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श्रुतज्ञान
III शब्द लिंगज श्रुतज्ञान विशेष
का विस्तारसे विवेचन है । .. आत्म प्रवादमें आत्म द्रव्यका और छह जीव निकायोंका अस्ति-नास्ति आदि विविध भंगोंसे निरूपण है। कर्मप्रवादमें कर्मोको बन्ध उदय उपशम आदि दशाओंका
और स्थिति आदिका वर्णन है। प्रत्याख्यान मवादमै ब्रत-नियम, प्रतिक्रमण, तप, आराधना आदि तथा मुनित्वमें कारण द्रव्योंके त्याग आदिका विवेचन है। विद्यानुवाद पूर्व में समस्त विद्याए आठ महा निमित्त, रज्जुराशिविधि, क्षेत्र, श्रेणी, लोक प्रतिष्ठा, समुद्वघात आदिका विवेचन है। कल्याणवार पूर्वमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारागणोंके चार क्षेत्र, उपपादस्थान, गति, बक्रगति तथा उनके फलोंका, पक्षीके शब्दोंका और अरिहन्त अर्थाद तीर्थकर, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदिके गर्भावतार आदि महाकल्याणकोंका वर्णन है। प्राणावाय पूर्व में शरीर चिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म, आंगुलिकक्रम (विष विद्या)
और प्राणायामके भेद-प्रभेदोंका विस्तारसै वर्णन है । क्रिया विशाल पूर्व में लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बन्धी चौंसठ गुणोंका, शिल्पकलाका, काव्य सम्बन्धी गुण-दोष विधिका
और छन्द निर्माण कलाका विवेचन है । लोकबिन्दुसारमें आठ व्यवहार, चार बीज, राशि परिकर्म आदि गणित तथा समस्त श्रुतसम्पत्तिका वर्णन है । (ह.पु./१०/७५-१२२); (ध.१/१,१,२/११४-१२२), (ध.१/४,१,४५/२१२-२२४/१२); (गो.जी./जी. प्र./६६५-६६६/७७८ )। ४. दृष्टिवादके ५ भेद रूप ५ चूलिकाओंके लक्षण ध.१/१,१,२/११३/२ जलगया...जलगमण-जलत्थ भण कारण-मंत-संततवच्छरणाणि वण्णेदि । थलगया णाम.. भूमि-गमण-कारण-मंत-तंततवच्छरणाणि अत्यु-विवं भूमि-संबंधमण्णं पि सुहासुह-कारणं यण्णेदि । मायागया.. इंदजालं वण्णेदि । रूवगया...सीह-हयहरिणादि-रूवायारेण परिणमण-हेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्तकट्ठ-लेप्प-लेण-कम्मादि-लवरवणं च बण्णेदि। आयासगया णाम... आगास-गमण णिमित्त-मंत-तंत तवच्छरणाणि वण्णेदि । - जलगता वृलिका-जल में गमन, जलस्तम्भनके कारण भूत मन्त्र तन्त्र और तपश्चर्या रूप अतिशय आदिका वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका-पृथिवीके भीतर गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदिका तथा वास्तु विद्या और भूमि सम्बन्धी दूसरे शुभ-अशुभ कारणोंका वर्णन करती है। मायागता चूलिकाइन्द्रजाल आदिके कारणभूत मन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। रूपगता चूलिका-सिंह, घोड़ा और हरिण आदिके स्वरूपके आकार रूपसे परिणमन करनेके कारणभूत मन्त्र-तन्त्र और तपश्चरण तथा चित्र-काष्ठ-लेप्य-लेन कर्म आदिके लक्षणका वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका-आकाशमें गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। (ह.पू./१०/१२४): (ध.६/४,१,४५/२०१-२१०); (गो, जी./जी.प्र./३६१३१२/७७३/५)।
५. अंग बाह्यके भेदोंके लक्षण ध, १/१,१,२/१६-१८/९ जं सामाश्यं तं णाम ठवणा-दब्बवनेत्त-कालभावेसु-समत्त विहाणं बण्णेदि। चउवीसत्थओ चउवीसह तित्थयराणं वेदण-विहाण-तण्णाम संठाणुस्सेह-पंच-महाकल्लाण-चोत्तीसअइसयसरूवं तिस्थयर-वंदणाए सहलस च वण्णेदि। वंदणा एगजिण-जिणालय-विसय-बंदणार हिरवज्ज-भावं धणे । पठिकमणं काल पुरिसं च अस्सिऊण सत्तविह-पडिकमणाणि वण्णेइ । वेणश्य णाण-दसण-चरित्त-तवोक्यारविणए वण्णेइ। किदियम्मं अरहंतसिद्ध-आइरिय-महुसुद-साहूणं पूजाविहाणं वण्णेइ । दसवेयालिय आयार-गोयर-विहिं वण्णेई । उत्तरम्झयणं उत्तर-पदाणि वण्णेइ । कम्पबबहारो साहूणं लोग्गमाचरणं अकप्प-सेवणाए पायच्छित्तं च
वण्णेइ । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि ज च ण कप्पदि तं सव्व वणे दि। महाकप्पियं कालसंघडणाणि अस्सिऊण साहु-पाओग्गदन-खेत्तादीण वण्णणं कुणइ । पुंडरीयं चउबिह-देवेमुववादकारणअणुष्वाणाणि वण्णेइ । महापुंडरीयं सयलिंद-पडिइंदे उप्पत्तिकारणं वण्णेइ । णिसिहियं बहुविह-पायच्छित्त-विहाण-वण्णणं कुणइ । सामायिक नामका अंगबाह्य समता भावके विधानका वर्णन करता है। चतुर्विशति स्तव चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करनेकी विधि, उनके नाम, संस्थान, उत्सेध, पाँच महाकल्याणक, चौंतीस अतिशयोंके स्वरूप और तीर्थंकरों की वन्दनाकी सफलताका वर्णन करता है। बन्दना एक जिनेन्द्र देव सम्बन्धी और उन एक जिनेन्द्र देवके अबलम्बनसे जिनालय सम्बन्धी वन्दनाका वर्णन करता है। सात प्रकारके प्रतिक्रमणोंका प्रतिक्रमण वर्णन करता है। वैनयिक पाँच प्रकारको बिनयोका वर्णन करता है। कृतिकर्म अरहन्त, सिद्ध आचार्य और साधुको पूजा विधिका वर्णन करता है। दश वैकालिकोंका दशवकालिक वर्णन करता है। तथा वह मुनियोंकी आचार विधि और गोचरविधिका भी वर्णन करता है। जिसमें अनेक प्रकारके उत्तर पढनेको मिलते हैं उसे उत्तराध्ययन कहते हैं। इसमें चार प्रकारके उपसर्ग कैसे सहन करने चाहिए। बाईस प्रकारके परिषहाँको सहन करनेकी विधि क्या है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तरोंका वर्णन किया गया है। कल्प्य व्यवहार साधुओंके योग्य आचरणका और अयोग्य आचरणके होने पर प्रायश्चित्त विधिका वर्णन करता है। कल्प्याकल्प्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है और यह अयोग्य है' इस तरह इन समका वर्णन करता है। महाकल्प्य काल और संहननका आश्रय कर साधुके योग्य द्रव्य और क्षेत्रादिका वर्णन करता है। पुण्डरीक भवनवासी आदि चार प्रकारके देवों में उत्पत्तिके कारण रूप, दान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानोंका वर्णन करता है। महापुण्डरीक समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रों में उत्पत्ति के कारण रूप तपो विशेष आदि आचरणका वर्णन करता है। निषिद्धि अर्थात बहुत प्रकारके प्रायश्चित्तके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको निषिद्धिका कहते हैं। (ह. पु./१०/१२६-१३८); (ध. ६/४,१,४५/१८८ १६१): (गो. जी./जी.प्र./३६७-३६/७८६) ।
२. शब्द लिंगज निर्देश
१. बारह अंगोंमें पद संख्या निर्देश (ह. पु./१०/२७-४५): (ध. १/१,१.२/१६-१०७), (च.६/४,१,४५/१९७
२०३); (गो. जी./जी.प्र./३५६-३६०/७६०-७७०)।
नाम
पद संख्या
क्र.
नाम
पद संख्या
आचारांग सूत्रकृतांग | स्थानांग
११७०००० २३२८०००
| समवायोग व्याख्या प्र० ((श्वे:भगवतीसूत्र ज्ञातधर्मकथा
१८००० उपासकाध्ययन ३६००० अन्तकृदशांग ४२००० |8अनुत्तरोपपादिक
दशांग १६४०००१० प्रश्न व्याकरण २२८०००११ विपाक सूत्र
१२ दृष्टिबाद ५६०००
कुलपद
६२४४००० ६३१६००० १८४००००० १०८६८५६०५
६॥
११२८३५८०
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