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श्रेणी चारण ऋद्धि
गुणस्थानको सन्मुख होय तो संक्लेशताके कारण पूर्व गुणश्रेणि आयामसे संख्यात गुण बंधत्ता गुणश्रेणि आयाम करता है। और यदि पलट कर उपशम वक्षपक श्रेणी चढनेको सन्मुख होय तो विशुद्धिके कारण संख्यात गुणा घटता गुणश्रेणि आयाम करता है।
४. गिर कर असंयत होनेवाले अल्प हैं ध.४/१,३,८२/१३५/४ उसमसेढोदो ओदरीय उवसमसम्मत्तेण सह
असं जम पडिवण्णजीवाणं संखेज्जत्त वलं भादो। - उपशम श्रेणिसे. उतरकर उपशम सम्यक्त्वके साथ असंयम भावको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी संख्या संख्यात ही पायी जाती है । . ५. पुनः उसी द्वितीयोपशमसे श्रेणी नहीं मांड सकता ध.५/१,६,३७४/१७०४२ हेट्ठा ओइण्णस्स वेदगसम्मत्तमपडिबज्जिय पुश्वुत्र समसम्मत्तेणुवसमसेढोसमारणे संभवाभावादी। तं पि कुदी उबसमसेडी समारहणपाओग्गकालादो सेसुवसमसम्मत्तद्धाए स्थोबत्तुबलभादो।-उपशम श्रेणीसे नं.चे उतरे हुए जोबके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुए बिना पहलेबाले उपशम सम्यक्त्वके द्वारा पुन: उपशम श्रेणीपर समारोहणकी सम्भावनाका अभाव है। प्रश्न यह कैसे जाना जाता है। उत्तर-क्योंकि, उपशम श्रेणी के समारोहण योग्य कालसे शेष सम्यक्त्वका काल अल्प है। श्रेणीचारण ऋद्धि-दे. ऋद्धि।। श्रेणीबद्ध-बिल दे० नरक/१/३: स्वर्ग विमान-दे. स्वर्ग//३ श्रेणीबद्ध कल्पना-classify (ध. [प्र. २८)। श्रेयस्कर-लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे. लोकांतिक। श्रेयांस-म.प्र./सर्ग/श्लोव-पूर्व के दसवें भव में धातकोखण्डमे एक
गृहस्थकी पुत्री थी। पुण्यके प्रभावसे नवमें भवमें बणिक सुता निर्नामिका हुई । वहाँसे व्रतोंके प्रभावसे आठवें भवमे श्री प्रभ विमानमें देवी हुई (८/१८५-१८८); ( अर्थात ऋषभदेवके पूर्व के आठवें भवमें ललितांगदेवकी स्त्री) सातवें भवमें श्रीमती (६/६०) छठेमें भोगभूमि में (८/३३) पाँचवें में स्वयंप्रभदेव (६/१८६) चौथेमें केशव नामक राजकुमार (१०/१८६) तीसरेमें अच्युत स्वग में प्रतीन्द्र (१०/१७१) दूसरेमें धनदेव (११/१४) पूर्व भवमें अच्युत स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ (१०/१७२)। ( इनके सर्वभव ऋषभदेवसे सम्बन्धित हैं । सर्व भवोंके लिए दे. ४७/३६०-३६२)। वर्तमान भवमें राजकुमार थे। भगवान् ऋषभदेवको आहार देकर दानप्रवृत्तिके कर्ता हुए (२०/८८,१२८) अन्तमें भगवानके समवशरणमें दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद प्राप्त किया (२४/१७४) तथा मोक्ष प्राप्त किया (४७/६६) । धेयांसनाथ-म.पू./१७/श्लोक-पूर्वके दूसरे भवमें नलिनप्रभ
राजा थे (२-३)। दीक्षा लेकर सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन कर तीर्थ कर प्रकृतिका बन्ध किया। अन्तमें समाधि मरणकर पूर्व भवमें अच्युतेन्द्र हुए (१२-१४) । वर्तमान भवमें ११वें तीर्थकर हुए। विशेष-दे. तीर्थ कर/५ । श्रीता-वीतराग वाणीको सुननेकी योग्यता आत्मकल्याणकी
जिज्ञासाके बिना नहीं होती। अतः वे ही शास्त्रके वास्तविक श्रोता . हैं तथा उपदेशके पात्र हैं अन्य लौकिक व्यक्ति उपदेश के अयोग्य हैं।
१. अव्युत्पन्न आदिकी अपेक्षा श्रोताओंके भेद व लक्षण ध.१/१.१.१/३०/७ त्रिविधा, श्रोतारः, अव्युत्पन्नः अवगतावशेषविवक्षित
पदार्थ एकदेशतोऽजगतविवक्षितपदार्थ इति । तत्र प्रथमोऽव्युत्पन्न- स्वान्नाध्यवस्यतीति । विवक्षितपदस्यार्थ द्वितीयः संशेते कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत इति, प्रकृतार्थादन्यमर्थमादाय विपर्यस्यति वा। द्वितीयवत्ततीयोऽपि संशेते विपर्यस्यति वा । - श्रोता तीन प्रकारके होते हैं-पहला अव्युत्पन्न अर्थात वस्तु स्वरूपसे अनभिज्ञ, दूसरा
श्रोत सम्पूर्ण विवक्षित पदार्थको जाननेवाला और तीसरा एकदेश विवक्षित पदार्थ को जाननेवाला। इनमेसे पहला श्रोता अव्युत्पन्न होने के कारण विवक्षित पदार्थ के अर्थको कुछ भी नहीं समझता है। दूसरा 'यहाँपर इस पदका कौनसा अर्थ अधिकृत है' इस प्रकार विवक्षित पदार्थ के अर्थ में सन्देह करता है, अथवा प्रकरण प्राप्त अर्थको छोडकर दूसरे अर्थ को ग्रहण करके विपरीत समझता है। दूसरी जातिके समान तीसरी जातिके श्रोता भी प्रकृत पद के अर्थ में या तो सन्देह करता है अथवा विपरीत निश्चय कर लेता है (गो. क./जी. प्र./५०/५१/३)।
२. मिट्टी आदि श्रोताके भेद व लक्षण म. पु./१/१३६ मृच्चालिन्यजमारिशककट्टशिलाहिभिः । गोहं समाहिष-. च्छिद्रघटदंशजलौककैः ।१६।-मिट्टी.चलना, बकरा, बिलाव,तोता, बगुला, पाषाण, सर्प, गाय, हंस, भैंसा, फूटा घडा, डांस और जोंक इस तरह चौदह प्रकारके श्रोताओके दृष्टान्त समझने चाहिए। भावार्थ-१. जैसे मिट्टी पानीका संसर्ग रहते हुए कमल रहती है बाद में कठोर हो जाती है, उसी प्रकार जो श्रोता शास्त्र सुनते समय कोमल परिणामी रहते हैं बादमे कठोर परिणामी हो जावें वे श्रोता मिट्टोके समान हैं। २. जिस प्रकार चलनी सारभूत आटेको नीचे गिरा देती है और छोकको बचा लेती है, उसी प्रकार जो श्रोता वक्ताके उपदेशमैसे सारभूत तत्त्वको छोड़कर निस्सार तत्त्व को ग्रहण करते हैं वे चलनीके समान श्रोता हैं। ३. जो अत्यन्त कामी हैं अर्थात शास्त्रके उपदेशमें शृगारका वर्णन सुनकर जिनके परिणाम शृगार रूप हो जावें वे अजके समान श्रोता है। ४. जैसे अनेक उपदेश मिलनेपर भी बिलाव अपनी हिंसक प्रवृत्ति नहीं छोड़ता, सामने आते हो चूहेपर आक्रमण कर देता है उसी प्रकार जो श्रोता बहुत प्रकारसे समझानेपर भी करताको नहीं छोड़ें, अवसर आनेपर क्रूर प्रवृत्ति करने लगें, वे मारिके समान हैं। जैसे तोता स्वयं ज्ञानसे रहित हैं, दूसरों के समझानेपर कुछ शब्द मात्र ग्रहण वर पाते हैं वे शुकके समान श्रोता है। ६. जो बगुले के समान बाहरसे भद्र परिणामी मालूम होते हैं, परन्तु जिनका अन्तरंग दुष्ट हो वे बगुलाके समान श्रोता हैं। ७. जिनके परिणाम हमेशा कठोर रहते हैं, तथा जिनके हृदय में समझाये जानेपर भी जिनवाणी रूप जलका प्रवेश नहीं हो पाता वे पाषाणके समान श्रोता हैं। ८. जैसे साँपको पिलाया हुआ दूध भी विष रूप हो जाता है, वैसे ही जिनके सामने उत्तमसे उत्तम उपदेश भी खराब असर करता है वे सर्पके समान श्रोता हैं। १. जेसे गाय तृण खाकर दूध देती है, वैसे ही जो थोड़ा सा उपदेश सुनकर बहुत लाभ लिया करते हैं वे गायके समान श्रोता हैं। १०. जो केवल सार वस्तुको ग्रहण करते हैं वे सके समान श्रोता हैं। ११. जैसे भंसा पानी तो थोड़ा पीता है पर समस्त पानीको गंदला कर देता है इसी प्रकार जो श्रोता उपदेश तो अल्प ग्रहण करते हैं, परन्तु अपने कुतर्कोसे समस्त सभामें धोभ पैदा कर देते हैं वे भैंसाके समान श्रोता हैं। १२. जिनके हृदय में कुछ भी उपदेश नहीं ठहरे वे सछिद्रघटके समान है।१३. जो उपदेश तो बिलकुल ही ग्रहण न करें परन्तु सारी सभ को बिलकुल व्याकुल कर दें वे डाँसके समान श्रोता है। १४. जो गुण छोड़कर सिर्फ अवगुणों को ही ग्रहण करें वे जोंकके समान श्रोता है'।१३६॥
३. मिट्टी आदि उत्तम, मध्यम, जघन्य विभाग म. पु./१/१४०-१४१ श्रोतारः समभावाः स्युरुत्तमाधममध्यमाः । अन्यादृशोऽपि सन्त्येव तरिक तेषामियत्तया ।१४०। गोहंससदशान्प्राहुरुत्तमान्मृच्छु कोपमान । माध्यमान्विदुरन्सैश्च समकक्ष्योऽधमो मतः । ११४१ऊपर कहे हुए श्रोताओंके उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन-तीन भेद होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी भेद हैं, उनकी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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