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श्वेताम्बर
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श्वेताम्बर भावसंग्रह/५२-७५ विक्रम संवत् १३६ में सौराष्ट्र देशके वल्लभीपुर
के समय अपनो वसतिका में बैठ कर खा लें। मगरमें श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघके प्रवर्तक भद्रबाहू ४. श्वेताम्बरोंके विविध गच्छ गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवलीसे भिन्न थे) उनके शिष्य शान्त्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचन्द्र थे। उज्जैनी
श्वेताम्बरोंमे विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा-चैत्यवासी नगरीमें १२ वर्षीय दुर्भिक्षके सम्बन्धमें आचार्य भद्रबाहुको भविष्य
गच्छ, उपके शगच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, पार्श्व चन्द्र गच्छ. बाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघको लेकर वहाँसे विहार
सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि । कर गये।५३-५७ भद्रबाहुके शिष्य शान्ति नामके आचार्य सौराष्ट्र
इनमें से आज खरतर, तथा व आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। देशके वल्लभीपुर नगरमें आये ५६ परन्तु वहाँ भी भारो दुष्काल
प्रत्येक गच्छको समाचारी जुदी है तथा उनके श्राव कोंकी सामायिक पडा ।१७। परिस्थितिवश सिह वृत्ति छोड़कर साधुओंने वस्त्र, पात्र
प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणकके आदि धारण कर लिये और वसतिकामें-से भोजन माँग कर लाने लगे
दिन छह मानता है तो कोई पाँच । कोई पर्युषणका अन्तिम दिन ५८-५६। दुभिक्ष समाप्त हो जाने पर जन शान्त्याचार्यने पुनः उन्हें
भाद्रपद शु. ४ मानता है और कोई भाद्रपद शु.५। शुद्ध चारित्र पालनेका आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचन्द्रने
'धर्मसागर' कृत पट्टावलीके अनुसार वी. नि. ८८२ में चैत्यउन्हें जानसे मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया ।६०-६
वास प्रारम्भ हुआ। 'जिन बल्लभ सूरि' कृत संघपट्टकी भूमिकामें शान्त्याचार्य मरकर व्यन्तर हुआ और संघ पर उपद्रव करने
भी चैत्यबासका कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकान्त वर्ष ३ लगा, जिसे शान्त करनेके लिए जिनचन्द्रने उसकी एक कुलदेवताके
अंक ८-8 के 'यति समाज' शीर्षकमें श्री अगरचन्द नाहटाने श्वेतारूपमें पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेताम्बर सम्प्रदायमें
म्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है। चली आ रही है ।७०-७५॥
अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेवको सभामें वर्द्ध मान सूरिके
शिष्य जिनेश्वर सूरिद्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ३. अर्धफालक संघकी उत्पत्ति
ही खरतर नामसे पुकारा जाने लगा।
वि. सं. १२८५ में श्री जगच्चन्द्र सूरिके उग्र तपसे प्रभावित भद्रबाहु चरित्र/ तृ. परिच्छेद--बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनोंके साथ भट्टारक श्री रत्ननन्दिने भदबाहु चरित्र में
होकर मेवाड़के राजाने उसके गच्छको 'तपा गच्छ' नाम प्रदान
किया। दी है। इसका सारांश यह है कि- "पंचम भूतकेवली श्री भद्रबाहू
मुख पट्टी के बदले अंचल का अर्थात वस्त्रके छोरका उपयोग किया स्वामीके मुखसे उज्जैनी में पड़ने वाले १२ वर्षीय दुर्भिक्षके सम्बन्धमे सुनकर भी तथा अन्य संघोंके दक्षिणकी ओर विहार कर जाने पर
जाने के कारण आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है। भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नामके आचार्योंने जाना
५. अर्धफालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने- द.सा.//६० प्रेमी जी-अब इस बातपर विचार करना है कि भावके लिए वसतिकामें जाने लगे और अपनी नग्नताको उतने समय संग्रहको कथामें (भद्रबाहु चरित्रके कर्ताने ) इतना परिवर्तन क्यों छिपानेके लिए, एक वस्त्रका टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, किया। हमारी समझमें इसका कारण भद्रबाहुका और श्वेताम्बर जिसे वसतिकामें जाते समय वे अपने आगे ढंक लेते थे और लौटनेपर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय है। भाव संग्रह के वर्ताने तो भद्रबाहुको पृथक्कर देते थे। इस कारण इस संघका नाम.अर्धफालक पड गया
केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें (श्रुतावतारके तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिणसे वह मूल संघ लौट अनुसार ) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघसे पुनः पहला मार्गअपनाने को कहा। श्रुतकेबलीका शरीरान्त बी. नि, १६२ में हुआ है। (दे. इतिहास / संघने उन्हें जानसे मार दिया। वे व्यन्तर हो गये और संघ पर १ और श्वेताम्बरों की उत्पत्ति की. नि. ६०६ (वि. १३६ ) उपद्रव करने लगे, जिसे शान्त करने के लिए संघने उनकी अपने मे बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस ४५० वर्ष के अन्तरको पूरा कुलदेवताके रूपमें पूजा करनो प्रारम्भ कर दी। ४५० वर्ष तक यह करनेके लिए ही रत्ननन्दिने श्वेताम्बरसे पहले अर्धफालक उत्पन्न संघ इसी अर्ध फालकके रूपमें घूमता रहा। तत्पश्चात् वि. सं. होनेकी कल्पना की है। दूसरे श्वेताम्बर मत जिनचन्द्र के द्वारा बल्लभी१३६ में सौराष्ट्र देशकी वल्लभीपुरी नगरीको प्राप्त हुआ। उस समय पुरमें प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्षके समय इस संघके आचार्य जिनचन्द्र थे। वल्लभीपुर नरेशकी रानो उज्जैनी जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न मताया नरेशकी पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास जाये । इसलिए अर्ध फालकको उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और विद्याध्ययन किया था। अतः विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलानेकी इसके प्रवर्तक आचार्यका नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेताम्बर इच्छा करने लगी। परन्तु राजाको उनका वह वेष पसन्द न था, आम्नायमें अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में बी. नि. १६२ में अतः उसने उन साधुओंके पास कुछ वस्र भेज दिये, जिसे उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालकके रूपमें ४५० वर्ष तक जिनचन्द्रने राजा व रानीको प्रसन्नताके अर्थ ग्रहण करनेकी आज्ञा. विहार करता रहा। अर्ध फालक संघवाले साधु जन वस्तिकामें दे दो। बस तभी इस संघका नाम श्वेताम्बर पड़ गया।
भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्रके टुकड़ेको वे अपनी बायौं भुजापर हरिपेग कृत कथा कोष/५८-५६/३.३१८ "यावन्न शोभनः काल. जायते लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जाये। चर्यासे
साधवः स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुरः कृत्वाऽर्धकालकम् ॥१८॥ लौटनेपर उस वस्त्रको पुनः पृथक् करके वे दिगम्बर हो जाते थे। भिक्षापात्र' समादाय दक्षिणेन करेण च । गृहीत्वा नक्तमाहार', कुरु- यही संघ काल योगसे वी.नि. ६०६ में वल्लभीपुरीमें प्राप्त हुआ। ध्वं भोजनं दिने ।५६)"-१२ वर्षीय दुर्भिक्ष के समय १२००० साधुओं उस समय उस संघका आचार्य जिनचन्द्र था, जिसने उपरोक्त के साथ श्रुतकेबली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चन्द्र गुप्त) दक्षिण- कथनानुसार इसे श्वेताम्बरके रूपमें प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार पथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवलो तथा १२ वर्षीय दुर्भिक्षके साथ भी सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ बैठ जाती है। श्वेताम्बरोंके आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ बल्लभीपुरके हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक ( कपड़े का टुकड़ा) लटका साथ,भावसंग्रह वे दर्शनसारके अनुसार जिन चन्द्र के साथ व बी. नि, लें । तथा दायें हाथसे भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन ६०६ के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमीजी रत्ननन्दि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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