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श्वेताम्बर
श्वेताम्बर
माधयामस्तावदिश्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तस्ते कु.डले गृहीखा सोऽपश्यदध पथि नग्नं क्षपण कमागच्छन्तं भुमहश्यमानमहश्यमान च । (महाभारत परिच्छेद ३) = इसके अतिरिक्त भी महापुराणअश्वमेधाधिकारमे ४४ापृ. ६२०१ पर दिगम्बरव व अस्नानवका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा ४६१८पृ.६१६६ पर दिगम्बर साधु सरीखी ही आहार बिहार चर्या आदि सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है।
इसके अतिरिक्त भी दिगम्बराम्नायमें कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्योंकत ईसवी पहिलो शताब्दोके ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जब कि श्वेताम्बरोंके इतने प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं। ९. श्वेताम्बरके अनुसार दिगम्बर मतकी उत्पत्ति यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय ३/चूर्ण सूत्र १७८ की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमक्त गाथाओके आधारपर संकलित किया गया है। १. विविध कल्प निर्देश दिगम्बर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगम्बर व श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायोंका नाम नहीं था, परन्तु साधुओंके दो कल्प अवश्य थे-स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं। उत्तराध्ययन टीका/पृ. "स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण'। (पृ. १५२)।
यः स्याज्जिन व प्रभुः। (पृ. १७६ पर उधृत श्लोक)। सच प्रथमसहनन एव ( टोका पृ. १७६) ।"-तात्पर्य यह कि
विकल्प
___ स्थविर कल्प
जिन कल्प
हीन संहननधारी
उत्तम संहननधारी अपवादानुसारी मृदु आचार- जिनेन्द्र प्रभुवत उत्सर्ग मार्गावान्
नुसारी कठोर आचारवान् । मन्दिर मठ आदिमें ससंघ । एकाकी वन विहारी आवास श्रावकोंके भोजन काल में श्रावकजन खा पीकर निवृत्त भिक्षावृत्ति
हो चुके ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति । नचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा
उपवास किया। रोग आदि होनेपर उसका उपचार न करते हैं न करउपचार करते हैं
वाते हैं ऑखमें रजाणु पड़ जानेपर । न निकालते हैं न निकलवाते अथवा पॉवमें शूल लग जानेपर उसे निकालते या निकलबाते हैं सिंह आदिके समक्ष आ जाने- | वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े पर भागकर अपनी रक्षा करते रह जाते हैं।
पाणिपात्राहारी, अवस्व पाणिपात्राहारी, सबस्न पात्रधारी और अवस परन्तु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषोंको बिना उपकरणों के ही टालनेको समर्थ है, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परन्तु जो ऐसा करनेको समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं। २. जिनकल्पका विच्छेद उत्तराध्ययन/टोकः/पृ. एष व्युच्छिन्न। (१७६)। न चेदानीं तदस्तीति... ( १८०)।-वीर निर्वाणके ६२ वर्ष पश्चात् जम्बू स्वामीके निर्वाण पर्यन्त ही जिनकल्पको उपलब्धि होती थी। उसके पश्चाव इस काल में उत्तम संहनन आदिके अभावके कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है। ३. उपकरण व उनकी सार्थकता उत्तराध्ययन/पृ. १७६ पर उधृत .."जन्तबो बहबस्सन्ति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य. स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।११ सन्ति संपातियाः सत्त्वाः सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽगरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवखिका ।। किंच-भवन्ति जन्तवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थ पात्रग्रहणमिष्यते।४। अपरं च-सम्यक्त्वज्ञानशोलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् । शीतवातातपैदशमशकैश्चापि खेदितः। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविधास्यति ।६। तस्य त्वग्रहों युव स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु ७" - बहुतसे जन्तु ऐसे होते है जो इन चर्मचक्षुओसे दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षाके अर्थ रजोहरण है। वायुमण्डल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त है जो मुखमें अथवा भोजन पान आदिमें स्वतः पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षाके लिए मुखवखिका है। बहुत सम्भव है कि भिक्षामे प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जन्तु पड़े हों। अत. ठीक प्रकारसे देख शोधकर खानेके लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है । इनके अतिरिक्त सम्यवत्व, ज्ञान, शील व तपकी सिद्धिके अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कही शोत वात आतप डांस व बखो आदिको बाधाओंसे खेदित होनेपर कोई इनमे ठीक प्रकारसे ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यन्तर संयमके उपकारी होनेसे उपकरण संज्ञाको प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करनेपर.शुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदिका उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते है। उत्तराध्ययनाटीका/पृ. १७६ "धर्मोपकरणमेवैतत न तु परिग्रहस्तथा।" दश वैकालिक सूत्र/अ.६ गा. १६"जं पिवत्थं य पायं वा. केवल पाय
पंछणं । तेऽपि संजमलज ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य।" अर्थातमूरिहित साधुके लिए ये सब धर्मोपकरण है न कि परिग्रह, क्योंकि मूछको परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तुको नहीं। बस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारणके लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने अनासक्त रहते हैं कि समय आनेपर जीर्ण तृणकी भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं। ४. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूतिका परिचय उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र १६४ का उपोद्घात/पृ. १५१ "जमालिप्रभृतीनां निङ्गगनां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि
गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नः।' उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र १७८/पृ. १७६ पर उद्धृत “छवाससएहि णवोत्त
रेहिं सिद्धिगयस्स बोरस्स । तो बोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा।" -श्वेताम्बर आगममें यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवोंका कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञाको प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगमके प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धिवाले होते हैं,
साँझ पड़नेपर भी उचित | जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो स्थान की खोज करते हैं जाते हैं।
इस प्रकारके शक्तिकृत भेदके अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेषकी अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकारके होते हैं । यथाउत्तराध्ययन/पृ. १७६ पर उद्धृत गाथा--जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य । पाउरजमया उरणा एक्केवा ते भवे विहा। य एतान् वर्जयेदोषान् धर्मोपकरणाहते । तस्य त्वग्रहण युक्तं, यः स्याजिन इव प्रभुः । - जिनकल्पी साधु चार प्रकारके होते हैं-सबस्त्र
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