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सूचीपत्र
भुखमान
श्रुतज्ञान है। बाचक शब्दको सुनकर या पढ़कर वाच्यका ज्ञान शब्दलिंगज है। वह लौकिक भी होता है लोकोत्तर भी। लोकोत्तर श्रुतज्ञान १२ अंग १४ पूर्वो आदि रूपसे अनेक प्रकार है। पहला अर्थलिंगज तो क्षुद्र जीवोंसे लेकर क्रमसे वृद्धिगत होता हुआ ऋद्धिधारी मुनियों तकको होता है। पर दूसरा अर्थ लिंगज व शब्दलिंगज संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंको ही सम्भव है। श्रुतकेवलीको यह उत्कृष्ट होता है।
I | श्रुतज्ञान सामान्य निर्देश
भेद व लक्षण श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण । शब्द व अर्थलिंग रूप भेद व उनके लक्षण । द्रव्यभाव श्रुत रूप भेद व उनके लक्षण । सम्यक् व मिथ्या श्रुतशानके लक्षण । सम्यक् लब्धि व भावना रूप भेद । अष्टांग निमित्त ज्ञान।
-दे. निमित्त/२। अष्ट प्रवचन माताका लक्षण। -दे. प्रवचन । स्थित जित आदि श्रु तशानोंके लक्षण ।
-दे. निक्षेप//। ६ धारावाही शान निर्देश।।
श्र तज्ञानके असंख्यात मेद। -दे, ज्ञान/१/४। श्र तज्ञानमें भेद होनेका कारण ।
और स्वरूप जीवके भले प्रकार जान लेनेपर योगियोंने क्या नहीं
क्या नहीं देखा, और क्या नहीं प्राप्त किया ? अर्थात सब कुछ जान, देख व प्राप्त कर लिया।१५। स सा./ता. वृ./8-१०/२२/६ अयमत्रार्थ:-यो भावश्रुतरूपेण स्वसंवेदन
जानबलेन शुद्धात्मानं जानाति स निश्चयश्रुतकेवली भवति । यस्तु स्वशद्वधात्मानं न संवेदयति न भावयति बहिर्विषयं द्रव्यश्रृतार्थ जानाति स व्यवहारश्रुतकेवली भवतीति । यहाँ यह तात्पर्य है कि-जो भावभुत रूप स्व संवेदन ज्ञानके बलसे शदूध आत्माको जानता है वह निश्चय श्रुतकेवली है। और जो शुद्भधात्माका न संवेदन करता है-न भावना भाता है, परन्तु बाह्य द्रव्य श्रुतको जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली है। प.प्र.टी./8/EE/E४/१ वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानेन परमात्मतत्त्वे झाते सति समस्तद्वादशाङ्गस्वरूपं ज्ञातं भवति। कस्मात । यस्माद्राघवपाण्डवादयो महापुरुषा जिनदीक्षा गृहीत्वा द्वादशाङ्ग पठित्वा द्वादशाजाध्ययनफलभूते निश्चयरत्नत्रयारमके परमात्मध्याने तिष्ठन्ति तेन कारणेन वीतरागस्वसंवेदनज्ञानेन निजात्मनि ज्ञाते सति सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नपरमानन्दसुखरसास्वादे जाते सति पुरुषो जानाति । किं जानाति । वेत्ति मम स्वरूपमन्यदेहरागादिकं परमिति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवति । अथवा आत्मा कर्ता श्रुतज्ञानरूपेण व्याप्तिज्ञानेन कारणभूतेन सर्व लोकालोकं जानाति तेन कारणेनात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति । अथवा वीतरागनिर्विकल्पत्रिगुप्तिसमाधिवलेन केवलज्ञानोत्पत्तिबीजभूतेन केवलज्ञाने जाते सति दर्पणे बिम्बवत् सर्व लोकालोकस्वरूपं विज्ञायत इति हेतोरात्मनि ज्ञाते सर्व ज्ञातं भवतीति ।- वीतराग निर्विकल्पस्वसंवेदन ज्ञानसे शुधात्म तत्त्वके जाननेपर समस्त द्वादशांग शास्त्र जाना जाता है। क्योंकि जैसे-१. रामचन्द्र, पाण्डव, भरत, सगर आदि महान् पुरुष भी जिनराजकी दीक्षा लेकर द्वादशांगको पढ़कर द्वादशांग पड़नेका फल निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्ध आत्माके ध्यानमें लीन हुए थे। इसलिए वीतराग स्वसंवेदन ज्ञानसे जिन्होंने अपनी आत्माको जाना उन्होंने सबको जाना । २. अथवा निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न हुआ जो परमानन्द सुख रस उसके आस्वाद होनेपर ज्ञानी पुरुष ऐसा जानता है कि मेरा स्वरूप पृथक है, और देहरागादिक मेरेसे दूसरे हैं, इसलिए परमात्माके जाननेसे सब भेद जाने जाते हैं, जिसने अपने आत्माको जाना उसने सर्व भिन्न पदार्थ जाने । ३. अथवा आत्मा श्रुतज्ञान रूप व्याप्ति ज्ञानसे सब लोकालोकको जानता है, इसलिए आत्माके जाननेसे सब जाना गया। ४. अथवा वीतराग निर्विकल्प परम समाधिके बलसे केवलज्ञानको उत्पन्न करके जैसे दर्पणमें घट पट आदि पदार्थ झलकते हैं, उसी प्रकार ज्ञानरूपी दर्पणमें सब लोकालोक भासते हैं। इससे यह बात निश्चित हुई कि आत्माके जाननेपर सब जाना जाता है। दे. अनुभव/५ अल्प भूमिकामें कथंचित् शुद्धात्माका अनुभव होता है । दे. दर्शन/२/७ दर्शन द्वारा आत्माका ज्ञान होनेपर उसमें प्रतिबिम्बित
सब पदार्थों का ज्ञान भी हो जाता है। दे. केवलज्ञान/६/६ (याकारोंसे प्रतिबिम्बित निज आत्माको जानता है) * पूर्व श्रुतकेवलीवत् वर्तमानमें भी सम्भव है।
__ --दे. अनुभव/१ श्रुतज्ञान-इन्द्रियों द्वारा विवक्षित पदार्थको ग्रहण करके उससे सम्बन्धित अन्य पदार्थको जानना श्रुतज्ञान है । वह दो प्रकारका है-अर्थ लिंगज व शब्दलिंगज । पदार्थको जानकर उसमें इष्टता अनिटताका ज्ञान अथवा धूमको देखकर अग्निका ज्ञान अर्थ लिंगज
श्रुतज्ञान निर्देश श्रुतज्ञानके पर्यायवाची नाम । श्रु तशानमें कथंचित् मति आदि शानोंका निमित्त । श्रु तशान सम्बन्धी दर्शन
-. दर्शन/६॥ श्रुतशानमें मनका निमित्त ।। श्रुतशान अधिगम ही होता है -दे, अधिगम । श्रुतशानका विषय । द्रव्य श्रुतकी अल्पता
-दे. आगम/१/११ श्रुतज्ञानको त्रिकालज्ञता। मोक्षमार्गमें मतिश्रुत शानकी प्रधानता। एक आत्मा जानना ही सर्वको जानना है
-दे. श्रुतकेवली/६। शब्द व अर्थलिंगजमें शब्दलिंगज ज्ञान प्रधान । । द्रव्य व भावश्रुतमें भावश्रुतकी प्रधानता।
श्रुतज्ञान केवल शब्दज नहीं होता। द्रव्य व भाव श्रुतज्ञान निर्देश -दे. आगम/२। श्रुतशानके अतिचार
-दे. आगम/१। वस्तु स्वरूपके निर्णयका उपाय
-दे. न्याय, अनुमान, आगम व नय । श्रुतशानका स्वामित्व
-दे. ज्ञान/I/४ एकेन्द्रियों व संशियोंके श्रुतशान कैसे -दे. संज्ञी। श्रुतज्ञान क्षयोपशमिक कैसे है औदयिक क्यों नहीं।
-दे. मतिज्ञान/२/४ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०४-८
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