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श्रीपाल वर्णी
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श्रुतकेवली
श्रीपाल वणी-इन्होंने शुभचन्द्राचार्यको अध्यात्म तरंगिनी लिखने में सहायता दी थी। समय-वि.१६११ (ई. १५५४), (का, अ./ प्र. ८३ ॥ A. N. Up.)। श्रीपुर-विजया की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे. विद्याधर । श्रीपुरुष-राजा पृथिवी कोङ्गणिका दूसरा नाम श्रीपुरुष था।
आप गंगवंशी नरेश थे। समय-वि. ८३३ (ई. ७६६), (भ.आ./प्र. १६ प्रेमी जी)। श्रीप्रभ-१. विजयाको दक्षिण श्रेणिका एक नगर-दे, विद्याधर,
२. दक्षिण पुष्कर समुद्र का रक्षक व्यंतर देव-दे. तर/४ । श्रीभद्र-भूतकालीन २३ वें तीर्थकर -दे. तीर्थकर।। श्रीभद्रा-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनों में स्थित वापी
-दे. लोक/५६ श्रीभूषण-शान्तिनाथ पुराण, पाण्डव पुराण, द्वादशांग पूजा तथा
प्रबोध चिन्तामणि के कर्ता एक भट्टारक । समय-वि. १६३५-१६७६। (ती./४/४३) . श्रीमंडप भूमि-समवशरणकी आठवीं भूमि-दे, समवशरण। . श्रीमति-१,म पु./सर्ग/श्लोक-पुण्डरीकिणी नगरीके राजा बज्र. दन्तकी पुत्री थी (६/६०)। पूर्वभवका पति मरकर इसकी बुआका लड़का हुआ। जातिस्मरण होनेसे उसको ढूढने आयी।६/११)। जिस किस प्रकार खोज निकालकर उससे विवाह किया (६/१०५) । एक दिन मुनियोंको आहार देकर भोगभूमिकी आयुका बन्ध किया 1८/१७३) । एक समय शयनागारमें सुगन्धित द्रव्यके घुटनेसे आकस्मिक मृत्यु हो गयी (६/२७)। तथा भोगभूमि में जन्म लिया (/३३)। यह श्रेयांस राजाका पूर्वका सातवाँ भा है।-दे. श्रेयांस; २. जिनदत्त चरित्र/सर्ग/श्लोक-सिंघल द्वीपके राजा धनबाहनकी पुत्री थी। इसको ऐसा रोग था जो इसके पास रहता वह मर जाता था। इसी कारण इसके पिताने इसे पृथक् महल दे दिया (४/८) एक दिन एक बुढ़ियाके पुत्रकी बारी आनेपर जिनदत्त नामक एक लड़का स्वयं इसके पास गया। और रात्रिको इसके मुँहमें से निकले सर्पको मारकर इसको विवाहा (८/१५-२६)। इसपर मोहित होकर सागरदत्तने जिनदत्तको समुद्र में गिरा दिया। यह अपने शीलपर दृढ़ रही और मन्दिरमें रहने लगी (५/८)। कुछ समय पश्चात इसका पति आ गया (७/२४) अन्तमें दीक्षा धारण कर ली। समाधिपूर्वक कापिष्ठ स्वर्ग में देव हुई (६/११२) । श्रीमन्यु सप्तऋषियोंमेंसे एक-दे. सप्तऋषि । श्रीमहिता-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि वनोंमें स्थित वापी। -दे.
लोक/५।६। श्रीवंश-एक पौराणिक राजवंश-दे. इतिहास/१०/१५ । श्रीवर्मा-म. पु./५४/श्लोक-पुष्कर द्वीपके पूर्व मेरुकी पश्चिम दिशामें सुगन्धि नामक देशके श्रीपुर नगरके राजा श्रीषेण (६/२७) का पुत्र था (६८)। एक समय विरक्त हो दीक्षा ले ली, तथा संन्यास मरणकर (८०-८१) स्वर्ग में देव हुआ (८२)। यह चन्द्रप्रभ भगवान्का पूर्वका पाँचवाँ भव है।-दे. चन्द्रप्रभ । श्रीवल्लभ-दक्षिण में लाट देशके राजा कृष्णरज प्रथमका पुत्र था.
तथा ध व राजाका बड़ा भाई था। कृष्णराज प्रथमका नाम गोविन्द प्रथम था, इसी कारण इनका नाम गोविन्द द्वितीय भी था। यह वर्धमानपुरकी दक्षिण दिशामें राज्य करता था। अमोघवर्ष के पिता जगतुंगने इसे इन्द्रराजकी सहायतासे युद्ध में परास्त करके इसका राज्य छीन लिया था। इसीके समयमैं आ, जिनषेशने अपना
हरिवंश पुराण लिखना प्रारम्भ किया था। समय-श.६६४-७१६ (ई.७७२-७६४); (ह.पु./६६/५२-५३); (ह../प्र.५ प. पन्नालाल )।--दे. इतिहास/३/४।। श्रीविजय-म.पू./६/श्लोक त्रिपृष्ठ नारायण का पुत्र था (१५३) । एक बार राज्य सिंहासन पर वज्रपात गिरनेकी भविष्यवाणी सुनकर (१७२-१७३) सिंहासन पर स्फटिक मणिको प्रतिमा विराजमान कर दी। और स्वयं चैत्यालय में जाकर शान्ति विधान करने लगा। (२१६-२२१) 1 फिर सात दिन वज्रपात यक्षमूर्तिपर पड़ा (२२२) । एक समय इनकी स्त्रीको अनिघोष विद्याधर उठाकर ले गया और स्वयं सुताराका वेष बनाकर बैठ गया (२३३-२३४) तथा बहाना किया कि मुझे सर्पने उस लिया, तब राजाने चिताकी तैयारी की (२१५२३७)। इसके साले अमिततेजके आश्रित राजा संभिन्नसे ठीक-ठीक वृत्तान्त जान (२३८-२४६) अश निघोषके साथ युद्ध किया (६८-८०) । अन्त में शत्रु समवशरण में चला गया, तब वहींपर इन्होंने अपनी स्त्रीको प्राप्त किया (२८४-२८५) । अन्त में समाधिमरण कर तेरहवें स्वर्ग में मणिचूल नामक देव हुआ (४१०-४९१)। यह शान्तिनाथ भगवान के प्रथम गणधर चक्रायुधका पूर्वका १०याँ भव है। ---दे. चक्रायुध । धावृक्ष-१. कुण्डल पर्वतस्थ मणिकूटका स्वामी नागेन्द्र देव-दे.
लोक/५/१२:२. रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/१/१३ | श्रीशल-हनुमानका आरनाम है - दे. हनुमान् । श्रीषण-म प्र./६२/श्लोक मगध देशका राजा था (३४०) । आदित्यगति नामक मुनिको आहार देकर भोगभूमिका बन्ध किया (३४८३५०)। एक समय पुत्रोंका परस्पर सुद्ध होनेपर विष खाकर मर गया (१५२-३५३)। यह शान्ति नाथ भगवादका पूर्वका ११वाँ भव है। - दे. शान्तिनाथ। श्रीसंचय-पद्मदके वन में स्थित एक कूट-दे. लोक/५/७ । सोध-विजया की उत्तर शेणीका एक नगर ।-दे, विद्याधर ।
वेदान्त सिद्धान्त में खण्डनरवण्डखाद्य नामक ग्रन्थ के कर्ता। समय-ई. ११५०।- दे. वेदान्त । श्रुतकीति-१. नन्दिसंघ मलात्कारगण त्रिभुनन कीर्ति के शिष्य ।
कृतियें-हरिवंश पुराण, धर्म परीक्षा, परमेष्ठी प्रकाशसार, योगसार । . समय-हरिवंश रचनाकाल वि. १५.२। दे. इतिहास/७/४); (ती./३/४३०)। २. नन्दिसंघ देशोयगण, माघनन्दि कोव्हापुरीय के शिष्य एक महाबादी। श्वेताम्बराचार्य देवेन्द्र सूरि को परास्त किया। कृति-काव्य राधव पाण्डबीय । समय-(ई. १९३३-१९६३)। (दे. इतिहास/9/५); (प. सं.२/प्र.४/H.L.Jain) । श्रतकवली-ज्ञान स्वरूप होनेके कारण आत्मा स्वयं ज्ञयाकार स्वरूप है। इसलिए आत्माको जाननेसे ही सकल विश्व प्रत्यक्ष रूपसे जाना जाता है। अतः केवल आत्माको जाननेवाला अथवा सक्लश्रुतको जाननेवाला हो त केवली है। इसीसे १० या १४ अंगो के जाननेसे भी श्रुतकेवली कहलाता है और केवल समिति गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन मात्रको जाननेसे भी श्रुतके बली कहलाता है। १. दश व चतुर्दश पूर्वी निर्देश
का लक्षण ति. ५/४/१००१ सयलागमपारगया सुदकेवलिणाममुप्पसिद्धा जे । एदाण बुद्धिरिद्धी चोहसपुबि त्तिणामेण ॥१००१-जो महर्षि सम्पूर्ण
आगमके पारंगत हैं और श्रुतकेवली नामसे प्रसिद्ध है उनके चौदहा पूर्वी नामक बुद्धि ऋद्धि होती है ।१००१॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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