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श्रावक .
थिति
तदपि सेव्यताम् । सम्यनिरूप्य पदवी, शक्ति च स्वामुपासकैः ५६ ९. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ - श्रावक आत्महितकारक स्वाध्यायको करे, बारह भावनाओंको भावे। परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित
पु. सि. उ./७७ स्तोकै केन्द्रियघाताइगृहिणी संपन्नयोग्यविषयाणाम् । कार्यो में प्रमाद करता है । ५५६ पहले अनगार धर्मामृतमें कथित
शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ७७। - इन्द्रियों के
विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करनेवाले श्रावकोंको कुछ आवश्यक मुनियोंका जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पदको समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय ।५।।
एकेन्द्रियके घातके अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेन्द्रिय जीवोंके
मारनेका त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है ।७७। प.ध./उ./७३६-७४० जिनचैत्यगृहादीनां निर्माण सावधानतया । यथा
दे. सावध/२ खर कर्म आदि सावध कर्म नहीं करने चाहिए। संपद्विधेयास्ति दृष्या नावद्यलेशतः १७३६॥ अथ तीर्थादियात्रासु
वसु. श्रा./३१२ दिणपडिम- बीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। विदध्यात्सोद्यतं मनः । श्रावकः स तत्रापि संयमन विराधयेत् ।७३८)
सिधंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं १३१२१ - दिनमें प्रतिमा संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमे धिभिः । विनापि प्रतिमारूपं
योग्य धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालवतं यद्वा स्वशक्तितः ७४01- अपनो सम्पत्ति के अनुसार मन्दिर
योग-गर्मी में पर्वतोंके ऊपर, बरसातमें वृक्षके नीचे, सर्दी में नदीके बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी
किनारे ध्यान करना, वीरचर्या-मुनिके समान गोचरी करना, पाप इन कार्यों में निंद्य नहीं है ।७३६। और वह श्रावक तीर्थादिककी
सिद्धान्त ग्रन्थोंका-केवली श्रुतकेअली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध यात्रामें भी मनको तत्पर करे, परन्तु उस यात्रामें अपने संग्रमको
और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निमित ग्रन्थों का अध्ययन करना विराधित न करे ७३८। गृहस्थों को अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमा
और रहस्य अर्थात प्रायश्चित्त शास्त्रका भी अध्ययन करना, रूपसे वा बिना प्रतिमारूपसे दोनों प्रकारका संयम पालन करना
इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।३१२। (सा.ध.. चाहिए ७४०॥
७/५०)। ला. सं./५/१८५ यथा समितयः पञ्च सन्ति तिखश्च गुप्तयः। अहिंसा- सा, ध./४/१६ गवाद्यनष्ठिको वृत्ति, त्यजेद् बन्धादिना विना । भोग्यात् व्रतरक्षार्थ कर्तव्या देशतोऽपि तैः ।१८५- अहिंसाणुव्रतको रक्षाके वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ॥१६= नैष्ठिक श्रावक गौ बैल लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियोंका भी एक देशरूपसे पालन आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविकाको छोड़ें अथवा भोग करना चाहिए ।१८॥
करने के योग्य उन गौ आदि जानवरोंको बन्धन ताड़न आदिके बिना
ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बन्धन आदिको नहीं करें।१६।। दे बत/२/४ महाव्रतको भावनाएँ भानी चाहिए।
ला. सं./१/२२४, २६५ अश्वाधारोहणं मार्ग न कार्य व्रतधारिणाम । ईदे. पूजा/२/१ अर्हन्तादि पंच परमेष्ठीकी प्रतिमाओंकी स्थापना करावें। समितिसंशुद्धिः कुतः स्यात्तत्र कर्मणि (२२४१ छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ:
तथा नित्य जिनबिम्ब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे। काष्ठमूलादिभिः कृतः । तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमादे. चैत्यचैत्यालय/२/८ औषधालय, सदावतशालाएँ तथा प्याऊ खुल
न्वितैः ।२६५१- अणुवती श्रावकको घोड़े आदिकी सवारीपर चढ़कर वावे। तथा जिनमन्दिरमें सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे ।
चलनेमें उसके इर्या समितिकी शुद्धि किस प्रकार हो सकती है ।२२४।
प्रतिमा रूप अहिंसा अणुवतको पालन करने वाले श्रावकोको नाक ८. आवश्यक क्रियाओंका महत्त्व
छेदने के लिए सूई, सूआ बा लकड़ी आदिसे छेद करना पड़ता है, वह
भी उतना ही करना चाहिए जितनेसे काम चल जाये, इससे अधिक 2. दान/४ चारों प्रकारका दान अत्यन्त महत्त्वशाली है।
छेद नहीं करना चाहिए ।२६५॥ र. सा./१२-१३ दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। जोह कसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो ।१२। जिण पूजा मुणिदाणं
१० सब क्रियाओं में सयम रक्षणीय है करेइ जो देइ सत्तिरूवेण । सम्माइटठी सावय धम्मी सो होइ मोक्ख
दे. श्रावक/४/७ में पं.ध-वह श्रावक तीर्थ यात्रादिकमें भी अपने मनको मग्गरओ।१३।-जो श्रावक सुपात्रको दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण,
तत्पर करे, परन्तु उस यात्रामें अपने संयम को विराधित करे। गुणवत, संयम पूजा आदि धमका पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करनेपर भी
श्रावकाचार-श्रावकों के आचारके प्ररूपक कई ग्रन्थ श्रावकाचार लोभको तोव अग्निमें पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक
नामसे प्रसिद्ध हैं यथा-१. आ. समन्तभद्र (ई. श. २) कृत रत्नकरण्ड
श्रावकाचार। २.आ. योगेन्द्र देव (ई. श.६) कृत नवकार श्रावआनो शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्रमें दान देता है, वह सम्पग्दष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्गमें शीघ गमन
काचार । ३. आ. अमितगति (ई. १८३-१०२३.) कृत श्रावकाचार ।
४. आ. वसुनन्दि (ई.१०४३-१०५३) कृत श्रावकाचार। करता है ।१२-१३।
१. आ. सकल कीर्ति (ई. १४३३-१४४२) कृत प्रश्नोत्तर श्रावकाचार । म. पु./३६/88-१०१ ततोऽधिगतसज्जातिः सद्भगृहित्वमसौ भजेत् । ६.प.आशाधर (ई.११७३-१२४३) कृत सागार धर्मामृत । ७. आ. गृहमेधी भवनार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् । यदुक्तं गृहचर्यायाम पद्मनन्दि नं. ७ (ई. १३०५) कृत श्रावकाचार । ६.९ । अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्त विहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालुः समा
। श्रावण द्वादशी व्रत-बारह वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. १२ चरेत् ।१००। जिनेन्द्रापलब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षितः । स धत्ते परमं
को उपवास। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य (व्रत विधाम ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तमः ।१०१ -जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सदगृहित्य क्रियाको प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सग
सं./पृ.८८). हित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन
श्रिांत-भ. आ./म./१७१/३८८ जा उबरि-उपरि गुणपडिबत्ती सा करता है, गृहस्थ अवस्थामें करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे भावदो सिदी होदि । दबसिदी हिस्सेणी सोवाणं आरुहंतस्स ।१७१। गये हैं अरहन्त भगवान के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणोंका -सम्यग्दर्शन आदि शुद्ध गुणोंकी गुणित रूप उत्तरोत्तर उन्नताजो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्र देवसे वस्थाको प्राप्त कर लेना यह भाव रूप श्रिति है। और कोई उच्च उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देवने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह स्थानमें स्थित पदार्थ लेना चाहे तो निश्रेणीका अवलम्बन लेकर उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेजको धारण करता है ।६९-१०११ एक-एक सोपान पंक्ति क्रमसे चढ़ना बह द्रव्य श्रिति है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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