________________
श्लेष संबन्ध श्रोता गणना करनेसे क्या लाभ ।१४०। इनमें जो श्रोता गाय और इसके मिथ्यातकी मन्दतामे जैनधर्मसे द्वेष न करनेवाला व्यक्ति भद्र है वह समान हैं, वे उत्तम कहलाते हैं, जो मिट्टी और तोताके समान हैं वे उपदेशका पात्र है, उससे विपरीत अभद्र है तथा उपदेश पानेका मध्यम कहलाते हैं। बाकीके सब श्रोता अधम माने गये हैं 1१४१॥ अधिकारी नहीं है । ४. सच्चे श्रोताका स्वरूप
६. अनिष्णातको सिद्धान्त शास्त्र सुनना योग्य नहीं क.पा. १/१/७/3 ण च मिस्सेप्नु सम्मत्तस्थित्तमसिद्ध, अहेदु दिष्ट्रिवाद- भ, आ./वि /२६१/६७५ पर उद्धृत-सव्वेण वि जिणवयणं सोदव्व सट्ठिसणणण्णहाणुवरत्तीदो तेसि तदस्थित्त सिद्धीदो । शिष्यों में सम्यक देण पुरिसेण । छेद सुदस्स हु अत्थो ण होदि सम्वेण णादवो ।४६१॥ श्रद्धाका अस्तित्व असिद्ध है सो बात नहीं है, क्योंकि अहेतुवाद ऐसे - श्रद्धावान् सर्व पुरुष जिनवचन सुन सकते हैं, परन्तु प्रायश्चित्त दृष्टिवाद अंगका सुनना सम्यक्त्वके बिना बन नहीं सकता है। इस- शास्त्रका अर्थ सर्व लोगोंको जाननेका अधिकार नहीं है। लिए उनमें सम्यक्त्वका अस्तित्व सिद्ध है।
दे. श्रावक/४/ गणधर. प्रत्येक बुद्ध आदि द्वारा रचित प्रायश्चित्त शास्त्रध. १२/४.२.१३.६६/४१४/१० धारण गहणसमत्थाणं चेव संजदाणं विण- का देशवतो को पढनेका अधिकार नही है। यालंकाराण ववरखाण कादम्ब मिदि भणि होदि। -धारण व ध.१/१,१,२/१०६/३ विक्खेवणी णाम कहा जिणवयणमयाणतस्स अर्थग्रहण में समर्थ तथा विनयसे अलंकृत ही संयमीजनोंके लिए ण कहेयवा। जिसका जिन वचनमे प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुषको व्याख्यान करना चाहिए, यह अभिप्राय है।
विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिए । म. पु./१/१४५.१४६ श्रोता शुश्रूषता : स्वैर्गुणैर्युक्तः प्रशस्यते।:: सा.ध./७/५० स्यान्नाधिकारी सिद्धान्त-रहस्याध्ययनेऽपि च 101 - १९४५ शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। स्मृत्यूहापोहनिर्णीतीः सिद्धान्त शास्त्र और प्रायश्चित्त शास्त्रों के अध्ययन करनेके विषयमें श्रोतुरष्टौ गुणान् विदुः ॥१४६। जो श्रोता शुश्रूषा आदि गुणोसे श्रावक को अधिकार नहीं है। युक्त होता है वही प्रशंसनीय माना जाता है ।१४५ शुश्रूषा, श्रवण,
७. निष्णातको सर्वशास्त्र पढने योग्य है ग्रहण, धारण, स्मृति, जह, अपोह और निर्णीत (तत्त्वाभिनिवेश सा. ध.) ये श्रोताओं के आठ गुण जानने चाहिए ।१४६। (सा.ध./१/७) ।
ध, १/१.१,२/१०६/५ गहिद-समणस्स तब-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा पु. सि उ./७४ अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवज्यं ।
विबखेरणी कहा कहे यना। -जिसने स्व समयको जान लिया है .. जिनधर्मदेशनाया भवन्ति शुद्वा धिय. ७४ - दुखदायक, दुस्तर
जो तप, शील और नियमसे युक्त है, ऐसे पुरुषको ही पश्चात और पापों के स्थान इन आठ पदार्थोको परित्याग करके निर्मल विक्षेपणी कथाका (भी) उपदेश देना चाहिए। बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्म के उपदेशके पात्र होते हैं।
सा. ध./२/२१ तत्त्वार्थ प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशवत', तहीक्षाग्रआ. अनु ७ भव्यः किं कुशलं ममेति विमृशन् दुःखाद् भृशं भीतिवान्,
धृतापराजितमहामन्त्रोऽस्तदुर्दैवत' । आङ्ग पौर्वमथार्थ संग्रहमधीसौख्यैषी श्रवणादिबुद्धिविभवः श्रुत्वा विचार्य स्फुटम् । धर्म शर्मकर व्याधीतशास्त्रान्तरः, पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्, धन्यो निहन्त्य दयागुणमयं युक्त्यागमाभ्यां स्थितं गृहन् धर्मकथाश्रुतावधिकृतः
हसी ।२१। -धर्माचार्य या गृहस्थाचार्य के उपदेशसे सातौ तत्त्वोंको शास्यो निरस्ताग्रहः ॥७१ = जो भव्य है, मेरे लिए हितकारक मार्ग ग्रहणकर, एकदेशवतकी दीक्षाके पहले धारण किया है महामन्त्र कौन सा है इसका विचार करनेवाला है, दुःख से अत्यन्त डरा हुआ जिसने ऐसा छोड़ दिया है मिथ्यादेवोंका आराधन जिसने, ऐसा है, यथार्थ सुखका अभिलाषी है, श्रवण आदि रूप बुद्धिसे सम्पन्न है,
द्वादशांग सम्बन्धी और चतुर्दशपूर्व सम्बन्धी शास्त्रों को पढ़कर, पढ़े तथा उपदेश को सुनकर और उसके विषयमे स्पष्टतासे विचार करके
हैं न्याय आदिक शास्त्र जिसने ऐसा पर्व के दिन प्रतिमायोगको धारण जो युक्ति व आगमसे सिद्ध ऐसे सुखकारक दयामय धर्मको ग्रहण करनेवाला पुण्यात्मा द्रव्य व भाव पापोको नष्ट करता है ।२१॥ करनेवाला है, ऐसे दुराग्रहसे रहित शिष्य धर्मकथाके सुननेका अधि
८. शास्त्र श्रवणमें फलेच्छाका निषेध कारो माना गया है ।
म पु./१/१४३ श्रोता न चैहिकं किंचित्फलं वाउछेत्कथाश्रुतौ । नेच्छेद्रक्ता सा, ध./२/१६ यावज्जीवमिति त्यक्त्वा, महापापानि शुद्धधी । जिन
च सत्कारधनभेषजस क्रियाः।१४३, = श्रोताओंको शास्त्र सुनने के बदले धर्मश्रुतेर्योग्यः स्यात्कृतोपनयो द्विजः ॥१६॥ = अनन्त संसारके कारण
किसी सांसारिक फल की चाह नहीं करनी चाहिए, इसी प्रकार वक्ताभूत मद्यपानादिक पापोको जीवनपर्यन्त के लिए छोड़कर, सम्यवत्व के
को भी श्रोताओंसे सत्कार, धन, औषधि और आश्रय (घर) आदि द्वारा विशुद्ध बुद्धिवाला और किया गया है यज्ञोपवीत संस्कार
की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जिसका ऐसा ब्राह्मण, वैश्य व क्षत्रिय जैनधर्मको सुनने का अधिकारी होता है ।१६॥
श्रोत्र इन्द्रिय- दे. इन्द्रिय/१। न्या. दी./३.१८०/१२४/४ सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभाव हन्तुमुपरि- इलक्ष्णकूला-शिखरी पर्वतस्थ एक कूट व तन्निवासी एक देव । तननयमर्थ ज्ञानस्वभाव स्वीकर्तुं च यः समर्थ : आत्मा स एव शास्त्रा- -दे. लोक/91 धिकारी ति। -समीचीन उपदेशसे पहलेके अज्ञान स्वभावको नाश करने और आगे के तत्त्वज्ञान स्वभावको प्राप्त करने में जो समर्थ आत्मा
श्लेष औदारिक शरीरमे श्लेष ( कफ) का निर्देश। है वही शास्त्रका अधिकारी है।
-दे. औदारिक/१।
श्लष सबन्ध-ष. खं/१२/५,६/सू. ४३/४१---जो सो संसिलेसबंधो ५. उपदेशके अयोग्य पात्र
णाम तस्स इमो णिसो-जहा कट्ठ-जदूणं अण्णोण्णसंसिले सिदाणं ध. १२/४,२,१३,६६/गा. ४/४१४ बुद्विविहीने श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थक बंधो संभयदि सो सयो संसिलेसबंधो णाम ।४३: जो संश्लेष भवति साम। नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ।। बन्ध है उसका यह निर्देश है-जमे परस्पर संश्लेषको प्राप्त हुए काष्ठ - जिस प्रकार पतिके अन्धा होनेपर स्त्रियोंका विलास व सुन्दरता और लाखका बन्ध होता है वह सब संश्लेषबन्ध है ।४३। व्यर्थ है, इसी प्रकार श्रोताके मूर्ख होनेपर पुरुषों का वक्तापना व्यर्थ रा. वा./२/२४/६/१८८/३ जतुकाष्ठादिसंश्लेषणात संश्लेषवन्धः। -लाख
काठ आदिका संश्लेष बन्ध है। सा.ध./९/६ कुछमेस्थोऽपि सहधर्म लघुकमतया द्विषन् । भद्रः स देश्योध. १२/५.६.६/७/रज्जु-वस्त्र-कट्ठादी हि विणा अल्लीवणविसेसे हि द्रव्यत्वान्नाभद्रस्त द्विपर्ययात् ।। -मिथ्यामतमें स्थित जीव विणा जो चिक्कग-अचिक्क गदवाण चिक्कणदवाणं वा परोप्परेण मंधो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org