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श्लोक वार्तिक
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श्वेताम्ब
सो संसिलेसबंधो णाम ।-रस्सी, वस्त्र और काष्ठ आदिकके बिना तथा अल्लीषणविशेषके बिना जो चिकण और अचिवाण द्रव्योंका
९ । श्वेताम्बरके अनुसार दिगम्बर मतकी उत्पत्ति । अथवा चिमण द्रव्यों का परस्पर बंध होता है वह संश्लेषबंध कह
१. द्विविध कल्प निर्देश। लाता है।
२. जिन कल्पका विच्छेद । स. सा./ता. वृ./५७/६६/१५ क्षीरनीरसंश्लेषस्तथा । दूध और जलका
३. उपकरण व उनकी सार्थकता। परस्पर सम्बन्ध संश्लेष है।
४. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूति मुनिका परिचय।। श्लोक वातिक-आ. उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्रकी आ. विद्या
५. शिवभूति द्वारा दिगम्बर मतकी उत्पत्ति । नन्द ( ई. ७७५-८४० ) कृत विस्तृत टीका है । (तो,/२/३६१) ।
ढूंढिया पन्थ । श्लोहित-एक ग्रह-दे. ग्रह ।
१. दिगम्बरके अनुसार उत्पत्ति।
२. श्वेताम्बरके अनुसार उत्पत्ति । श्वस्ता --भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४।
३. स्वरूप। श्वस्रा धारणा-दे. वायु । श्वासोच्छवास-१-दे. उच्छवास: २. कालका एक प्रमाण
विशेष । अपरनाम उच्छ्वास. वा निःश्वास । -दे, गणित/1/१। १. श्वेताम्बर मतका स्वरूप श्वेतकूमार-बैराट राजाका पुत्र था। भीष्म द्वारा युद्ध में मारा
स.सि./८/१/५ सग्रन्थः निग्रन्थः। केवली कवलाहारी । खी सिध्यति ।।
एवमित्यादि विपर्ययः । = सग्रन्थको निर्गन्थ मानना, केवलीको गया था । ( पा. पु./१६/१६१-१६१)।
कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपश्वेतकेतु-विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर ।दे. विद्याधर।।
रीत मिथ्यादर्शन है। (रा. वा./८/१/२८/५६४/२०), (त. सा./श्वेतपंचमीव्रत-आषाढ़, कार्तिक व फाल्गुन,तीनों में से किसी भी मासमें प्रारम्भ करके ६५ महीनों तक बरावर प्रत्येक मास शु. ५ को
द.सा./मू./१३-१४तेण कियं मयमेयं इत्थीण अत्थि तम्भवे मोक्खो। उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। ( वसुनन्दि
केवलणाणीण पुण अण्णवरवाण तहा रोगो।१३ । अंभरसहिखो विजई। श्रावकाचार/३५३-३६२), (धर्मपरीक्षा/२०१४), (बत-विधान
सिज्झई वीरस्स गभचारत्तं । परलिंगे बिय मुत्ते कासुयभोजच संग्रह/पृ.८८)।
सब त्था १४।
उसने (आचार्य जिनचन्द्रने)'
यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भवमें मोक्ष प्राप्त हो सकता है। श्वतवाहन-चम्पा नगरीका राजा था। दीक्षा धारण कर एक केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।१३॥ मासका उपवास किया। चर्या में 'मेरे पुत्रने गृहस्थोंको मेरे लिए वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगआहारदान करने को मना किया है' ऐसा सुनकर वापस लौट आये। वान वीरके गर्भका संचार हुआ था। अर्थात पहले एक ब्राह्मणीके श्रेणिक महाराज द्वारा शंका निवारण कर दिये जाने पर इनका रोष गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणीके गर्भ में चले गये। मुनिजन दूर हुआ। अनन्तर केवलज्ञान प्राप्त किया। (दे० म. पु./७६/- किसीके घर भी प्रामुक्त भोजन कर सकते हैं। ५-२६)।
द. पा./टी./११/११/११ श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृहन्ति, प्रामुक श्वेताम्बर-दिगम्बर मान्यताके अनुसार भगवान् वीरके पश्चाद
मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्ण लोपः कृतः। -श्वेताम्बर मूल संघ दिगम्बर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओंने
साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझमें मांस श्वेताम्बर संघको स्थापना की। श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार
भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करनेमे दोष नहीं है। जिन कल्प व स्थविर कल्प दोनों ही प्रकारके संघ विद्यमान थे। गो,जी./जी.प्र./१६ इन्द्रः श्वेताम्बर गुरुः तदादयः संशयितमिथ्या- । जम्बू स्वामीके पश्चात् काल प्रभावसे जिनकल्पका विच्छेद हो ___ दृष्टयः। - इन्द्र श्वेताम्बरोंका गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक मिथ्यादृष्टि हैं। एक साधु जिनकल्पके पुनरावर्तनके उद्देश्यसे नग्न हो गया। उसके द.सा./प्र./५० प्रेमीजी-दर्शनसार ग्रन्थमें तथा गोम्मटसारको टीकामें द्वारा ही दिगम्बर मतका प्रचार हुआ। श्वेताम्बरमें-से ढूंढिया मत
जो श्वेताम्बरों की गणना सोशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं।।
नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मतमें हो सकती है ऐसा
उपरोक्त सर्वार्थसिद्धिके उद्धरणसे स्पष्ट है। श्वेताम्बर मतका स्वरूप । दिगम्बरके अनुसार श्वेताम्बर मतकी उत्पत्ति ।
२. दिगम्बरके अनुसार श्वेताम्बर मतकी उत्पत्ति | अर्ध फालक संघकी उत्पत्ति ।
दिगम्बर मतके अनुसार श्वेताम्बर मतको उत्पत्ति कैसे हुई, उसके श्वेताम्बरोंके विविध गच्छ । अर्थ फालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय ।
द.सा./मू./११-१२ एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । प्रवर्नको विषयक समन्वय ।
सोरटे बलहीए उप्पण्णो सेबडो संघी। ११ । सिरि भवमा गणिनो
'सीसो गामेण संति आइरिखो। तस्स य सीसो दुढो जिणचंदो उत्पत्तिकाल विषयक समन्वय ।
। मंदचारित्तो । १२ । तेण कियं मयमयं...। १३। -इसी बात को दिगम्बर मतकी प्राचीनता।
और भी विस्तृत रूपसे इन्हीं देवसेनाचार्यने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थमें एक कथाके रूपमें दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है
र. सा./स./११-४ाचे दो कथाएँ दो जीको उत्पत्ति कैसे हुई,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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