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श्रेणी
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२. उपशम श्रेणी निर्देश
दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। (ध. १/१,१,१८/१८८/२)।
३. क्षपकोंकी संख्या उपशमकोंसे दुगनी है ध. १.८.२४६/३२३/१ णाण वेदादिसबवियप्पेसु उबसमसेडि घडंतजीवे हितो खबगसेडि चदंतजोवा दुगुणा त्ति आइरिओवदेसादो। -ज्ञानवेदादि सर्व विकल्पों में उपशम श्रेणोपर चढ़ने वाले जोवोंसे क्षपक श्रेणीपर चदनेवाले जीव दुगुने होते हैं, इस प्रकार आचार्योंका उपदेश पाया जाता है।
३. उपशम श्रेणी निर्देश
१. उपशम व क्षायिक दोनों सम्यक्त्वमें सम्भव हैं ध.१/१.१,१६/१८२/७ उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भाव। --उपशमकके औपशमिक या क्षायिक भाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशम श्रेणीपर नहीं चढ़ सकता। ध. १/१,१,१८/१८८/३ उपशमकः औपशमिकगुणः क्षायिकगुणो वा द्वाभ्यामपि सम्यक्त्वाभ्यामुपशमश्रण्यारोहणसंभवाव । -उपशम श्रेणी वाला औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों भावोंसे युक्त है, क्योंकि दोनों ही सम्यक्त्वोंसे उपशम श्रेणीका चढ़ना सम्भव है।
२. उपशम श्रेणीसे नीचे गिरनेका नियम रा, वा./१०/१/३/६४०/८ उपशान्तकषाय.. आयुषः क्षयात् प्रियते। अथवा पुनरपि कषायानुदोरयन् प्रतिनिवर्तते । -उपशान्त कषायका आयुके क्षयसे मरण हो सकता है। अथवा फिर कषायोंकी उदीरणा होनेसे नीचे गिर जाता है। ध.१,६-८,१४/३१७/६ ओवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुहुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणसादो। -औपशमिक चारित्र मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि, अन्तर्महर्त कालसे ऊपर निश्चयतः मोहके उदयका कारण होता है। ल. सा./मू. व जी.प्र./३०४/३८४ अंतोमुत्तमैत्तं उवसंतकसायवीय
रायदार ...१३०४...ततः परं कषायाण नियमेनोदयासंभवाद । द्रव्यकर्मोदये सति संक्लेशपरिणामलक्षणभावकर्मणः तयो कार्यकारणभावप्रसिद्धः । = उपशान्त कषाय वीतराग ग्यारहाँ गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए तत्पश्चात द्रव्यकमके उदयके निमित्तसे संक्लेश रूप भाव प्रगट होते हैं।
३. उपशान्त कषायसे गिरनेका कारण व मार्ग ध.६/१,६-८,१४/३१७/८ उबसंतकसायरस पडिवादो दुविहो, भवक्खयणिमंधणो उक्सामणद्धाखयणिभंधणो चेदि । तत्थ भवक्त एण पडिव दिदस्स सव्वाणि करणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए चैव उग्घाडिदाणि। ...उवसंतो अद्धारखएण १दंती लोभे चेष पडिवददि, सुहमसापराइयगुणमर्गतूण गुणतरगमणाभावा । -उपशान्त कषायका' वह प्रतिपात दो प्रकार है-भवक्षयनिबन्धन और उपशमनकालक्षयनिबन्धन । इनमें भवक्षयसे प्रतिपातको प्राप्त हुए जीवके देवों में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें ही बन्ध, ... (गिरकर असंयत गुणस्थानको प्राप्त होता है। -दे० मरण/३) उपशान्त कषाय कालके क्षयसे प्रतिपातको प्राप्त होने वाला उपशान्त कषाय जीव लोभमें अर्थात सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानमें गिरता है, क्योंकि सूक्ष्म साम्पराधिक गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानोंमें जानेका अभाव है।
गो. क./जी. प्र./५५०/७४३/४ उपशान्तकषाये आ तच्चरमसमयं... क्रमेणावतरन्.. अप्रमत्तगुणस्थानं गतः । प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि कुर्वन् सक्लेशवशेन प्रत्याख्यानाचरणोदयादेशसंयतो भूत्वा पुनः अप्रत्याख्यानाबरणोदयादसंयतो भूत्वा च । -उपशान्त कषायके अन्तसमय पर्यन्त.. अनुक्रमसे उत्तर अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त हुआ। तहाँ अप्रमत्तसे प्रमत्तमें हजारों बार गमनागमन कर, पीछे संक्लेश वश प्रत्याख्यानावरण कर्मके उदयसे देशसंयत होकर -
अथवा अप्रत्याख्यानके उदयसे असंयत होकर...। ल. सा./जी. प्र./३०८,३१०/३६० उपशान्तकषायपरिणामस्य द्विविधः प्रतिपात: भवक्षयहेतुः उपशमनकालक्षयनिमित्तकश्चेति । .. आयु:क्षये सति उपशान्तकषायकाले मृत्वा देवासंयतगुणस्थाने प्रतिपतति । एवं प्रतिपतिते तस्मिन्नेवासयतप्रथमसमये सर्वाण्यपि बन्धनोदीरणासंक्रमणादीनि कारणानि नियमेनोद्घाटितानि स्वस्वरूपेण प्रवृत्तानि भवन्ति। यथारख्यातचारित्र विशुद्धिबलेनोपशान्तकषाय उपशमिताना तेर्षा पुनर्देवासंयते संश्लेशवशेनानुपशमनरूपोदघाटनसंभवात् ॥३०८। आयुषि सत्यद्धा क्षयेऽन्तर्मुहूर्तमानोपशान्तकषायगुणस्थानकालावसाने सति प्रतिपतत् स उपशान्तकषायः प्रथम नियमेन सूक्ष्मसापरायगुणस्थाने प्रतिपतति। ततोऽनन्तरमनिवृत्तिकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । तदन्वपूर्वकरणगुणस्थाने प्रतिपतति । ततः पश्चादप्रमत्तगुणस्थाने अधःप्रमत्तकरणपरिणामे प्रतिपतति । एवमधःप्रवृत्तकरणपर्यन्तमनेनैव क्रमेण नान्यथेति निश्चेतव्यम् । - उपशान्त कषायसे प्रतिपात दो प्रकार है-एक आयु क्षयमे, दूसरा कालक्षयने । १. उपशान्त कषायके कालमें प्रथमादि अन्त पर्यन्त समयों में जहाँ-तहाँ आयु के बिनाशसे मरकर देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थानमें गिरता है। तहाँ असंयतका प्रथम समय में नियमसे बन्ध, उदीरणा, संक्रमण आदि समस्त करण उघाड़ता है। अपने-अपने स्वरूपसे प्रगट वर्ते । यथारख्यात विशुद्धिके बलसे उपशान्त पाय गुणस्थानमें जो उपशम किये थे, उनका असंयत गुणस्थानमें संक्लेशके बलसे अनुपशमन रूप उघा. इना सम्भव है १३०८। २. और आयुके शेष रहनेपर कालक्ष्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र उपशान्त कषायका काल समाप्त होनेपर वह उपशामक गिरकर नियमसे सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है। फिर पीछे अनिवृत्तिकरणको प्राप्त होता है। और इसके पश्चाव कमसे अपूर्व करण, अधःप्रवृत्त करण रूप अप्रमत्तको प्राप्त होता है। अधःप्रवृत्त करण तक गिरनेका यही निश्चित क्रम है। [आगे यदि विशुद्धि हो तो ऊपरके गुणस्थानमें चढ़ता है, यदि संक्लेशतायुक्त हो तो नीचेके गुणस्थानको प्राप्त होता है । कोई नियम
नहीं है। (दे० सम्यग्दर्शन/IV/३/३)]। क्रमशःल. सा /जी. प्र./३१०-३४४ का भावार्थ-संक्लेश व विशुद्धि उपशान्त कषायसे गिरने में कारण नहीं है क्योंकि वहाँ परिणाम अवस्थिति विशुद्धता लिये है। वहाँसे गिरने में कारण तो आयु व कालक्षय ही है ।३१०। इन १०,६,८३ ७ गुणस्थानों में पृथक-पृथक क्रियाविधान उत्तरते समय प्रतिस्थान आरोहककी अपेक्षा दूनी अवस्थिति वा दूना अनुभाग हो है। स्थिति बन्धापसरणकी बजाय स्थितिबन्धोत्सरण हो है। अर्थात् आरोहकके आठ अधिकारोंसे उलटा
क्रम है। क्रमश:ल. सा./जी.प्र./३४५/४३६/१ विरताविरतगुणस्थानाभिमुखः सन्
संक्लेशवशेन प्राक्तनगुणण्यायामात संख्यातगुणं गुणश्रेण्यायाम करोति पुनः स एव यदि परावृत्योपशमकक्षपकश्रेण्यारोहणाभिमुखो भवति तदा विशुद्धिवशेन प्राक्तनगुणश्रेण्यायामात संख्यातगुणहानं गुणश्रेण्यायाम करोति । - उपशामक जीव गिरकर यदि विरताविरत
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०४-१०
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