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[ श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
भुतज्ञान
प्रत ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे...जो मूर्तिक अमूर्तिक वस्तुको ..मोथा अलोकको व्याप्ति ज्ञान रूपसे अस्पष्ट जानता है उसको
शुतज्ञान कहते हैं। गो.जी./जी.प्र./३१४१६७३,१६ श्रूयते श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यते इति श्रुतः
शब्दः, तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमिति व्युत्पत्तरपि अक्षरात्मकप्राधान्याश्रयणात्। -जो सुना जाता है उसको शब्द कहते हैं, शब्दसे उत्पन्न ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। इस अर्थ में अर्थात्मक श्रुतज्ञान ही प्रधान हुआ, अथवा श्रुत ऐसा रूढि शब्द है। २. अयेसे अर्थान्तरका ग्रहण पं.स /प्रा./१/१२२ अस्थाओ अत्यंतर उवलंभे त भणं दि सुयणाणं ।
तिज्ञानसे जाने हुए पदार्थ के अवलम्बनसे तत्सम्बन्धी दूसरे पदार्थका जो उपलम्भ अर्थात् ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते है ।१२२। (ध. १/१.१.१९५/गा. १८३/३५६); (गो.जी./मू./३१५/६७३); (न. च./गद्य/३६/६) रा.वा./१/8/२७-२६/पृ./पं. इन्द्रियानिन्द्रियबलाधानात पूर्वमुपलब्धेऽथे नोइन्द्रियप्राधान्यात यदुत्पद्यते ज्ञानं तत् श्रुतम् (४८/२१)। एक घटमिन्द्रियानिन्द्रियाभ्यां निश्चित्यायं घट इति तज्जातोयमन्यमनेकदेशकालरूपादिविलक्षणमपूर्वमधिगच्छति यत्तत् श्रुतम (४८/३४) । अथवा इन्द्रियानिन्द्रियाभ्यामेकं जीवमजीवं चोपलभ्य तत्र सत्संख्या.. आदिभिः प्रकार रर्थप्ररूपणे कर्तव्ये यत्समर्थ तत श्रुतम् (१६/१) । ०१. शब्द सुननेके बाद जो मनकी ही प्रधानतासे अर्थ ज्ञान होता है वह श्रुत है। २. एक घड़ेको इन्द्रिय और मनसे जानवर तज्जातीय विभिन्न देशकालवर्ती घटों के सम्बन्ध जाति आदिका जो विचार होता है वह श्रुत है। ३. अथवा श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मनके द्वारा एक जीवको जानकर उसके सम्बन्ध के सत संख्या ...आदि अनुयोगों के द्वारा नाना प्रकारसे प्ररूपण करनेमें जो समर्थ
होता है वह श्रुतज्ञान है। ध, १/१,१,२/६३/५ सुदणाणं णाम मदि-पृव्वं मदिणाणपडिगहियमत्थं मोत्तूणण्णस्थम्हि वावद सुदणाणावरणीय-वयोवसम-जणिदं । -जिस ज्ञानमें मतिज्ञान कारण पड़ता है, जो मतिज्ञानसे ग्रहण किये गये पदार्थ को छोड़कर तत्समन्धित दूसरे पदार्थ में व्यापार करता है, और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। (ध. १३/५४५.२१/२१०/४५.५,४३/५४५/४% (क.पा. १/१.१/७२८/४२/६); (क, पा, १/१-१५/६३०८/-३४०/५); (ज. प./१३/७७ ); (गो. जी./जी. प्र./३१५/६७३/११ )।
२.शब्द व अर्थ लिंग रूप भेद व उनके लक्षण क. पा. १/१-१५/३०८-३०६/३४०-३४१/५ तं दुविह-सद्दलिंगज अत्थलिंगजं चेदि । तत्थ तं सद्दलिंगजं तं विहं लोइये लोउत्तरियं चेदि । सामण्णपुरिसवयणविणिग्गयवयण कलावजणियाणं लोइयसहज । असच्चकारण विणिम्मुफपुरिसत्रयणविणिग्गयवयणक लाब जणिय सुदणाणं लोउत्तरिय । धूमादि अथलिंगजं पुणअणुमाण णाम । -श्रुतज्ञान शब्दलिंगज और अर्थ लिंगजके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें भी जो शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है वह लौकिक और लोकोत्तरके भेद से दो प्रकारका है। सामान्य पुरुषके मुखसे निकले हुए बचन समुदायसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह लौकिक शब्दलिंगज श्रुतज्ञान है । असत्य बोलनेके कारणों से रहित पुरुषके मुखसे निकले हुए वचन समुदायसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह लोकोत्तर शब्द लिंगज श्रुतज्ञान है। तथा धूमादिक पदार्थ रूप लिंगसे जो श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है वह अथलिंगज श्रुतज्ञान है । इसका दूसरा नाम अनुमान भी है। ध./९,६-१.१४/२१/६ सत्य सुवणाणं णाम इंदिएहि गहित्थादो तदो पुधभूदस्थग्रहणं, जहा सद्दाहो घडादीणमुक्तंभो, धूमादो अग्गि-सुबलं भो बा । - इन्द्रियों से ग्रहण किये पदार्थ से उससे पृथग्भ्रत पदार्थ
का ग्रहण करना श्रुतज्ञान है। जैसे शब्दसे घट आदि पदार्थोका जानना । अथवा धूमादिसे अग्निका ग्रहण करना । (ध. १/१,१,११५॥ ३५७/८); (ध. १३/५.५.२१/२१०/१५४३.२४५१५); (ज. प./१३/
७८-७१) (द्र. सं./टी./४४/१८/२) गो. जी./जी.प्र./३१६/६७६/३ श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मको
द्वौ भेदौ। = अनक्षरात्मक और असरात्मकके भेदसे श्रुतज्ञानके दो भेद हैं। [वाचक शब्दपरसे वाच्यार्थ का ग्रहण अक्षरात्मक श्रुत है, और शीतादि स्पर्श में इष्टानिष्ट का होना अनक्षरात्मक श्रुत है। दे. श्रुतज्ञान/३/३]
३. द्रव्य-भाव तरूप भेद व उनके लक्षण गो. जी./जी.प्र./३४८-३४६/७४४/१५ अङ्गबाह्यसामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्ण कभेदद्रव्यभावात्मकशुतं पुद्गलद्रव्यरूपं वर्ण पदवाक्यात्मक द्रव्यश्रुत, तच्छ्रवणसमुत्पन्नश्रुतज्ञानपर्यायरूपं भावभुतं । - आचारांग आदि बारह अंग, उत्पादपूर्व आदि चौदह पूर्व और चकारसे सामायिकादि १४ प्रकीर्णक स्वरूप द्रव्यश्रुत जानना, और इनके सुननेसे उत्पन्न हुआ जो ज्ञान सो भावभुत जानना । पुद्गलद्रव्यस्वरूप अक्षर पदादिक रूपसे द्रव्यश्रुत है, और उनके सुननेसे श्रुतज्ञानकी पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान सो भावश्रुत है। (द्र. सं./टी./५७/
२२८/११)। द्र. सं./टी./५८/२२६/१० वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्य श्रुतेन तथैव
तदाधारोत्पन्ननिर्विकारस्वसंवेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन । वर्तमान परमागम नामक द्रव्यश्रुत से तथा उस परमागम के आधारसे उत्पन्न निर्विकार स्व-अनुमव रूप भावश्रुतसे परिपूर्ण... |
४. सम्यक् व मिथ्याश्रुतज्ञानके लक्षण नोट- सम्यक् श्रुतके लिए-दे. श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण । ) पं. सं./प्रा/१/११६ आभीयमासुरक्खा भारह-रामायणादि उवएसा।
तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाण त्ति णं विति।११६। -चौरशास्त्र, हिसा शास्त्र तथा महाभारत, रामायण आदिके तुच्छ और परमार्थशून्य होनेसे साधन करनेके अयोग्य उपदेशोंको श्रुताज्ञान कहते हैं। (ध.१/१,१,११/गा. १८९/३५६); (गो. जी./मू./३०४/६५५)। पं.का./त. प्र./४१ यत्तदावरणक्षयोपशमादनिन्द्रियावलम्बाच्च मूतमूर्तद्रव्यं बिकलं विशेषेणावबुध्यते तत् श्रुतज्ञानम् ।...मिथ्यादर्शनोदयसहचरितं श्रुतज्ञानमेव कुश्रुतज्ञानम् । - उस प्रकार के (अर्थात श्रुतज्ञानके ) आवरणके क्षयोपशमसे और मनके अवलम्मनसे मूर्तअमूर्त द्रव्यका विकल्प रूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है ।... मिथ्यादर्शन के उदय के साथ श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है ।
५. उपयोग लब्धि व भावना रूप भेद निर्देश पं. का./प्रक्षेपक गा/४३.२/८६ सुदणाणं पुण गाणी भणति लबी य भावणा चेव । उवगणयवियप्पणाणेण यवस्थु अस्थस्स १४३-२। - ज्ञानीको श्रुतज्ञान लब्धि व भावनारूपसे दो-दो प्रकारका होता है अथवा प्रमाण व नयके भेदसे दो प्रकारका होता है। सकल वस्तुको ग्रहण करनेवाले के प्रमाण रूप और वस्तुकै एकदेश ग्रहण करनेवालेके नय रूप होता है।
६. धारावाही ज्ञान निर्देश न्या. दी./१/१५/१३/७ एकस्मिन्नेव घटे विषयाज्ञान विघटनार्थ मारे ज्ञाने प्रवृत्त तेन घटमिती सिद्धायां पुनर्घटोऽयं घटोऽयमित्येवमुरुपनान्युत्तरोत्तरज्ञानानि खलु धारावाहिक ज्ञानानि भवन्ति। - एक ही घट में घट विषयक अज्ञानके निराकरण करनेके लिए प्रवृत्ताए पहले पट ज्ञानसे घटकी प्रमिति हो जाने पर फिर 'यह घट है' 'यह घट है इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक शाम है। "
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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