्डकरूपेण वर्तते। -( मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक् व मिश्रका अन्तर्मुहूर्त के पश्चात उपान्त काण्डक पर्यन्त) अधःप्रवृत्तसंक्रमण फालिरूपसे प्रवर्तता है और उद्वेलना संक्रमण काण्डक रूपसे प्रवर्तता है।
३. मिथ्यात्व प्रकृतिका नहीं होता गो. क./जी.प्र./४१६/५७८/७ अधःप्रवृत्तसंक्रमणः स्यात न मिथ्यात्वस्य, 'सम्म मिच्छ मिस्सं सगुणट्ठाणम्मि णेव संकमदीति' निषेधात (गो. क./४११) -(प्रकृतियोंके बन्ध होने पर अपनी-अपनी व्युतित्यत्ति पर्यन्त ) अध प्रवृत्त संक्रमण होता है, परन्तु मिथ्यात्व प्रकृतिका नहीं होता। कयोंकि 'सम्म मिच्छ मिस्सं' इत्यादि गाथाके द्वारा इसका निषेध पहले बता चुके हैं (दे, संक्रमण/३/४)।
४.सम्यक् व मिश्र प्रकृतिके अधःप्रवृत्त संक्रम योग्य काल गो. क./मू./४१२/५७५ मिच्छे सम्मिस्साणं अधःपत्तो मुहुत्तअंतोत्ति ।
-मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेपर सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीयका अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तक अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है।
है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरू छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है। ल, सा./जी, प्र./२२४/२८०/८ मन्धवरप्रकृतीन गुणसंक्रमो मारि
- जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसो प्रकृतियोंका संक्रमण होता।
३. गुण संक्रमण योग्य स्थान ल. सा./जी. प्र./७५-७६/१०६/११०/१६ गुणसंक्रमः अपूर्वकरणप्रथमसर नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यत: (७५) एवं विधं प्रतिसा यमसंख्येयगुणं संक्रमणं प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिना विसंयोग वर्तते। मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्योः क्षपणायां वर्तते । इतरासा प्रकृती नामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्या क्षपक श्रेण्यां च वर्तते १७६-गुण संक्र मण अपूर्वकरणके पहले समयमें नहीं होता है। अपने योग्यकाला होता है ।७५। असंख्यातगुणा क्रम लिये जो हो उसको गुण संक्रमण कहते हैं। सो अनन्तानुवन्धी कषायोंको गुणसंक्रमण उनकी विसं. योजनामें होता है। मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृतिका गुण संक्रमण उनकी क्षपणामें होता है, और अन्य प्रकृतियोंका गुणसंक्रमण उपशम बक्षपक श्रेणी में होता है।
४. गुण संक्रमण कालका लक्षण ल. सा./भाषा-/१२८/१६६/६ मिश्र मोहनीय (या विवक्षित प्रकृतिका)
गुण संक्रमण कर यावत् सम्यक्त्व मोहनीयरूप ( या यथा योग्य किसी अन्य विवक्षित प्रकृतिरूप) परिणमै तावत गुण संक्रमण काल कहिये।
७. गुण संक्रमण निर्देश
१. गुण संक्रमणका लक्षण नोट-[प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रमसे परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परन्तु अध.प्रवृत्तसे असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त विशेष हानि क्रमसे उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परन्तु अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालि पर्यन्त गुणश्रेणी रूपसे उठाता है।
जिन प्रकृतियोंका बन्ध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता, अबन्धरूप प्रकृतियोंका होता है और स्व जातिमें ही होता है। अपूर्वकरणके प्रथम समयमें गुण संक्रम नहीं होता।
अनन्ताभुबन्धीका गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है। गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/९ प्रतिसमयमसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद गुणसंक्रमण नाम । =जहाँपर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीक्रमसे परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमे सो गुणसंक्रमण है।
२. बन्धवाली प्रकृतियोंका नहीं होता ल. सा./जी. प्र./७५/१०६/१७ अप्रशस्तानां बन्धोज्झितप्रकृतीनां द्रव्य
प्रतिसमममसंख्येयगुणं बध्यमानसजातीयप्रकृतिषु संक्रामति । पूर्वस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थः । बन्ध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य, समय-समय प्रति असंरण्यातगुणा क्रम लिये जिनका बन्ध पाया जाता
८. गुणश्रेणी निर्देश
१. गुणश्रेणी विधानमें तीन पर्वोका निर्देश ल. सा./मू./५८३/६६५ गुणसैढि अंतरदिदि विदियट्ठिदि इदिहवं ति पबतिया ।...१५८३ - गुणश्रेणी में तीन पर्व होते हैं-गुणश्रेणी, अन्तर स्थिति और द्वितीय स्थिति । अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य इन तीनोंमें विभक्त किया जाता है।
२. गुणश्रेणी निर्जराके आवश्यक अधिकार नोट-[गुणश्रेणी शीर्ष, गुणश्रेणी आयाम, गलितावशेषगुणश्रेणी आयाम __ और अवस्थित गुणश्रेणी आयाम इतने अधिकार हैं।
३. गुणश्रेणीका लक्षण ध. १२/४,२,७,१७५/८०/६ गुणो गुणगारो, तस्स सेडी ओली पंती गुण
सेडी णाम। दंसणमोहुवसामयस्स पढमसमए णिज्जिण्णदब्बू थोवं । विदियसमए णिज्जिण्णदव्यमसंखेजगुणं । तदियसमए णिज्जिण्णदव्यमसखेजगुणं । एवं णेयव्वं जाव दंसणमोहउवसामगचरिमसमओ त्ति । एसा गुणागारपत्ती गुणसेडि त्ति भणिदं । गुणसेडीए गुणो गुणसेडिगुणो, गुणसेडिगुणगारो त्ति भणिदं होदि । -गुण शब्दका अर्थ गुणकार है। तथा उसकी श्रेणी, आवलि या पंक्तिका नाम गुणश्रेणी है। दर्शनमोहका उपशम करनेवाले जीवका प्रथम समयमें निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य स्तोक है। उसके द्वितीय समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। उससे तीसरे समयमें निर्जराको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यात गुणा है। इस प्रकार दर्शनमोह उपशामकके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह गुणकार पंक्ति गुणश्रेणि है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। तथा गुणश्रेणिका गुण गुणश्रेणिगुण अर्थात गुणश्रेणि गुणकार कहलाता है। क्ष,सा./मू./५८३/६६५ मुहुमगुणादो अहिया अवठिदुदयादि गुणसेदी ५८३। यावत् अपकृष्ट किया द्रव्य सूक्ष्मसे लेकर असंख्यातगुणा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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