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हुआ।
श्वेताम्बर
श्वेताम्बर परन्तु गुरु आज्ञासे विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करनेके कारण संघसे १०. दंढिया पंथ बहिष्कृत कर दिये जानेपर स्वयं स्वच्छन्द रूपसे अपने-अपने मतोंका प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरोंकी उत्पत्ति १. दिगम्बरके अनुसार उत्पत्ति : होती है । भगवान् वीरके निर्वाण होनेके ६०६ वर्ष पश्चात अर्थात'
कुछ काल पश्चात् इसी श्वेताम्बर संघमैसे ढिया पंथ अपरनाम वि. सं. १३६ में रथवीपुर नामक नगरमें वोटिक(दिगम्बर)मतवाला
स्थानकवासी मतकी उत्पत्ति हुई । यथाअष्टम निहव शिवभूति उत्पन्न हुआ।
भद्रबाहु चरित्र /४/१५७/९६१ मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ. १७६-१८० का भावार्थ-यह शिवभूति
दशपञ्चशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ११५७ अपनी गृहस्थावस्थामें अत्यन्त स्वच्छन्द वृत्तिवाला एक राजसेवक
लुकामतमभूदेक
लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे ।१५८। था, जिसने किसी समय राजाके एक शत्रुको जीतकर राजाको प्रसन्न
अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुङ्काऽभिधो महामानी किया और उपलक्ष्य में उससे नगरमें स्वच्छन्द घूमनेकी आज्ञा प्राप्त
श्वेतांशुकमहाश्रयी।१५।। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति' पापमण्डितः। कर ली । बह रात्रिको भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण
तीव्रमिध्यात्व पाकेन लुटामतमकम्पमत ।१६०॥ तन्मतेऽपि च भूयासो उसकी खी व माता उससे तंग आ गयी, और एक रात्रिको जब वह
मतभेदाः समाश्रिताः ।१६विक्रमकी मृत्युके १९२७ वर्ष बाद धर्म घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपा
कर्मका सर्वथा नाश करनेवाला एक लुकामत (टू'ढिया मत) प्रगट श्रयमें चला गया और गुरुके मना करनेपर भी 'खेलमल्लक' नामक
हुआ। इसीकी विशेष व्याख्या यों है कि--गुर्जर देश (गुजरात) में किसी साधुसे दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल
एक अणहिल नामका नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलम्बी) कुल में पश्चाद ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुनः इस नगर में आया तो
लुका नामका धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस दुष्ट आत्माने कुपित राजाने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कम्बल मेंट किया। गुरुकी
होकर तीन मिथ्यात्वके उदयसे खोटे परिणामों के द्वारा लुकामत आज्ञाके मिना भी उसने बह रत्न कम्बल ग्रहण कर लिये और उसे
चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये। गुरुसे छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्याके लिए बाहर गया था, तब गुरुने इस परिग्रहसे उसकी रक्षा
द. पा./टी./१२/११/१२ तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नाः । - उनमें से करनेके लिए उसकी पोटलीमें-से वह कम्बल निकाल लिया और
(श्वेताम्बरियोंमेंसे) ही श्वेताम्बराभास (दढिया मत) उत्पन्न बिना पूछे उसमेसे फाड़कर साधुओके पाँव पोंछनेके आसन बना दिये । अतः शिवभूति भीतर ही भीतर गुरुके प्रति रुष्ट रहने लगा। २. श्वेताम्बरायाम्नायके अनुसार उत्पत्ति : ५. शिवभूतिसे दिगम्बर मतकी उत्पत्ति :
विक्रम सं. १४७२ में इस मतके संस्थापक लोकाशाहका जन्म हुआ। उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/पृ. १७१-"इत्यादि सो (सिवभूइ ) किं यह व्यक्ति अहमदाबादमें ग्रन्थ लिखनेका ब्यवसाय करता था। एक
एस एवं ण कोरइ । तेहिं भणियं-एप गुच्छिन्नः । मम न व्युच्छिद्यते बार एक ग्रन्थ लिखनेको उजरतके विषयमें किसी यतिसे उसकी इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्यः ।
कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजाको तथा कुछ उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १७८/१८० "न चेदानों तदस्तीरयादिकया प्रागु- आचार विचारोंको आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतन्त्रमतका प्रचार क्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ र्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा
करना प्रारम्भ कर दिया उसने २२ शिष्योंको दीक्षित किया, . गतः ।... तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थित वन्दिका मता, तं च जिनकी परम्परामे 'लोकागच्छ की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी दृष्ट्वा तयापि चीबरादिकं तवं त्यक्त, तदा भिक्षाय प्रविष्टा अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये। गणिकया दृष्टा । मास्मासु लोको विरक्षीत इति उरसि तस्याः
सूरतके एक साधुने इस लोंकामतमें भी कुछ सुधार करके 'ढिया' पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं-तिष्ठतु एषा तब देवता
नामक एक नये सम्प्रदायको जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यो, प्रवजितौ-कौण्डिन्यः कोटिबीरश्च,
सभी लोंकानुयायी दढिया नामसे प्रसिद्ध हो गये । स्थानकों में रहनेके ततः शिष्याणां परम्परा स्पर्शो जातः।"
कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी सम्प्रदायमें उत्तराध्ययन । चूर्ण सूत्र १७८/पृ. १८० पर उदधृत-"उहाए पण्णत्तं
आचार्य भिक्षुने तेरहपन्थकी स्थापना की। बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं । मिच्छादसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णारा बोडियसिवभूइओ नोडियलिंगस्स होई उम्पत्ती। कोडिण्णा- ३. स्वरूप कोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्न। ।२।"-एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार भद्रबाहु चरित्र/४/१६१ सुरेन्द्रार्चा जिनेन्द्रार्चा तत्पूजा दानमुत्तमम् । जिनकल्पके स्वरूपका कथन कर रहे थे, तब शिवभूतिने उनसे पूछा समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवतः ।१६११- जिन सूर्यसे कि किस कारणसे अब आप साधुओंको जिनकल्पमें दीक्षित नहीं
प्रतिकूल होकर, देवताओंसे भी पूजनीय जिन प्रतिमाकी पूजा दानादि करते हैं। वह मार्ग अब ब्युच्छिन्न हो गया है', गुरुके ऐसा कहनेपर
सब कर्मोंका उत्थापन करके वह पापारमा जिन भगवानके व्रतोंसे वह बोला कि भले ही दूसरोंके लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परन्तु
प्रतिकूल हो गया। मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होनेसे
द. पा./टी./११/११/१२ तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव परलोका के लिए वही ग्रहण करना कर्तव्य है।-"हीन संहननके
पापिष्ठाः देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति, मण्डलवत्सर्वत्र कारण इस काल में वह सम्भव नहीं है", गुरुके पूर्वोक्त प्रकार ऐसा
भाण्डप्रक्षालनोदकं पिबन्ति इत्यादि, बहुदोषवन्तः -उन (श्वेतासमझानेपर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरुकी बात स्वीकार
म्बरों) मेंसे श्वेताम्बराभासी ('ढिया मती) उत्पन्न हुए। वे नहीं की, और बस्त्र त्यागकर अकेला वनमें चला गया। उसके पीछे
तीन पापिष्ठ होकर देव पूजादिकको भी पापकर्म बताने लगे। मण्डल उसकी बहन भी उसकी बन्दनार्थ उद्यानमें गयी और उसे देखकर
मतकी भाँति बर्त नोंके धोबनका पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश
दोषवन्त हो गये। कर रही थी, तो एक गणिकाने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूतिने ग्रहण करनेकी आज्ञा दे दी। शिवभूतिने
नोट-यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रोंमेंसे ३२ को मान्य कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दो जिनकी करता है। परन्तु श्वेताम्बराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य परम्परामें ही यह वोटिक या दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ है।
नहीं हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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