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षड् दर्शन
संक्रमण
षड् दर्शन-दे. दर्शन।
षड् दर्शन समुच्चय-श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि (ई.४८०- ५२८) द्वारा रचित संस्कृत सूत्र बद्ध ग्रन्थ है। इसमें जैन, बौद्ध. चार्वाक, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और मोमांसक इन छह दर्शनोंका संक्षिप्त वर्णन है।
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संकलन वार-दे. गणित/I1/१। संकलित धन-Sum of series (ज. प./प्र. १०८) । संकल्प-पं. का.ता. वृ.//९/७ बहिर्द्रव्ये चेतनाचेतनमिश्रे ममेद मित्यादि परिणामः संकल्पः । = चेतन-अचेतन-मिश्र, इन बाह्य
पदार्थों में 'ये मेरे हैं' ऐसी कल्पना करना संकल्प है। प.प्र./टी./१/१६ बहिर्द्रव्यविषये पुत्र कलत्रादिचेतनाचेतनरूपे ममेदमिति स्वरूपः संकल्पः। -स्त्री-पुत्र आदि चेतन, अचेतन, नाह्य पदार्थों में 'ये मेरे हैं' ऐसा विचारना सो संकल्प है। (द्र. सं./टी./
४१/१७४/१)। संकुट-जीवको संकुट कहनेकी विवक्षा-दे. जीव/२/३ । सकत-Symbol Notation (ध./प्र.२८)। २. गणित सम्बन्धी विशेष शब्दोंकी सहनानियाँ -दे. गणित/I/२ .
संकेत क्रम-Scale of Notation (ध.५/प्र. २८)।
षडरसी-व्रत-उत्कृष्ट २४वर्ष,मध्यम १२ वर्ष वजघन्य १ वर्ष में ज्येष्ठ कृ. १ से ज्येष्ठ पूर्णिमा तक-कृ.१ को उपवास, २-१५ तक एकाशन: शु.१ को उपवास, २-१५ तक एकाशन करे। 'ओं ह्रीं श्री वृषभजिनाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (व्रत विधान सं./४३) । षण्णवति प्रकरण-आ. सोमदेव (ई.६४३-६६८) कृत न्याय
विषयक एक ग्रन्थ है। षष्ठभक्त-दो उपवास--दे. प्रोषधोपवास/१ । षष्ठ बेला-बेला अर्थात दो उपवासको षष्ठ भक्त कहते हैं।
-दे. बेलावत। षष्ठी व्रत-वर्ष तक प्रतिवर्ष श्रावण शु. ६ के दिन उपवास करे।
तथा 'ओं ह्रीं श्री नेमिनाथाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जप करे। (व्रत विधान सं./१२२)। षाष्ठिक पद्धति-Sexagesimal Measure (ज.प./प्र.१०८)। षोडशकारण धर्म चक्रोद्धार यन्त्र-दे, यन्त्र । षोडशकारण भावना-दे, भावना। षोडश कारण भावना व्रत-१६ वर्ष तक, वा ५ वर्ष तक, अथवा जघन्य एक वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद, माघ व चैत्र, इन तीनों महीनों में कृ.१ से लेकर अगले महीने की कृ.१तक ३२ दिन तक क्रमशः ३२ उपवास, वा १६ उपवास. १६ पारणा, अथवा जघन्य
विधिसे ३२ एकाशना करे। जाप्य-'ओं ह्रीं दर्शविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो नमः ।' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । (व्रत विधान सं./पृ. ३८) ।
संकोच-जीवकी संकोच विस्तार शक्ति-दे. जीव/३ । संक्रमण-जीवके परिणामोंके वशसे कर्म प्रकृतिका बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है। इसके उद्वेलना आदि अनेकों भेद हैं। इनका नाम वास्तव में संक्रमण भागाहार है। उपचारसे इनको संक्रमण कहने में आता है। अतः इनमें केवल परिणामोंकी उत्कृष्टता आदि हीके प्रति संकेत किया गया है। ऊंचे परिणामोंसे अधिक द्रव्य प्रतिसमय संक्रमित होनेके कारण उसका भागाहार अस्प होना चाहिए । और नीचे परिणामोंसे कम द्रव्य संक्रमित होने के कारण उसका भागाहार अधिक होना चाहिए। यही बात इन सम भेदोंके लक्षणोंपर से जाननी चाहिए। उद्वेलना विध्यात व अधःप्रवृत्त इन तीन भेदों में भागहानि क्रमसे द्रव्य संक्रमाया जाता है, गुणश्रेणी संक्रमण में गुण श्रेणी रूपसे और सर्व संक्रमणमें अन्तका मचा हुआ सर्व द्रव्य युगपत संक्रमा दिया जाता है।
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संकट हरण व्रत-तीन वर्ष तक प्रतिवर्ष भाद्रपद, माघ व चैत्रमासमें शु. १३ से शु. १५ तक उपवास । तथा ओं हाँ, ह्रीं ह्र हों हः असि आ उसा सर्व शान्ति कुरु कुरु स्वाहा' इस मंत्रका त्रिकाल जप करे। (वत विधान सं./४२)। संकर दोष-स्या. मं/२४/२१२/१० येनात्मना सामान्यस्याधि
करणं तेन सामान्यस्य विशेषस्य च, येन च विशेषस्याधिकरणं तेन विशेषस्य सामान्यस्य चेति सङ्करदोषः। -स्याद्वादियों के मत अस्तित्व और नास्तित्व एक जगह रहते हैं। इसलिए अस्तित्वके अधिकरणमें अस्तित्व और नास्तित्वके रहनेसे, और नास्तित्व के अधिकरणमें नास्तित्व और अस्तित्वके रहनेसे स्याद्वादमें संकर दोष
आता है । ( ऐसी शंकामें संकर दोषका स्वरूप प्रकट होता है।) स. भ.त/८२/६ सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः। -( उपरोक्तवत् ) सम्पूर्ण स्वभावोंकी युगपत् प्राप्ति हो जाना संकर है। (श्लो. वा.न्या. ४५६/५५१/१८ पर भाषामें उद्धृत)। संकलन-Addition जमा करना । दे. गणित/I1/१/३ ! संकलन धन-दे, गणित/1/१/३ ।
१ संक्रमण सामान्यका लक्षण
संक्रमण सामान्यका लक्षण । संक्रमणके मेद।
पाँचों संक्रमणोंका क्रम। ४ | सम्यक्त्व व मिश्र प्रकृतिको उद्वेलनामें चार संक्रमणों
का क्रम। विसंयोजना।
- दे. विसंयोजना। संक्रमण योग्य प्रकृतियाँ केवल उद्वेलना योग्य प्रकृतियों। केवल विध्यात ,.."
केवल अधःप्रवृत्त , , | केवल गुणसंक्रमण योग्य प्रकृतियों ।
केवल सर्व संक्रमण ,, , | विध्यात व अधःप्रवृत्त इन दोके योग्य । अधःप्रवृत्त व गुण इन दोके योग्य । अधःप्रवृत्त और सर्व इन दो के योग्य । विध्यात अधःप्रवृत्त व गुण इन तीनके योग्य ।
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