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६. अधःप्रवृत्त संक्रमण निर्देश
जाता है कि इन दो प्रकृतियोंकी उद्वेलना मिथ्यात्वमें ही होती है, वेदक सम्यक्त्वावस्थामें नहीं, और उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मिथ्यात्वावस्थामें ही इनका पुनः सत्त्व नहीं होता। न ही इनका सत्त्व प्राप्त हो जानेपर उपशम सम्यक्त्व हुए बिना मार्गमेंसे ही पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त होता है । और भी दे, अगला शीर्षक ] |
५. सम्यक् व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलनाका क्रम क. पा. २/२,२२/१२४८/१११/६ अठ्ठावीससंतकम्मिओ उज्वेलिदसम्मत्तो मिच्छाइट्ठी सत्तावीसविहत्तिओ होदि । अछाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जोक (पहले) सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना करके सत्ताईस प्रकृतियों को सत्तावाला होता है । तत्पश्चात् सम्यग्मिथ्यात्वकी भी उद्वेलना करके २६ प्रकृति स्थानका स्वामी हो जाता है । ] ( क. पा. ३/६३७३/२०५/६ ) ।
संक्रमण गो.क./जो. प्र./४१३/५७६/८ करणपरिणामेन बिना कर्म परमाणून परप्रकृतिरूपेण निक्षेपणमुद्वेल्लनं संक्रमणं नाम |-अधःप्रवृत्त आदि तीन करणरूप परिणामों के बिना ही कर्मप्रकृतियों के परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप परिणमन होना वह उद्वेलन संक्रमण है।
२. मार्गणा स्थानों में उद्वेलना योग्य प्रकृतियाँ गो. क./मू./३५१, ६१३, ६१६ चदुगतिमिच्छे चउरो इगिविगले छप्पि तिणि तेउदुगे ।...|३५१। वेदगजोग्गे काले आहारं उबसमस्स सम्मतं । सम्मामिच्छ चेगे विगलेवेगुव्वछक्कं तु ६१४। तैउदुगे मणवद्गं उच्च उठवेल्लदे जष्णिदरं । पल्लासंखेज्जदिमं उन्धेलणकालपरिमाणं ।६१६- चारों गतिबाले मिथ्यादृष्टि जीवों के चार ( आहारक द्विक, सम्यक्त्व, मिश्र) प्रकृतियाँ, पृ., अप.. वन., तथा विकलेन्द्रियों में देवद्वि., वै. द्वि., नरकति ये छह प्रकृतियाँ, तेजकाय व वायुकाय इन दोनोंके ( उच्चगोत्र, मनुष्य द्विक) ये तीन प्रकृतियाँ उद्वेलनके योग्य हैं ।३.१। वेदक सम्यक्त्व योग्य कालमें आहारक द्विकको उद्वेलना, उपशम कालमे सम्यक्त्व प्रकृति वा सम्यगमिथ्यात्वप्रकृतिकी उद्वेलना करता है। और एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय पर्याय में वैक्रियिक षट्ककी उद्वेलना करता है।६१४॥ तेजकाय और वायुकायके मनुष्यगति युगल और उच्चगोत्र -- इन तीनकी उद्वेलना होती है, उस उद्वेलनाके कालका प्रमाण जघन्य अथवा उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ।६१६॥
३. मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृतिकी उद्वेलना योग्य काल क.पा.२/२.२२१११२३/१०५/१ एइंदिएच सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तविहत्ती० जह० एगसम ओ, उक्क० पलिदोवमस्स असंखे० भागो । एकेन्द्रियों में सम्यकप्रकृति व सम्यग्मिध्यात्वको विभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है। [ क्योंकि यहाँ उपशम सम्यक्त्व प्राप्तिकी योग्यता नहीं है, इसलिए इस काल में वृद्धि सम्भव नहीं। यदि सम्यक्त्व प्राप्त करके पुनः नवीन प्रकृतियोंकी सत्ता कर ले तो क्रम न टूटने के कारण इस काल में वृद्धि होनी सम्भव है । यदि ऐसा न हो तो अवश्य इतने काल में उन प्रकृतियों की उद्वेलना हो जाती है। जिन मार्गणाओंमें इनका सत्त्व अधिक कहा है वहाँ नवीन सत्ताको अपेक्षा जानना । दे. अन्तर/२] ध.५/१,६,७/१०/८ सम्मत्स-सम्मामिच्छत्तद्विदीर पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तकालेण विणा सागरोवमस्स वा सागरोवमपुत्तस्स वा हेठा पदणाणुक्वत्तोदो। सम्यक्त्व और सम्यक्त्वमिथ्यात्व प्रकृतिको स्थितिका, पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके बिना सागरोपमके, अथवा सागरोपमपृथक्त्वके नीचे पतन नहीं हो सकता
५. विध्यात संक्रमण निर्देश
१. विध्यात संक्रमणका लक्षण नोट-[अपकर्षण विधान में बताये गये स्थिति व अनुभाग काण्डक व गुणश्रेणीरूप परिणामों में प्रवृत्त होना विध्यात संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि अंगुल/असंख्यात भाग है, परन्तु यह उद्वेलनाके भागाहारसे असंख्यात गुणहीन है, अतः इसके द्वारा प्रति समय उठाया गया द्रव्य बहुत अधिक है। मिथ्यात्व व मिन मोह इन दो प्रकृतियों को जब सम्यकप्रकृतिरूपसे परिणमाता है तब यह संक्रमण होता है । वेदक सम्यक्त्ववालेको तो सर्व ही अपनी स्थिति कालमें वहाँ तक होता रहता है जब तक कि क्षपणा प्रारम्भ करता हुआ अधःप्रवृत्त परिणामका अन्तिम समय प्राप्त होता नहीं। उपशम सम्यक्त्वके भी अपने सर्व कालमे उसी प्रकार होता रहता है, परन्तु यहाँ प्रथम अन्तर्मुहूर्त में गुणसंक्रमण करता है पश्चात उसका काल समाप्त होनेके पश्चात् विध्यात प्रारम्भ होता है।] गो. क./जी. प्र./४१३/५७६/८ विध्यातषिशुद्धिकस्य जीवस्य स्थित्यनुभागकाण्डकगुणश्रेण्यादिपरिणामेष्वतीतेषु प्रवर्तनाद्विध्यातसंक्रमण णाम । मंद विशुद्धतावाले जीवकी, स्थिति अनुभागके घटाने रूप भूतकालीन स्थिति काण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुणश्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है।
गो. के./मू ६१७/८२१ पल्लासंखेज दिम ठिदिमुवेल्लदि मुहत्तअतेण । संखेज्जसायरठिदि पलासंखेज्जकालेण । पत्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिको अन्तर्मुहूर्त कालमें उद्वेलना करता है । अतएव एक संख्यात सागरप्रमाण मनुष्यद्विकादिकी सत्तारूप स्थितिकी उद्वेलना त्रैराशिक विधिसे पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में ही कर सकता है, ऐसा सिद्ध है। ४. यह मिथ्यात्व अवस्थामें होता है क.पा.२/२.२२/६२३७/१२६/२ पंचिंदियतिरि० अपज्ज. सबपयडीणं णत्थि अंतरं। एवं सम्मादि० खझ्य० वेदग० उवसम० सासण. सम्मामि मिच्छादि०..अणाहारएत्ति वत्तव्यं । -पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्धि अपर्याप्तकोंके सभी प्रकृतियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार.. सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, "" और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए। । इस प्रकरणसे यह जाना
६. अधःप्रवृत्त संक्रमण निर्देश
१. अधःप्रवृत्त संक्रमणका लक्षण नोट-[सत्ताभूत प्रकृतियोंका अपने-अपने बंधके साथ संभवती यथा
योग्य प्रकृतियों में उनके बंध होते समय ही प्रवेश पा जाना अधःप्रवृत्त है। इसका भागाहार पत्य/असंख्यात, जो स्पष्टतः ही विध्यातसे असंख्यातगुणा हीन है। अतः इसके द्वारा प्रतिक्षण ग्रहण किया गया द्रव्य विध्यात की अपेक्षा बहुत अधिक है।
बंधकाल में या उस प्रकृतिको बंधकी योग्यता रखनेपर उस ही गुणस्थानमें होता है जिसमें कि वह प्रकृति बन्धसे व्युच्छिन्न नहीं हुई है, थोड़े द्रव्यका होता है सर्व द्रव्यका नहीं, क्योंकि इसके पीछे उद्वेलना या गुण संक्रमण या विध्यात संक्रमण प्रारम्भ हो जाते हैं। क्रोधको प्रत्यारण्यानादि स्व जाति भेदोंमें अथबा मान आदि विजाति भेदों में परिणमाता है। यह नियमसे फाली रूप होता है। अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही होता है। काण्डकरूप संक्रमण और फालिरूप संक्रमणमें इतना भेद है कि फालिरूपमें तो अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बराबर भागाहार हानि क्रमसे उठा-उठाकर साथ-साथ संक्रमाता है और काण्डक रूपमें वर्तमान समयसे लेकर एक-एक अन्तर्मुहूर्त काल बीतनेपर भागाहार क्रमसे इकट्ठा द्रव्य उठाता है अर्थात संक्रमण करनेके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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