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श्वेताम्बर
श्वेताम्बर
क्योंकि वि. श. २ में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्तिका काल वि.१३६ भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तरन्त पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है।
[दिगम्बराचार्य श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वि. सं. १३६ (वी. नि, ६०६ ) में बता रहे हैं और श्वेताम्बराचार्य दिगम्बरोंकी उत्पत्ति वि. सं. १३६ (वी. नि. ६०६ ) में बता रहे हैं । १२ वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेदमें प्रधान निमित्त है वी.नि.६०६ (वि. से, १३६) में पड़ा था। इन सब बातोंको देखते हुए भद्रबाहु चरित्रकी मान्यता कुछ युक्त अँचती है, कि वि.पू. ३१० में अर्थ फालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि. सं. १३६ में श्वेताम्बर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेताम्बर ग्रन्थों में दिगम्बर मतकी उत्पत्ति भी उसी समय (वि. १३६ ) में बताया जाना भी इसी बातकी सिद्धि करता है कि बि.सं.१३६ में ही वह उत्पन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपनेको मूलसंधी सिद्ध करनेके लिए दिगम्बरकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें यह कथा गदनी पडी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगम्बर मत की प्राचीनता निम्नमें दिये गये प्रमाणोंसे सिद्ध होती है।
भट्टारक की इस कल्पभाको निर्मूल बताते है, और कहते हैं कि अर्धफालक नामका कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ (द. सा./प्र./६९) परन्तु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुराके कंगाली टीलेसे उपलब्ध कुशन कालीन (ई. २४०-३२० बी.नि. ५६७-८४७) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्व विभागने अर्धफालक मतका सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथपर एक कपड़ाडाल कराउस कड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपडा तो अपने बायें हाथपर लटकाये हैं और कमण्डल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथमें लिये हए.हैं (भद्रबाह चरित्र/प्र. उदयलाल ) Dr. Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 135 At his ( Nemisha's) left knee stands a small packed male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand,
अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथपर एक वषड़ा है और एक साधुके रूपमें उसका दायाँ हाथ ऊपरको उठा हुआ है। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग १० खण्ड २ पृ.८० के फुटनोट में डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्टमें नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। बह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में एक कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है। भद्रबाहु चरित्र /प्र. उदयलाल-आगे चलवर वि. १३६ (वी.नि.६०६) में वह प्रगट रूपसे श्वेताम्बर सम्प्रदायमें प्रवर्तित हो गया। प्रारम्भमे उसका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नामसे होता था। उपरान्त वही श्वेताम्बर कहलाया। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले 'निर्गन्य श्रमण संघ' के नामसे पुकारा जाता था। उपरान्त वह दिग्वास और फिर दिगम्बर कहलाने लगा ! ६. प्रवर्तकों विषयक समन्वय दिगम्बर ग्रन्थ दर्शनसारके अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रवर्तक
शान्त्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाह प्रथम (पंचम श्रुत केवली) के प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। नन्दी संघ को गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र भद्रबाहु द्वि. के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुन्दकुन्द के गुरु थे। (दे. इतिहास ७/२) परन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस नामके आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेताम्बर आम्नायके अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमलको बताया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इस नामके आचार्योका कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्रके कर्ता रत्ननन्दि 'रामस्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इन्द्र. श्वेताम्बरगुरुः तदादयः संशयमिथ्यादृष्टयः (गो, जी./जी, प्र./१६) में टीकाकारने श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक 'इन्द्र' नामके आचार्यको ताया है प्रेमी जो को गोम्मटसारके टीकाकारका मत इष्ट है( द.सा./प्र.६०प्रेमी जी)।
७. उत्पत्ति काल विषयक समन्वय द, सा./प्र.६० प्रेमीजी-दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदाय कम हए यह विषय बहुत ही गहरी अन्धेरीमे छिपा हुआ है । श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावलीमें गौतमसे लेकर जम्बू स्वामी तककी परम्परा दोनो ही सम्प्रदायको की तू मान्य है। इससे आगेके ५ श्रुतकेवलियोंके नाम दिगम्बर सम्प्रदायमें कुछ और श्वेताम्बर सम्प्रदायमैं कुछ और है। परन्तु भद्रबाहुको अवश्य दोनों स्वीकार करते है। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात ही दोनों जुदा जुदा हो गये है। दूसरी बात यह भी है कि श्वेताम्बर मान्य सूत्र ग्रन्थोकी रचनाका काल वी. नि. वि. सं. ११० के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवधिगणी क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें परिस्थिति बश संगृहीत किये गये थे श्वेताम्बरों के अनुसार संकलन का यह कार्य
८ दिगम्बर मतकी प्राचीनता १. श्वेताम्बर मान्य कथाको स्वीकार कर लें तो शिवभूतिने जिनकरूप (दिगम्बर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकपी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिरसे जिनकल्प (दिगम्बरता) का प्रचार किया जाये। कथाके अनुसार शिवभूति गुरुके मुखसे जिनकल्पका उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूतिसे पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। २. श्वेताम्बर ग्रन्थोंमे ऐसा उल्लेख पाया जाता है"संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना । वत स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा- दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न शक्यते ततः।" इस उद्धरणसे स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परन्तु कालकी करालताके कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पनाका आश्रय लिया है। इधर तो श्वेताम्बराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगम्बराचार्य
क्या कहते हैंर. क. पा./१० विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ।१० जो विषयो की आशाके वश न हो और परिग्रहसे रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तपमें लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। ३ इसके अतिरिक्त विक्रमादित्यकी सभाके नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैंविष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मणः मातृणामिति मातृमण्डलविदः शंभोः सभस्मादद्विनः।। शाक्याः सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनामा विदुयें यं देवमुपाश्रिताः स्वविधिना ते तम्य कुर्यः क्रियाम्।" = भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णुको प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना वर; विप्र लोग ब्रह्माकी करें; ब्रह्माणी व इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डलको उनके माननेवाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्धकी प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर साधु) लोग जिन भगवान की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दोमे यो कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधिसे उपासना करें। ४. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसबी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगम्बर मतका उल्लेख करता है । यथा
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