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I श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
७. श्रुतज्ञानमें भेद होनेका कारण रा. वा./१/२०/६/७२/६ मतिपूर्व कत्वाविशेषात् श्रुताबिशेष इति चेत्, न,
कारणभेदात्तभेद सिद्धेः राहा. प्रतिपुरुषं हि मतिश्रुतावरणक्षयोपशमो बहुधा भिन्नः तदभेदा बाह्यनिमित्तभेदाच्च श्रुतस्य प्रकर्षाप्रकर्षयोगो भत्रति मतिपूर्वकत्वाविशेषेऽपि । प्रश्न-मतिज्ञान पूर्वक होनेसे सभी श्रुतज्ञानों में अविशेषता है, अर्थात कोई भेद नहीं हैं।
उत्तर-नहीं: क्योंकि कारण भेदसे कार्य के भेदका नियम सर्व सिद्ध है। चूकि सभी प्राणियों के अपने-अपने क्षयोपशमके भेदसे, माह्य निमित्तके भेदसे, श्रुतज्ञान का प्रकर्षापकर्ष होता है, अतः मतिपूर्वक होनेपर भी सभीके श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है । (ध.६/४, १,४५/१६१/१)। २. श्रुतज्ञान निर्देश
१. श्रुतज्ञानके पर्यायवाची नाम पं. ख १३/
१मू. ५०/२८० पावयणं पवयणीयं पवयणट्ठो गदीमु मागणदा बादा परंपरलबी अणुत्तरं पवयणं पवयणी पबयणद्धा पवयणसणियासो णयविधी णयंतरविधी भंगविधी भंगविधिविसेसो पुच्छाविधी पुच्छाविधिक्सेिसोतच्चं भूदं भवं भवियं अवितर्थ अविहदं वेदं णायं सुद्ध सम्माइट्ठी हेदुवादो णयवादो पवरवादी मग्गवादो सुदवादो परवादो लोइयवादो लोगुत्तरीयवादो अग्गं मग्न
जहाणुमग्गं पुवं जहाणुपुव्वं पुवादिपुव्वं चेदि ॥५०॥ घ.१३/५.५.५०/२८५/१२ कथं श्रुतस्य विधिव्यपदेशः । सर्वनयविषयाणामस्तिरबविधायकत्वात् । -१. प्रावचन, प्रवचनीय. प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आरमा, परम्परा लब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचन संनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधि विशेष, तत्त्व, भूत, भव्य, भविष्यत, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय, शुद्ध, सभ्यगदृष्टि, हेतुबाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्रय, मार्ग यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व ये श्रुतज्ञानके पर्याय नाम हैं ।१०।२. प्रश्न-श्रुतकी विधि संज्ञा कैसे है। उत्तर-चू कि वह सब नयोंके विषयके अस्तित्वका विधायक है, इसलिए श्रुतकी विधि संज्ञा उचित ही है।
२.श्रतज्ञानमें कथंचित् मति आदि ज्ञानोंका निमित्त त. सू./१/२० श्रुतं मतिपूर्व द्वधनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ स.सि./१/२०/१२०/७ मतिः पूर्वमस्य मतिपूर्व मतिकारणमित्यर्थः ।
१. शुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है ।।२०। २. मति जिसका पूर्व अर्थात् निमित्त है वह मतिपूर्व कहलाता है। जिसका अर्थ मंतिकारण क होता है। तात्पर्य यह है कि जो मतिज्ञानके निमित्तसे होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। (पं.सं./प्रा./१/१२२), (रा. वा./१/ २०/२/७०/२४), (दे. श्रुतज्ञान/1/१/२), (ध. ६/४,१,४५/१६०/७), (ध. १३/५.५,२१/२१०/७), (द्र.सं./टी./४४/१८८/२), (पं.ध./पू/७०३,
७१७)। श्लो. बा./२/१/७/६/११०/७ अवधिमनःपर्ययविशेषत्वानुषङगात् । यथैव हि मत्यार्थ परिच्छिद्य श्रुतज्ञानेन परामृशनिर्देशादिभिः प्ररूपयति तथावधिमनःपर्ययेण वा। न चे श्रुतज्ञानस्य तत्पूर्वकत्वप्रसङगः साक्षात्तस्यानिन्द्रियमतिपूर्वकत्वात् परम्परया तु तत्पूर्व करवं नानिधम् । -प्रश्न-अवधि और मनःपर्ययसे प्रत्यक्षकरके उस पदार्थ का श्रुतज्ञान द्वारा विचार हो जाता है तो मतिपूर्वकपने के समान अवधि मनःपर्ययपूर्वक भी श्रुतज्ञानके होनेका प्रसंग आयेगा । उत्तर-नहीं, क्योंकि अव्यवहित पूर्ववर्ती कारणकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानका कारण मतिज्ञान ही है। हाँ, परम्परासे तो उन अवधि और मनःपर्ययको कारण मानकर श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति होना अनिष्ट नहीं है।
श्लो. वा. ३/१/२०/श्ली. २०/६०५ मतिसामान्यनिर्देशान्न श्रोत्रमतिपूर्वक । श्रुतं नियम्यतेऽशेषमतिपूर्वस्य वीक्षणात् । = सूत्रकारने मतिपूर्व ऐसा निर्देश कहकर सामान्य रूपसे सम्पूर्ण मतिज्ञानोंका संग्रह कर लिया है। अतः केवल श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानको हो। पूर्ववर्ती मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होय ऐसा नियम नहीं किया जाता
सकता है। क. पा. १/१-१/३४/५१/४ ण मदिणाणपुवं व मुदणापां सुदणाणादो वि सुदणाणुप्पत्तिदसणादो । “यदि कहा जाय कि मतिज्ञानपूर्वक हो. श्रतज्ञान होता है सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि श्रुतज्ञानसे. भो श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है।
३. श्रुतज्ञानमें मनका निमित्त त. सू./२/२१ श्रुतमनिन्द्रियस्य ।२१। -शुत मन का विषय है। .दे. मतिज्ञान/३/१ ईहादिको मनका निमित्तपनाउपचारसे है पर श्रुतज्ञान
नियमसे मनके निमित्तसे ही उत्पन्न होता है। स.भ.त./४७/१३ अनिन्द्रियमात्रजन्यत्वं श्रुतस्य स्वरूपम् । =मन मात्रसे उत्पन्न होना श्रुतज्ञानका स्वरूप है।
४. श्रुतज्ञानका विषय दे, मतिज्ञान/२/२ सर्व द्रव्योंकी असर्व पर्यायों में वर्तता है । रा, वा./१/२६/४/८७/२२ शब्दाश्च सर्वे संख्येया एव द्रव्यपर्याः पुनः संख्येयासंख्येयानन्तभेदाः, न ते सर्वे विशेषाकारेण तै विषयीक्रियन्ते । स सर्व शब्द संख्यात ही हैं और द्रव्योंकी पर्याय संख्यात
और अनन्त भेदवाली है। अत: संख्यात शब्द अनन्त पदार्थोंकी स्थूल पर्यायौंको ही विषय कर सकते हैं, सभी पर्यायोंको नहीं। कहा भी है [प्रज्ञापनीय भाव अनन्त है और शब्द अत्यन्त अल्प हैं।
दे. आगम/१/११] । दे. श्रुतकेवली २।५ द्रव्य श्रुतका विषय भले अल्प हो पर भावश्रुतका
विषय अनन्त है। दे. श्रुतज्ञान/२१५ (परोक्ष रूपसे सामान्यतः सर्व पदार्थों को ग्रहण करनेसे केवलज्ञानके समान है, पर विशेष रूपसे ग्रहण करनेसे अल्पज्ञता है।)
५. श्रुतज्ञानकी त्रिकालज्ञता न. च. वृ./९७३ में उद्धृत गाथा सं. २ कालत्तयसंजुत्तं दव्यं गिहुणेइ केवलणाणं । तत्थ णयेण वि गिहूणइ भूदोऽभूदो य वट्टमाणो वि ।। - तीनों कालोंसे संयुक्त द्रव्यको केवलज्ञान ग्रहण करता है और नयके द्वारा भी भूत, भविष्य और वर्तमान कालके पदार्थों को ग्रहण किया जाता है। दे, निमित्त/२/३ अष्टांग महानिमित्त ज्ञान त्रिकालग्राही है। दे. द्रव्य/१/१२/२ भविष्यत परिणामसे अभियुक्त द्रव्य द्रव्य निक्षेपका विषय है।
१. मोक्षमार्गमें मति श्रुत ज्ञानकी प्रधानता श्लो. बा. २/१/३/६२/१४ केबलस्य सकल श्रुतपूर्व कत्वोपदेशात् । - सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाले केवलज्ञानको उत्पत्ति तो पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग
श्रुतज्ञान रूप कारणसे होती हुई मानी है। पं.ध./पू./७१६ अपि चात्मसंसिद्धयै नियतं हेतु मतिश्रुती ज्ञाने। प्रान्स्यद्वयं विना स्यान्मोक्षो न स्याहते मतिद्वैतम् । - आत्म सिद्धि के लिए मति श्रुतज्ञान निश्चित कारण है क्योंकि अन्तके दो ज्ञानोंके. बिना मोक्ष हो सकता है किन्तु मति, श्रुत ज्ञानके बिना मोक्ष नहीं हो सकता।
..शब्द व अर्थ लिंगजमें शब्द लिंगज ज्ञान प्रधान गो. जी./जी.प्र./३१५४६७३/१५ शब्दजैलिङ्गजयोः श्रुतज्ञानभेदयोः मध्ये शब्दजं वर्ण पदवाक्यात्मकशब्दजनितं श्रुतज्ञान प्रमुख प्रधानं दत्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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