________________
६८
44
समरायश्चिन्त्यते स चतुर्विधयक्षेत्रकाभावः तत्र धर्माधर्माका काका जीवन तुल्या संख्येयप्रदेशत्वात् एकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनाद द्रव्यसमवायः । व्याख्याप्रो टिम्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीवः नास्ति इत्येवमादोनि निरूप्यते ज्ञातृधर्मकथा आपल्या महुप्रकाराणां कथनम् । उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । ... ऋषभादीनां तीर्थेषु दश दशानागरा दशदश दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्ते इति अन्तकृद्दशा । .. एवमृषभादीनां तीर्थेषु दवा दश अनागारा दश दश दारुगानुप सर्गनिजि विजयाद्यनुसरेपन्ना इत्येवमनुत्तरोपपादिकाः दशास्यां मयत इत्यनुपपादिकदशा प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम्, तस्मिल्लौकिकवैदिकानामर्थानां निर्णयः विपाकसूत्रे सुकृतदुकृतानां विपाकश्चिन्त्यते द्वादशम दृश्यादइष्टि शतान या पितरानी प्ररूपण निग्रहस्य। - आचारोग में चर्याका विधान काठ शुद्धि पाँच समिति दोन गुप्ति आदि रूपसे वर्णित है ज्ञान-विनय, क्या य है क्या है घेोपस्थापनादि व्यवहारधर्मको क्रियाओंका निरूपण है। स्थानांग में एक-एक दो-दो आदिके रूपसे अर्थोका वर्णन है। समवार्यागमें सब पदार्थोंकी समानता रूपसे समवायका विचार किया गया है। जैसे धर्म-अधर्म लोकाकाश और एक जीवके तुल्य असंख्यात प्रदेश होनेसे इनका द्रव्यरूपसे समवाय कहा जाता है। ( इसी प्रकार यथायोग्य क्षेत्र, काल, व भावका समवाय जानना) व्याख्याप्रज्ञप्तिमें 'जीव है कि नहीं' आदि साठ हजार प्रश्नोंके उत्तर हैं। ज्ञातुधर्मकथा अनेक आख्यान और उपाख्यानोंका निरूपण है। उपासकाध्ययनमें धावकधर्मका विशेष विवेचन किया गया है। अन्तकृदशांग प्रत्येक तीर्थकरके समयमे होने वाले उन दश दश अन्तकृत केवलियोंका वर्णन है जिनने भयंकर उपसगको सहकर मुक्ति प्राप्त को ... अनुसारोपपादिकदश में श्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले उन दश-वश मुनियोंका वर्णन है। जिनने दारुण उपसर्गों को सहकर... पाँच अनुत्तर विमानों में जन्म लिया। प्रश्न व्याकरणमें युक्ति और नयोंके द्वारा अनेक आक्षेप और विशेष रूप प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है। विपाक-सूत्र में पुण्य और पापके विपाकका विचार है। बारहवाँ दृष्टि प्रवाद अंग है. इसमें २६३ मतोंके निरूपण पूर्वक लण्डत है ( २६३ मतोंके लिए दे० एकान्त / २ / २) (ह./१०/२७-४६), (थ. १/१.१.२/६१-१०६). (४१७-२०३ (पी. जी. जी. १/२५६३४७/७६०-७६६)।
श्रुतज्ञान
+
२. दृष्टिवादके प्रथम तीन भेदोंके लक्षण
घ. १/१.१.२/१०१-१९१/४ तस्स पंच अत्याहियरा हमेत परिय तपाभियोगबूलिया चेदिपरियविहं से जहा चंदपणासी सुरपणी जंमुदीवासी दोवसायपापणी दिनाम..चंदापरिवारिद्धि गहन कुश सूरत...सुरस्यायु भोगोवभोग परिवार यह बिस्सेह विकिर कुण दीपति... जंबूदीचे पाणानि मया भोगक भूमियाणं अण्णेसिं च पव्वद दहणवण्णणं कुणइ । दीवसायरप पत्तदोवसायरमाणं अण्णंवि दीवसायरं तम्भूदत्थं महुभेयं वण्णेदि । विवाहपणची नाम अजीवदन्वं भवसिद्धियय राशि
·
'
दि सु... अमले अवता अमोला जिन्गुणो ...अपेति मेदिपमानियागो पंच सहस्सपदेहि... पुराणं ममेदिहिवदके पाँच अधिकार है, परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग, पूर्वगत और पूलिका उनसे चन्द्रग्रह सूर्य जम्बूद्वीपमति द्वीपसागरप्रति और व्याख्यासि इस तरह
+
Jain Education International
11 सब्द लिंग श्रुतज्ञान विशेष
परिकर्म के पाँच भेद है। चन्द्रमति नामका परिकर्म चन्द्रमाकी आयु, परिवार, ऋद्धि, गति और बिम्बकी ऊँचाई आदिका वर्णन करता है। सूर्य सूर्यकी आयु, भोग, उपभोग, परिवार, ऋद्धि, गति, बिम्बकी ऊँचाई आदिका वर्णन करता है । जम्बूद्वीप प्रज्ञति जम्बूद्वीपस्थ भोगभूमि और कर्मभूमि में उत्पन्न हुए नाना प्रकारके मनुष्य तथा दूसरे तिथंच आदिका पर्वत, द्रह, नदी आदिका वर्णन करता है। सागर प्रज्ञप्ति नामका परिकर्म द्वीप और समुद्रोंके प्रमाणका तथा द्वीपसागर के अन्य नानाप्रकार के दूसरे पदार्थोंका वर्णन करता है व्याख्या पुग धर्म, अधर्म, आकाश और काल भव्यसिद्ध और अभव्यसिध जीव, इन सबका वर्णन करता है। सूत्र नामका अर्धाधिकार जीव अवन्धक ही है, अलेक हो है ही है. अभोक्ता ही है. इत्यादि रूपये ३६३ मतोंका पूर्वपक्ष रूपसे वर्णन करता है। ( ३६३ मतोंके लिए दे० एकान्त/५/२) प्रथमानुयोग पुराणोंका वर्णन करता है (ह. पु०/१०/६१-०१), (घ. ६/४, १.४३ / २०६ - २०६). (गो. जी. / जी. म./१६१-२६२/०७२ ) ।
३. दृष्टिवाद के चौथे भेदः पूर्वगतके १४ भेद व लक्षण श. मा./१/२०/१२/~७४/११ से ७०/२ तक पूर्व चतुर्दशत्रकार ...जीवानां यथा यत्र यथा च पर्यायेोत्पाद ब तदुपादपूर्व क्रियावादादोनां प्रक्रिया अद्रायणीय अद्गादीनां स्वसमय यत्र स्थापितस्तदप्रायण केसिनीसुरेन्द्र दैत्याधिपानी शुद्धयो नरेन्द्रचक्रधरमलदेवानां च वीर्यलाभों द्रव्याणां सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं तद्वीर्यप्रवादम् । पञ्चानामस्तिकायानामय नयानां चानेकपर्यायै यत्रावभासितं हस्तिनास्तिप्रमादम्। पश्चानामपि ज्ञानानां इन्द्रियाणां च प्राधान्येन यत्र विभागो विभावितः तज्ज्ञानप्रवादय मानिसंस्कारकारणत्रयोगी द्वादशधा भाषावक्तारश्चानेकप्रकारमृषाभिधानं यत्र प्ररूपितः तव सत्यप्रवादम् ।...यत्रात्मनोऽस्तित्वनास्तित्व धर्माः षड्जीवनिकायभेदाश्च युतितो निर्दिशः मोदोषदामनिर्भ पर्याया स्थितिरपत्र निर्दिश्यतेामत-नियमप्रतिक्रमणश्रामण्य कारणं च परिमितापरिमिताद्रव्यभावप्रत्याख्यानं च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । .... अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयो रज्जुराशिविधिः क्षेत्र श्रेणी दोकप्रतिष्ठा संस्थान समुद्रयातश्च पत्र कथ्यते तद्वियानुनाद ...रविशशि मनक्षत्रहाराणां चारोपपादयतिविपर्ययफलानि शकुन व्याहृतम् अमलदेव वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहात्मानि
यत्रोतानि तद्यानामधेय कायचिकित्साद्यहाआयुर्वेदः भूतिकर्म-वाङ्गुलिकप्रक्रमः प्राणापान विभागोऽपि यत्र विस्तारेण मस्तिद प्राणानायम् देखादिका: कलाद्वासप्ततिः, गुणारचतुःषष्टिस्त्रेणाः, शिल्पानि काव्यगुणदोषक्रियान्दोविचित कियाोकार व व्याख्याताः क्रियाविशाल यत्रा व्यवहाराचत्वारि बीजानि परिकर्मराशिक्रियाविभागश्च सर्व
भिन्दुसार पूर्वगतके उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेद है-उत्पाद जीवादिका जहाँ जम जैसा उत्पाद होता है उसका वर्णन है। अप्रावणी पूर्व क्रियामार आदिको प्रक्रिया और स्वाविवेचित है। पाद उग्रस्थ और केवली की शक्ति सुरेन्द्र असुरेन्द्र आदिको ऋद्धियाँ नरेन्द्र चक्रवर्ती बलदेव आदिकी सामर्थ्य द्रव्योंके लक्षण आदिका निरूपण है। अस्तिनास्तिप्रवादमें पाँचों अस्तिकायोंका और नयाँका अस्ति नास्ति आदि अनेक पर्यायों द्वारा विवेचन है। ज्ञानप्रमादमें पाँचों ज्ञानों और इन्द्रियोंका विभाग आदि निरूपण है। .... सत्यप्रवाद पूर्व में बारगुप्ति, वचन संस्कार के कारण, वचन प्रयोग बारह प्रकारकी भाषाएँ, दस प्रकारके सत्य, वक्ता के प्रकार आदि
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
..
For Private & Personal Use Only
..
www.jainelibrary.org