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पंड
खंड-दे,
नपुंसक
षडावश्यक - दे. आवश्यक ।
षट्कर्म - दे. साम
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षट् काय
काय |
षट् काल-काल / ४ ।
षट्खंड - - भरतादि १०० कर्मभूमियों रूप क्षेत्रों में से प्रत्येक में दो-दो नदियाँ व एक-एक विजयार्ध पर्वत हैं। जिनके कारण वह छह खण्डों में विभाजित हो जाता है। इन्हें ही षट् खण्ड कहते हैं। इनमेंसे एक आर्य व शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। इन्हीं षट् खण्डोंको चक्रवर्ती जीतता है। विजयार्ध तथा आर्य खण्ड सहित तीन खण्डोंको अर्ध चक्रवर्ती जीतता है । दे, म्लेच्छ, खण्ड । षट् घट खंडागम यह कर्म सिद्धान्त पय ग्रन्थ है। इसकी विषयक उत्पत्ति मूल द्वादशांग श्रुतस्कन्धसे हुई है (दे. श्रुतज्ञान) । इसके छह खण्ड हैं-१ जीवद्वाण, २ खुद्दाबन्ध, ३ बन्धस्वामित्व विचय, ४ वेदना, ५ वर्गणा, ६ महाबन्ध । मूल ग्रन्थ के पाँच खण्ड प्राकृत भाषा सूत्र निवद्ध है। इनमें पहले खण्डके सूत्र (१०६* १३६) आचार्य बनाये हुए हैं। पीछे उनका शरीरान्त हो जाने के कारण शेष चार खण्डों के पूरे सूत्र आ. भूतबलि (ई.१३६-९५६) ने बनाये थे । छठा खण्ड सविस्तर रूपसे आ. भूतबलि द्वारा बनाया गया है । अतः इसके प्रथम पाँच खण्डोंपर तो अनेकों टीकाएँ उपलब्ध हैं, परन्तु छठे खण्डपर वीरसेन स्वामीने संक्षिप्त व्याख्या के अतिरिक्त और कोई टीका नहीं की है । १. सर्व प्रथम टीका आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) द्वारा इसके प्रथम तीन खण्डोंपर रची गयी थी। उस टीकाका नाम 'परिकर्म' था। २. दूसरी टीका आ. समन्तभद्र (ई. श. २) द्वारा इसके प्रथम पाँच खण्डोंपर रची गयी । ३. तीसरी टीका आ. शामकुण्ड (ई. श. ३) द्वारा इसके पूर्व पाँच खण्डोंपर रची गयी है । ४. चौथी टीका आ, वीरसेन स्वामी (ई. १७७-८२७) कृत है। (विशेष दं० परिशिष्ट)। षद्गुणहानि वृद्धि - १. अविभाग प्रतिच्छेदोंमें हानि वृद्धिका नाम ही षट्गुण हानि वृद्धि है
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पं. का./त.प्र./८४ धर्मः (द्रव्य ) अगुरुलघु भिर्गुणै रगुरुलघुत्वाभिधानस्य स्वातिष्ठवनिमन्नस्य स्वभावस्याविभागपरिच्छेदैः प्रतिसमयसंस्थानपतितवृद्धिहानिभिरनन्ते सदा परिणतत्वादुत्पादव्ययत्वेऽपि । धर्म ( धर्मास्तिकाय) अगुरुलघुगुणों रूपसे अर्थात अगुरुलघु नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्व के कारणभूत स्वभाव उसके अविभागप्रतिरूप जो कि प्रतिसमय होनेवाली पदस्थानपतित वृद्धि हानिवासे अनन्त हैं उनके रूप परिण मित होनेके उत्पाद व्यय स्वभाववाला है । मोजो./जी./२६१/२०१२/२ धर्माधर्मादीनां गुरुताविभाग प्रतिच्छेदः स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूत शक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमानषड्हानिभिश्च हीयमानाः परिणमन्ति । - धर्म और अधर्म द्रव्योंके अपने correst कारणभूत शक्ति विशेष रूप जो अगुरुलघु नामक गुणके अविभाग प्रतिच्छेद से अनन्त भाग वृद्धि आदि, तथा षट्स्थान हानि के द्वारा वर्धमान और हीयमान होता है।
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२. एक समय में एक ही वृद्धि या हानि होती है
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ष. वं. १०/४,२,४ / सू. व टी / २०२-२०५/४६६ तिण्णिवद्वितिणिहाणीओ केवचिरं कालादो होंति । जहणेण एगसमयं |२०११ --
भा० ४-११
पदज
संभाग समयमा जिदिए समय सेसतिणं मड्डी मेनबडि हामीणमेत महाणि वा गदस्स अज्जभागकालो जहन समय होदि एवं दोबड्ढीणं तिष्णिहाणीण च एगसमयपरूवणा कादव्या । 'उक्कस्से आवलियाए असंखेज्जदिभागो । २०३।१ - एका जीवो जम्हि कहि बिजोग हिंदो असंगडियो गदो तत्थ एकसमयमपि विदियसमए ततो असेनदिभागुत्तरयोग गदो एवं दोण्णम संखेज्जभागबडू ढिसमयाण मुबलद्धी जादा । बढिहाणी केवचिरं कालादो होंति । जहण्जेण एगसमओ 1२०४१अवगुणहाणि वा एगम
दवढि हाणीणं - गदस्स एगसमओ होदि । 'उक्कस्सेण अंतीमुत्तं २०५१' = 'तीन वृद्धियाँ और तीन हानियाँ कितने काल तक होती हैं 1 जघन्यसे एक समय होती हैं । २०२१ -- असंख्यात भाग वृद्धि होनेपर जघन्यसे एक समय रहकर द्वितीय समय में शेष तीन वृद्धि में किसी वृद्धि अथवा चार हानियोंमें किसी एक हानिको प्राप्त होनेपर असंख्यात भागवृद्धिका काल जघन्यसे एक समय होता है। इसी प्रकार शेष दो वृद्धियों और तोन हानियोंके एक समयकी प्ररूपणा करनी चाहिए। 'उत्कर्ष से उक्त हानि-वृद्धियोंका काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । २०३ - एक जीव जिस किसी भी योगस्थान में स्थित होकर असंख्यात भागवृद्धिको प्राप्त हुआ। वहाँ एक समय रहकर दूसरे समय में उससे असंख्यातवें भागसे अधिक योगको प्राप्त हुआ। इस प्रकार असंख्यात भाग वृद्धिके दो समय की उपलब्धि हुई । ( इसी प्रकार तीन आदि समयों में आवली पर्यन्त लागू कर लेना ) । 'असंख्यात गुणवृद्धि और हानि मिल्ने काल तक होती है । जघन्यसे एक समय होती है । २०४ गुणवृधि अथवा असंख्यात गुण हानिको एक समय करके अविवक्षित वृधि या हानिको प्राप्त होनेपर एक समय होता है। उ हानि अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है|२०|
असल्भात
३. स्थिति आदि बन्धोंमें वृद्धि हानि सम्बन्धी नियम घ. ६/१.३-४.३/१८३/१ एत्यहानीओ सत्य पतिदोनमस्स असं
दिभागमेत हिदीए विणा गुणहानीए असंभवादो। यहाँ अर्थात इस जघन्य स्थिति गुणहानियाँ नहीं होती है, क्योंकि, पक्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र स्थितिके बिना गुण-हानिका होना सम्भव नहीं है ।
घ. १२/४.२.११.२६१/०६२/१३ सदिकमसिए परि रहनी Goraड्ढी होदि तो एगसममपत्रद्धधमेत्ता चेव होदित्ति गुरुब एसादो । = क्षपित कर्माशिक के यदि बहुत अधिक द्रव्यवः (प्रदेशोंकी) वृद्धि होती है तो वह एक समय प्रबंध प्रमाण ही होती है, ऐसा गुरुका उपदेश है ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
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१. छह वृद्धि हानियाँका क्रम, अर्थ, संहनानी व यन्त्र । -देन 11/२/
२. अनुभाग काण्डको गुण हानियाँ
२. अध्यवसाय स्थानोंमें वृद्धि हानियों। ४. व्यंजन पर्याय अन्तलीन अर्थ पर्याय ५. अशुद्ध पर्यायोंमें भी एक दो आदि समयोंके पश्चात् हानिवृद्धि होती है। बड़क संख्यात गुण की संज्ञा षड्ज - एक स्वर - दे, 'स्वर' ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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- दे. ध. १२/१५७-२०२ ।
- दे. वह वह नाम । -vofa/1/1
- दे. अवधिज्ञान / २ / २ / खान 15/२/३
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