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श्रुतज्ञान
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ग्रहणास्त्राध्ययनादि तन्मूलख्या अनक्षरारम सिद्धानं एकेपिचेन्द्रियपर्यन्तेषु विद्यमानमपि व्यवहारानुपयोगित्वादप्रधानं भवति । श्रुतज्ञानके भेदोंके मध्य शब्द लिंगज अर्थात् अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य आदि रूप दादसे उत्पन्न हुआ जो अक्षरात्मक श्रुतज्ञान वह प्रधान है, क्योंकि लेना, देना, शास्त्र पढ़ना इत्यादि सर्व व्यवहारोंका मूल अक्षरात्मक ज्ञान है। और जो लिंग अर्थात् चिह्नसे उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान है वह एकेन्द्रिय कर सकके जीवोंमें होता है किन्तु उससे कु व्यवहारकी प्रवृत्ति नहीं होती, इसलिए वह अप्रधान होता है।
८. य व भावश्रुत भाववकी प्रधानत
- इस सूत्र -
श्लो. वा. ३/१/२० श्लो १७/६०८ मुख्या ज्ञानात्मका भेदप्रभेदास्तस्य सूत्रताः । शब्दात्मकाः पुनगणाः श्रुतस्येति विभिद्यते । - मैं ज्ञान भेदप्रभेद मुख्य रूपसे तो ज्ञान स्वरूप सूचित किये जाते हैं। हाँ, फिर दाभेद तो गौ रूपसे कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुतके मुख्यरूपसे ज्ञानस्वरूप और गौण रूपसे शब्द स्वरूप विशेष भेद लेने चाहिए ।
९. तज्ञान केवल शब्दज नहीं होता
श्लो. बा./३/१/२०/८६/६३४ / २२ अथ शब्दानुयोजनादेव श्रतमिति नियमस्तदा ओमतिपूर्वकमेव चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धान्तविरोधः स्यात्सव्यवहारिक ज्ञानं श्रतमित्यपेक्षया तथा नियमे तु वाचास्ति चरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रतस्य परमार्थाभ्युपगमात् स्वसमयप्रतिपत्तेः ।
श्लो. वा. ३/१/२०/११६/६५२/१४ श्रुतं शब्दानुयोजनादेव इत्यवधारणश्याकतङ्काभिप्रेतस्य कदाचिद्वरोधाभावाद तथा संप्रदायस्या विच्छेद कायनुग्रहारच सर्वमतिपूर्वकस्यापि तस्याज्ञानत्व व्यवस्थितैः । - १. प्रश्न- शब्द की अनुयोजना से ही अस होता है, इस प्रकार नियम किया जायेगा तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानस्वरूप निमित्त से ही तो श्र ुतज्ञान हो सकेगा। चक्षु आदि इन्द्रियों से श्र ुतज्ञान नहीं हो सकेगा। उक्त प्रकार सिद्धान्तसे विरोध आवेगा । उत्तर- सांव्यवहारिक ज्ञान है। इस अपेक्षासे नियम किया जायेगा, तब तो इष्ट सिद्धान्तसे कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि चक्षु आदि से उत्पन्न हुए मतिज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुए भी अटोको परमार्थ रूपसे श्री अ देवने स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार अपने सिद्धान्तकी प्रतिपत्ति हो जाती है। २. शब्दको अनुयोजनासे ही भूत होता है, इस प्रकार भी अकशंक देवको अभिप्रेत हो रहे अवधारणका कभी भी विरोध नहीं पड़ता है।... पूर्व से चली आ रही तिस प्रकारको आम्नायोंकी नहीं हुई है। इस कारण सम्पूर्ण मतिज्ञानों को पूर्ववर्ती कारण मानकर श्रुतको अक्षरज्ञानपना व्यवस्थित हो गया है।
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३. मतिज्ञान व श्रुतज्ञानमें अन्तर
१. दोनों में कथंचित् एकता
दे. श्र तज्ञान/T/२/२ (मति पूर्वक उत्पन्न होता है । ) रा.वा./१/१/१६/४०/२७ मतितयोः परस्परापरित्यागः यत्र मतिस्त
श्र ुतं यत्र भूतं तत्र मतिः' इति । मति श्रुतका विषय, बराबर है और दोनो सहभावी हैं, जहाँ मति है, वहाँ श्र ुत है, जहाँ श्र ुत है वहाँ मति है ।
रा. वा. / २ /३० / ४/१०/२५ एते हि मतिश्रुते सर्वकालमव्यभिचारिणी नारदपर्वत । तस्मादनयोरन्यतरग्रहणे इतरस्य ग्रहणं संनिहितं भमति। -मति और त सदा अव्यभिचारी है. नारद पती तरह एक दूसरेका साथ नहीं छोड़ते, अतः एकके ग्रहणसे दूसरेका ग्रहण ही हो जाता है।
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1 बुतज्ञान सामान्य निर्देश
२. मति व तज्ञानमें भेद
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स.सि./१/२०/१२०/- यदि मतिपूर्व श्रुतं तदपि मध्यात्मक प्राप्नोति कारणसदृशं हि लोके कार्य दृश्य इति नैकान्तिकदण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मकः । अपि च सति तस्मिंस्तदभावात् । सत्यपि मतिज्ञानेनाह्मज्ञाननिमित्त निधानेऽपि प्रमघुसावरण दयस्य श्रुताभावः । श्रुतावरणक्षयोपशमत्रवर्षे तु सति श्रुतज्ञानमुत्पद्यत इति मतिज्ञानं निमित्तमात्रं शेय प्रश्न यदि ज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है तो वह श्रुतज्ञान भी मध्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोकमें कारणके समान ही कार्य देखा जाता है ? उत्तर- यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घटकी उत्पत्ति दण्डादिकसे होती है तो भी वह दण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरे, मतिज्ञानके रहते हुए भी सज्ञान नहीं होता। यद्यपि मतिज्ञान रहा आता है और श्रुतज्ञानके बाह्य निमित्त भी रहे आते हैं तो भी जिसके श्रुत ज्ञानावरणका प्रबल उदय पाया जाता है, उसके श्रुतज्ञान नहीं होता। किन्तु राज्ञानका प्रकर्ष क्षयोपशम होनेपर ही
ज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति में निर्मित मात्र जानना चाहिए । (रा. मा./१/२०/३-४/००/१०:७-०/०१/३१)।
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रा. वा./१/१/२१-२६/४०१२ महिलयोरेकस्वम् साहचर्यादिकत्राय स्थानाचा विशेषाय २१॥ नः अतरससि यत एवं मतितयोः साहचर्यमेवस्थानं योग्य अत एव विशेषः सिद्धः प्रतिनियतविशेषसिद्धयोर्हि साहचर्य मेकत्रावस्थानं च युज्यते नान्यथेति २२| तत्पूर्वकत्वाच्च । ततश्चानयोर्विशेषः । यत्पूर्वं यच पश्चात्तयोः कथमविशेषः | १२३॥ तत एवाविशेषः कारणसदृशत्वात् युगपदवृत्तेरचेति चेत् न कि कारण यो साहश्य युगपड़वृत्तिरति ॥२४ स्यादेतद विषयाविशेषाय मतिश्रुतिरेकस्वम् । एवं हि वक्ष्यते मतियनिक द्रव्येषु (त. सू./१/२६ ) इति; तन्नः किं कारस् । ग्रहणभेदात् । अन्यथा हि मत्या गृहाते अन्यथा तेन ॥२३॥ स्वादेतत् उभयोरन्द्रियानिन्द्रियमिपाकर कि कारणम् असिया जिवा हि शब्दोच्चारक्रियाया निमित्तं न ज्ञानस्य श्रवणमपि स्वविषयमतिज्ञाननिमित्तं न तस्य हरदुभयनिमित्तत्वमसि प्रश्नचूंकि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों सहचारी हैं, और एक व्यक्तिमे युगपत् पाये जाते हैं, अतः दोनों में कोई विशेषता न होने से दोनोंको एक ही कहना चाहिए। उत्तर- साहचर्य तथा एक व्यक्तिमें दोनोंके युगपत् रहनेसे ही यह सिद्ध होता है कि दोनों जुदेजुदे हैं, क्योंकि दोनों बातें भिन्न सत्तावाले पदार्थोंमें ही होती है । मतिपूर्वक श्रुत होता है, इसलिए दोनोंकी कारण-कार्यरूपसे विशेषता सिध है ही प्रश्नकारणके सदा ही कार्य होता है, चूंकि मंतिपूर्वक हुआ है, अतः उसे भी मतिरूप ही कहना श्रुत चाहिए। सम्यग्दर्शन होनेपर कुमति और कुतको युगपदज्ञानव्यपदेश होता है अतः दोनों एक ही कहना चाहिए ? उत्तर- यह प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि जिन कारण सशस्त्र और युगपदवृत्ति हेतुओंसे आप एक सिद्ध करना चाहते हो उन्होंसे उनमें भिन्नता सिद्ध होती है। सादृश्य और युगपदवृत्ति पृथसिद्ध पदार्थोंमें ही होते हैं। प्रश्न- पति और श्रुतज्ञानका विषय एक होनेसे दोनों में एकव है - ऐसा कहा गया है कि- मतिज्ञान व श्रुतज्ञानकी सम्पूर्ण इव्योंमें एक देश रूपसे प्रवृत्ति होती है। (त.सू./१/५३) उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि दोनों के जाननेके प्रकार जुदा-जुदा हैं। प्रश्नमति और श्रुत दोनों इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए दोनों में एकस्व है 1 उत्तर- एक कारणता असिद्ध है । ताकी जीभ शब्द उच्चारणमें कारण होती है न कि ज्ञानमें।
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