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सक्रमण
सखाओ
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जिवनं विजानाहि ४२१क्ष्म साम्प रायमें बँधनेवाली घातिया कर्मोकी १४ प्रकृतियोंको आदि लेकर ( दे, संक्रमण / २ / ३ में केवल अधःप्रवृत्त सक्रमण में योग्य ) ३६ प्रकृतियों, औहारिक शरोर, जहारिक अंगोपांग, तीर्थंकर वर्ष भनाराय पुरुषवेद, संजवन कोयादि तीन (३) ४० प्रकृतियों को कम करके (१२२ - ४७ ) शेष ७५ प्रकृतियाँ गुण संक्रमण की हैं । ४२७-४२८ ।
५. केवल सर्वसंक्रमण योग्य प्रकृतियाँ
गो.क./मू / ४१७/५७६ तिरियेयारुववेल्लणपयडी संजलणलोहसम्म मिसूना | मोहा थोतिर्ग च य चावण्णे सव्त्रसंकमणं । ४१७१ - तिर्यगेकादश (दे. २/१) उसनको १३ (दे. संक्रमण/२/१ ). संज्वलन लोभ, सम्यक्त्व मोहनोय, मिश्र, इन तीन के बिना मोहनीयकी २५ और स्थानगृद्धि आदिक (स्त्यानगृधि प्रचा नाना प्रकृतियाँ (११+१३+१५+३) २२ प्रकृतियोंमें सर्वसंक्रमण होता है ।४१७
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६. विध्यात व अधःप्रवृत्त इन दोके योग्य
गो.क./मू./४२५/५८३ ओरालदुगे वज्जे तित्थे विज्झादधापवत्तोय ।४२५| -दारिक शरीर अंगोपांग वज्रर्षभनाराच संहनन तीर्थंकर प्रकृति- इन चारोंमें विध्यातसंक्रमण और अधःप्रवृत ये दो संक्रमण हैं ।
७. अधःप्रवृत्त व गुण इन दो के योग्य
गो./मू./ ४२१-४२२/११ वा पयला अचानक
उब
घादे | २१| सत्तण्हं गुणसंकममधापवत्तो य ।... १४२२ - निद्रा, प्रचला, अशुभ वर्णादि चार, और उपघात, इन सात प्रकृतियों के गुणसंक्रमण और संक्रमण पाये जाते हैं।
८. अधःप्रवृत्त और सर्व इन दोके योग्य
गो. . / . / ४२४/४८२ संगतिमे पुरिसे अधापवतोय सोय ४२४ 'संज्वलन क्रोध, मान, माया तथा पुरुषवेद इन चारोंमें अधःप्रवृत्त और सर्व संक्रमण ये दो ही संक्रमण पाये जाते हैं ।
९. विध्याज अधःप्रवृत्त व गुण इन तीनके योग्य गो/ यू. ४२२-४२...महादी संहदि ठाण
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थिरछक्कं च ॥ ४२२| वोसहं विज्झाढं अधापवत्तो गुणो य ।... । ४२३ । - असातावेदनीय, अप्रशस्त विहायोगति, पहले के बिना पाँच हमन व पचि संस्थान ये १० नीचो अपर्याप्त और अस्थिरादि ६, इस प्रकार २० प्रकृतियोंके विध्यातसंक्रमण, अधःप्रवृत्त संक्रमण, सर्व संक्रमण ये तीन हैं ।
१०. अधःप्रवृत्त गुण व सर्व इन तीनके योग्य श्री.क./मू./४२००३ इस्सरदि भयछे अधापयतो गुट सम्बो |४२५ । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार प्रकृतियों में अधःप्रवृत्त, गुण और सर्व संक्रमण ये तीन संक्रमण पाये जाते हैं । ४२ ॥ ११. विध्यात गुण 'और सर्व इन तीनके योग्य गो...४२/२ विकास सम्मे-४१३ मिध्याव प्रकृतिमें विध्यात गुण और सर्व संक्रमण ये सीन है १२. उद्वेलनाके बिना चारके योग्य गो.क./मू./४२०-४२१/५८१ थीणतिबारकसाया संढित्यो अरइ सोगो य ४२०१ तिरिमेयारं तीसे उज्वेलणहीणचारि संकमणा ।।४२१८
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३. प्रकृतियोंके संक्रमण सम्बन्धी कुछ नियम
- स्त्यानगृधि निशानिया, प्रताप्रचला. ( संज्वलनके बिना) १२ कवाय, नपुंसक वेद, स्त्रीव, अति, शोक, और तिर्यक एकादशकी ११ (दे. उदय ६/१) इन तीस (३०) प्रकृतियों में उद्वेलन संक्रमणके बिना चार संक्रमण होते हैं।
१३. विध्यातके बिना चारके योग्य
गो.क./मू. ४२३ / ५८२ सम्मे विज्झादपरिहीणा | ४२३ | सम्यक्त्व मोहनीय विष्यात के बिना सर्व संक्रमण पाये जाते हैं।
१४. पाँचके योग्य
गो.क./मू./ ४२४/५८३ संजलणतिये पुरिसे अधापवतोय सब्बो य ॥ ४२४॥ = सम्यक्त्व मोहनीयके बिना १२ उद्वेलन प्रकृतियों में (दे, संक्रमण / २१) पांचों ही संक्रमण होते हैं।
३. प्रकृतियोंके संक्रमण सम्बन्धी कुछ नियम व शंका
१. बध्यमान व अबध्यमान प्रकृति सम्बन्धी १६/४०२/४ असोज जाय डोणं बंधी संभवदि तत्थ तासि पयडीणं बंधे संते असंतो वि अधापमत्तसंकमो होदि । एसो नियमो बंधपयडीर्ण, अबंधपयडीण' मस्थि कुरो सम्म सम्मामिच्छते वित
भादो ।
म. १६/४२०/५
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संज-पुरिसवेदाणमधान्तको सम्यकमो चेदि दौपिंग संकमा होंति से तहादिणं संजणापूरसहस्स मिच्छाgिoogडि जाव अणियट्टि त्ति अधापवत्तसंकमो । १. बन्धके होनेपर अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है । (यो क./मू./ ४१६) २. बंधे अधापवत्तो'का स्पष्टीकरण करते हुए बतलाते हैं कि जहाँ जिन प्रकृतियोंका बन्ध संभव है वहाँ उन प्रकृतियों के बन्धके होनेपर और उसके न होनेपर भी अधःप्रवृत्त संक्रमण होता है । यह नियम बन्ध प्रकृतियोंके लिए है, अनन्य प्रकृतियोंके लिए नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अन्ध प्रकृतियों में भी अधःप्रवृत्त संक्रमण पाया जाता है । ३. तीन संज्वलन और पुरुषवेदके अथ प्रवृत्तसंक्रम और सर्व-संक्रम मे दो संक्रम होते हैं। यथादोन पायों और पुरुष वेदा मिध्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण तक अधःप्रवृत्त सक्रम होता है (गो, क./मू./४२४)। गो.क./मू. ब जी. प्र. / ४१० बंधे संकामिज्जदि गोबधे । ४१०१ बंधे मध्यमानमात्रे संक्रामति इत्ययमुत्सर्गविधिः कचिदध्यमानेऽपि संकमा नोम जमन्ये न संक्रामति इत्यनर्थ कमचनादर्शनमोहनीयं बिना शेषं कर्म मध्यमानमात्रे एव संक्रामतीति नियमो ज्ञातव्यः । -- जिस प्रकृतिका बन्ध होता है, उसी प्रकृतिका संक्रमण भी होता है यह सामान्य विधान है क्योंकि कहींपर जिसका बन्ध नहीं उसमें भी संक्रमण देखा जाता है। जिसका बन्ध नहीं होता उसका संक्रमण भी नहीं होता। इस वचनका ज्ञापन सिद्ध प्रयोजन यह है कि दर्शनमोहके बिना शेष सत्र प्रकृतियाँ बन्ध होनेपर संक्रमण करती हैं ऐसा नियम जानना ।
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२. मूल प्रकृतियोंमें परस्पर संक्रम नहीं होता
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ध. १६/४०८/१० जं पदेसग्गं अण्णपयडि संकामिज्जदि एसो पदेससंकमो देण अनुपदे पडिको पर उत्तरपटि संकमे पयदं । - जो प्रदेशाग्र अन्य प्रकृतिमें संक्रान्त किया जाता है इसका नाम प्रदेश संक्रम है। इस अर्थ पदके अनुसार प्रकृति संक्रम नहीं है। उत्तरप्रकृति संक्रम प्रकरण प्राप्त है । गो.क./प्र.४९०/२०४ मूत्रकृतीनां परस्परसंक्रमण नास्ति
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण
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पडी । संक्रमणं ॥१०॥ उत्तरप्रकृती नामस्तीत्यर्थः ।
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