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श्रुतकेवली
२. निरचय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश
प्रत्यय स्थान अर्थात विश्वास उत्पादन द्वारा दशक्यिोंके त्यागकी महिमा दिखलानेके लिए पूर्व में उन्हें नमस्कार किया है। अथवा श्रुतकी परिपाटीकी अपेक्षासे पहले दशपूर्वियों को नमस्कार किया गया है।
५. चौदहपूर्वी अप्रतिपाती हैं ध.६/४,१,१३/७४/६ चोहसपुवहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तम्हि भवे असंजमं च ण पडिवजदि, एसो एदस्स विसेसो। --चौदह पूर्वका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, और उस भवमें असं यमको भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है।
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.रा.बा./३/३६/३/२०२/६ सम्पूर्ण श्रुतकेवलिता चतुर्दशपूविरवम् ।
- पूर्ण श्रुतकेवली हो जाना चतुर्दशपूर्वित्व है। (ध.६/४,१,१३/७०/७)। चा. सा./२१४/२ श्रुतकेवलिनां चतुर्दशपूर्विलम् । = श्रुतकेवलीके चतुर्दशपूर्वित्व नामकी ऋद्धि होती है।
२. दशपूर्वोका लक्षण ति. प./MEE८-१००० रोहिणि पहुदीणमहाविज्जाणं देवदाउ पंचसया। अंगुठपसेणाई खुद्द अविज्जाण सत्तसया।६८। एत्तूण पेसणाई दसमपुत्वपढणम्मि। णेच्छंति संजमता ताओ जेते अभिण्णदसपुवी। 1888 भुवणेसु मुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुवी णाम बोद्धव्या ।१०००। -दसवें पूर्व के पढ़ने में रोहिणी प्रभृति महाविद्याओं के पाँच सौ और अंगुष्ठ प्रसेनादिक (प्रश्नादिक) क्षुद्र विद्याओं के सात सौ देवता आकर आज्ञा माँगते हैं। इस समय जो महर्षि जितेन्द्रिप होनेके कारण उन विद्याओंकी इच्छा नहीं करते हैं, 'वे विद्याश्रमण' इस पर्याय नामसे भुवनमें प्रसिद्ध होते हुए अभिन्नदशपूर्वी कहलाते है । उन मुनियों की बुद्धिको दशपूर्वी जानना चाहिए।६६८-१००० रा. वा./३/३६/३/२०२/७ महारोहिण्यादिभिखिरागताभि.प्रत्येकमास्मीयरूपसामाविष्करणकथनकुशलाभिर्वेगवतीभिविद्यादेवताभि - रविचलितचारित्रस्य दशपूर्व दुस्तरसमुद्रोत्तरण दशपूर्विस्वम् । =महारोहिण्यादि लौकिक विद्याओं के प्रलोभनमें न पड़कर दशपूर्वका पाठी होता है वह दशपूर्वित्व है । (चा, सा./२१४/१)।
३. मिन्न व अभिन्न दशपू के लक्षण ध. ६/४,१,१२/६३/५,७०/१ एत्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिषण भेएण
दुविहा होति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदूण पुणो परियम्म-सुत्तपढमाणियोग-पुवगयचूलिया त्ति पंचा हियारणिद्धाद्धिठिवादे परिजमाणे उत्पादपुव्वमादि कादूण पढं ताणं दमपुठवीए विजाणुपवादे समते रोहिणीआदिपंचसममहाविजाओ अंगुठपसेणादि सत्तसयदहरबिजाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति कति । एवं दुक्काणं सब्वविजाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुब्बी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होंतो सो अभिण्णदसप्रवी णाम (६३/५) । ण च तेसिं (भिण्णदसपुवीणं) जिणत्तमत्थि, भग्गमहब्बएसु जिणत्ताणुवक्त्तीदो। यह भिन्न और अभिन्न के भेदसे दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ११ अंगोंको पढकर पश्चात् परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका इन पाँच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवादके पढ़ते समय उत्पाद पूर्व को आदि करके पढ़ने वालेके दशमपूर्व विद्यानुवादके समाप्त होनेपर अंगुष्ठ प्रसेनादि सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पाँच सौ महा विद्याएँ 'भगवान् क्या आज्ञा देते हैं' ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओं के लोभको प्राप्त होता है वह भिन्न-दशपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। 'भिन्नदशपूर्वियोंके जिनत्व नहीं हैं. क्योंकि जिनके महावत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। (भ. आ./वि./३४/१२५/१४)।
. चतुर्दशपूर्वीको पीछे नमस्कार क्यों घ.६/४,१,१२/७०/३ चोद्दसपुब्वहराणं णमोकारो किण्ण कदो। ण, जिणवयणपच्चयाणपदुप्पायणदुकारेण दसपुवीण चागमहप्पपदरिसण्ठं पुवं तण्णमोकारकरणादो। सुदपरिवाडीए वा पुवं दसपुत्रीणं णमोकारो कुदो। -प्रश्न-चौदह पूर्वोके धारकोंको पहले नमस्कार क्यों नहीं किया ! उत्तर-नहीं, क्योंकि जिनवचनोंपर
२. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश
१. श्रुतकेवलीका अर्थ आगमज्ञ स. सा./मू./१० जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलि तमाहु जिणा। णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ।१०। जो जीव सर्व श्रुतज्ञानको जानता है उसे जिनदेव श्रुतकेवली कहते हैं, क्योंकि ज्ञान सब आत्मा ही है इसलिए वह श्रुतकेवलीके है ।१०॥ स. सि./६/३७/४५३ '४ पूर्व विदो भवतः श्रुतके वलिन इत्यर्थः। -पूर्व
विद् अर्थात् श्रुतकेवलीके होते है।। म. पु./२/६१ प्रत्यक्षश्च परोक्षश्च द्विधा ते ज्ञानपर्ययः । केवलं केवलि
न्ये कस्ततस्त्वं श्रुतकेवली ।६११ = ( श्रेणिक राजा गौतम गणधरकी इस प्रकार स्तुति करते हैं।) हे देव । केवली भगवादमें मात्र एक केवल ज्ञान ही होता है और आपमें प्रत्यक्ष परोक्ष के भेदसे दो प्रकारका ज्ञान विद्यमान है। इसलिए आप श्रुतकेवलो कहलाते हैं ।६११ भ, आ./वि./३४/१२५/१२ सुदकेवलिणा समस्तश्रुतधारिणा कथित
चेति । =द्वादशांग श्रुतज्ञानको धारण करने वाले महर्षियों को श्रुतकेवलि कहते हैं । (और भी दे० श्रुतकेवली/१/१) ।
२. श्रुतकेवलीका अर्थ आत्मज्ञ स. सा./मू./ह जो हि सुएण हि गच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धात
सुयकेवलि मिसिणो भणति लोयप्पईवयरा -जो जीव निश्चयसे (बास्तबमें) श्रुतज्ञानके द्वारा इस अनुभवगोचर केवल एक शुद्ध आत्माको सम्मुख होकर जानता है, उसे लोकको प्रगट करने वाले ऋषीश्वर श्रुत केवली कहते हैं। प्र. सा./मू./३३ जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं सुयकेवलिमिसिणो भणं ति लोयपदीवकरा ३३ - जो वास्तव में श्रुतज्ञानके द्वारा स्वभावसे ज्ञायक (ज्ञायस्वभाव) आत्माको जानता है उसे लोकके प्रकाशक ऋषीश्वरगण श्रुतकेवली कहते हैं। ३. श्रु त केवलीके उस्कृष्ट व जघन्य ज्ञानकी सीमा स. सि./६/४७/४६१/८ श्रुतं-पुलाकमकुशप्रतिसेवनाकुशीला उत्कर्षेणाभिन्नाक्षरदसपूर्व धराः । कषायकुशीला निर्ग्रन्थाश्चतुर्दशपूर्वधराः। जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु । नकुशकुशीला निर्ग्रन्थानां । श्रुतमष्टौ प्रवचनमातरः । स्नातका अपगतश्रुताः केवलिनः । भूतपुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील उत्कृष्ट रूपसे अभिन्नाक्षर दश पूर्वधर होते हैं। कषाय कुशील और निर्गन्ध चौदह पूर्वधर होते हैं। जघन्य रूपसे पुलाकका श्रुत आचार वस्तु प्रमाण होता है। बकुश, कुशील और निग्रन्थोंका श्रुत आठ प्रवचन मातृका प्रमाण होता है। स्नातक श्रूतज्ञानसे रहित केवली होते हैं। (रा. वा/8/४७/४/६६८/१), (चा. सा./१०३/४ )। दे. ध्याता/१ उत्सर्ग रूपसे १४ पूर्वोके द्वारा और अपवाद रूपसे अष्ट प्रवचन मातृकाका मात्र ज्ञानसे ध्यान करना सम्भव है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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