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I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
श्रुतज्ञान
दोनों में प्रत्यक्ष परोक्ष मात्रका अन्तर है आप्त. मी./१०५ स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वे प्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च, ह्यवस्वन्यतमं भवेत् ॥१०५= स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों सर्व तत्वोंका प्रकाशन करनेवाले हैं। इन दोनों में केवल परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप जानने मात्रका भेद है। इन दोनों में से यदि एक हो, और
अन्यतम न हो तो, वह अवस्तु ठहरे। ( गो. जी./मू./१६६/७६५)। दे. अनुभव/४ श्रुतज्ञानमें केवल ज्ञानवद प्रत्यक्ष अनुभव होता है।
३. समन्वय ध, १५/१/४/४ मदिसुदणाणाण सव्वदव्य विसयत्तं किण्ण बुच्चदे, तासि मुत्तामुत्तासेसदव्वेप्नु वावारुवल भादो। ण एस दोसो, तेसि दव्वाणमण तेसु पज्जारसु तिकाल बिसएसु तेहि सामण्णेणावगए विसेससरूवेण वावाराभावादो। भावे वा केवलणाणेण समाणत्तं तेसिं पावेज्ज । ण च एवं, पंचणाणुवदेसस्स अभावप्पसंगादो।-प्रश्नमतिज्ञान व श्रुतज्ञान समस्त द्रव्योंको विषय करनेवाले हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते, क्योंकि उनका मूर्त व अमूर्त सर्व द्रव्यों में व्यापार पाया जाता है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन द्रव्यौंको त्रिकाल विषयक अनन्त पर्यायो में उन ज्ञानोंका सामान्य रूपसे व्यवहार नहीं है। अथवा यदि उनमें उनकी विशेष रूपसे भी प्रवृत्ति स्वीकार की जाय तो वे दोनों ज्ञान केवलज्ञानकी समानताको प्राप्त हो जावेगे। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर पाँच ज्ञानों का जो उपदेश प्राप्त है उसके अभावका प्रसंग आता है।
के उस सरीखा श्रुतज्ञानका भी निमित्तपना मनमें नहीं है। केवल सामान्य रूपसे उस मनका निमित्तपना तो मति और श्रुतके तदात्मकपनका गमन हेतु नहीं है। दे मतिज्ञान/३/१ ईहादिको अनि न्द्रियका निमित्तत्व उपचारसे है पर
श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय निमित्तक ही है। ४. श्रुतज्ञान व केवलज्ञानमें कथंचित् समानताअसमानता
१. श्रुत मी सर्व पदार्थ विषयक है दे अद्धि/२/२/३ केवलज्ञानके विषयभूत अनन्त अर्थको श्रुतज्ञान परोक्ष
रूपसे ग्रहण कर लेता है। दे, श्रुतज्ञान/२/५ केवलज्ञानको भाँति श्रुतज्ञान भी मनके द्वारा
त्रिकाली पदार्थोंको ग्रहण कर लेता है। प्र. सा./त.प्र./२३५ श्रमणानां ज्ञेयत्वमापद्यन्ते स्वयमेव, विचित्रगुणपर्यायविशिष्टसर्व द्रव्यव्यापकानेकान्तात्मकश्रुतज्ञानोपयोगी भूयो विपरिणमनात् । अता न किंचिदप्यागमचक्षुषामदृश्यं स्यात् ।-वे (विचित्रगुणपर्यायों सहित समस्त पदार्थ) श्रमणोंको स्वयमेव ज्ञेयभूत होते हैं, क्योंकि श्रमण विचित्र गुणपर्यायवाले सर्वद्रव्यों में व्यापक अनेकान्तात्मक श्रुतज्ञानोपयोग रूप होकर परिणमित होते हैं। इससे ( यह कहा है कि) आगम चक्षुओंको आगम रूप चक्षु
बालोंको कुछ भी अदृश्य नहीं है। प्र. सा./ता. वृ./गा./पृ./ प. अत्राह शिष्यः-आत्मपरिज्ञाने सति सर्वपरिज्ञान भवतीत्यत्र व्याख्यानं, तत्र तु पूर्वसूत्रे भणितं सर्वपरिज्ञाने सत्यात्मपरिज्ञानं भवतीति । यद्यवं तहि छद्मस्थानां सर्वपरिज्ञानं नास्त्यात्मपरिज्ञानं कथं भविष्यति। आत्मपरिज्ञानाभावे चात्मभावना कथ । तदभावे केवलज्ञानोत्पत्तिस्तिीति। परिहारमाहपरोक्षप्रमाणभूतश्रुतज्ञानेन सर्व पदार्था ज्ञायन्ते। कथमिति चेतलोकालोकादिपरिज्ञान व्याप्तिज्ञानरूपेण छद्मस्थानामपि विद्यते, तच्च व्याप्तिज्ञान परोक्षाकारेण केवलज्ञानविषयग्राहकं कथंचिदास्मैव भण्यते। (४६/६५/१३) सर्वे द्रव्यगुणपर्यायाः परमागमेन ज्ञायन्ते। कस्मात् । आगमस्य परोक्षरूपेण केवलज्ञानसमानत्वात् पश्चादागमाधारेण स्वसंवेदनज्ञाने जाते स्वसंवेदनज्ञानबलेन केवलज्ञाने च जाते प्रत्यक्षा अपि भवन्ति । (२३५/३२५/१३.)। प्रश्न - आत्माके जाने, जानेपर सर्व जाना जाता है, ऐसा यह व्याख्यान है, और पूर्व सूत्र में सर्वका ज्ञान होनेपर आत्माका ज्ञान होता है, ऐसा है तो छद्मस्थोंके सर्वका ज्ञान तो होता नहीं है, तो आत्मज्ञान कैसे होगा 1 और आत्मज्ञानके अभावमें आत्माकोभावनाकै सेसम्भव है, तथा भावनाके अभावमें केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। उत्तर-परोक्ष प्रमाणभूत श्रुतज्ञानके द्वारा सर्व पदार्थ जाने जाते हैं, क्यों कि लोकालोकका परिज्ञान व्याप्ति रूपसे छदस्थोंके भो पाया जाता है। और वह केवल ज्ञानको विषय करनेवाला व्याप्ति ज्ञान परोक्ष रूपसे कथंचित आत्मा ही है। सर्व द्रव्य गुण और पर्याय परमागमसे जाने जाते हैं, क्योंकि आगमके परोक्षरूपसे केवलज्ञानसे समानपना होने के कारण, आगमके आधारसे पीछे स्वसंवेदन ज्ञानके हो जानेपर, और स्वसंवेदन ज्ञानके बल से केवलज्ञानके हो जानेपर समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष भी हो जाते हैं। पं. का./ता. वृ./६६/१५६/६४ यत्पुनादशाङ्गचतुर्दशपूर्वरूपपरमागमसंज्ञं तच्च मूर्तामूर्तोभयपरिच्छित्तिविषये व्याप्तिज्ञानरूपेण परोक्षमपि केवलज्ञानसशमित्यभिप्रायः । द्वादशांग अर्थात् १२ अंग चौदह पूर्वरूप परमागम संज्ञावाला द्रव्य श्रुत है, वह मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकारके द्रव्यों के ज्ञानके विषयमें परोक्ष होनेपर भी व्याप्त ज्ञान रूपसे केवलज्ञानके सदृश है, ऐसा अभिप्राय है। दे. श्रुतज्ञान/1/२/४ श्रुतज्ञान सर्व पदार्थ विषयक है। .
५. मति श्रुत ज्ञानकी कथंचित् प्रत्यक्षता-परोक्षता
१. मति श्रुत ज्ञान कथंचित् परोक्ष हैं प्र. सा./मू./५७ परदवं ते अक्रवाणेव सहाबोत्ति अप्पाणो भणिदा। उबलद्धं तेहि कधं पच्चक्खं अपणो होंति ॥५७ वे इन्द्रियाँ पर द्रव्य हैं, उन्हें आत्मस्वभाव स्वरूप नहीं कहा है । उनके द्वारा ज्ञात
आत्माका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। स. सि./१/११/१०१।६ अतः पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बायनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो मतिश्रुतं उत्पद्यमानं परोक्षमित्याख्यायते । - मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले आत्माके इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपदेशादिक वाह्य मिमित्तोंकी अपेक्षा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं अतः ये परोक्ष कहलाते हैं । (रा.वा./१/११/६/५२/२४ ) (और भी दे. परोक्ष/४)। के पा./१/१-१/६१६/२४/३ मति-सुदणाणाणि परोक्खाणि, पाएण तत्थ
अविसदभावदसणादो । मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि इन दोनों में प्रायः अस्पष्टता देखी जाती है । २. इन्द्रिय ज्ञानको प्रत्यक्ष माननेमें दोष स. सि./१/१२/१०३/७ स्यान्मतमिन्द्रियव्यापारजनित ज्ञान प्रत्यक्ष व्यतीतेन्द्रियविषयव्यापार परोक्षमित्येतदविसंवादि लक्षणमभ्युपगन्तव्यमिति । तदयुक्तम, आप्तस्य प्रत्यक्ष ज्ञानाभावप्रसङ्गात् । यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञान प्रत्यक्षमिष्यते एवं सति आप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः। अथ तस्यापि करणपूर्वकमेव ज्ञानं कलप्यते, तस्यासर्वज्ञत्वं स्यात् । तस्य मानसं प्रत्यक्षमिति चेत; मनःप्रणिधानपूर्वकत्वात ज्ञानस्य सर्वज्ञत्वाभाव एव । आगमतस्त सिद्धिरिति चेत् । नः तस्य प्रत्यक्षज्ञानपूर्वकत्वात । यो गिप्रत्यक्षमन्यज्ज्ञानं दिव्यमप्यस्तीति चेत् । न तस्य प्रत्यक्षत्वं; इन्द्रियनिमित्तत्वाभावात : अक्षमक्षं प्रति यद्वर्तते तत्प्रत्यक्ष मित्यभ्यु
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