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श्रावक
४. श्रावकके मूल व उत्तर गुण निर्देश
गहो नैष्ठिकः साधकोऽथवा १७२५॥ मद्यमांसमधुरमागी त्यक्तोजबरपञ्चकः। नामतः श्रावकः ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही। ia यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्य तदवतस्यैस्तै रिच्छद्भि श्रेयसी क्रियाम् ।७२७। त्यजेहोषांस्तु तत्रोतास सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीद श्रावकः कः समाचरेत् १७२८। -आठों मूलगुण स्वभावसे अथवा कुल परम्परासे भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुणके बिना जीवोंके सब प्रकारका व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता ।७२४ मूलगुणों के बिना जीव नामसे भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है ।७२५॥ मद्य, मांस, मधु व पंच उदुम्बर फलोंका त्याग करनेवाला गृहस्थ नामसे श्रावक कहलाता है, किन्तु मद्यादिका सेवन करने वाला गृहस्थ नामसे भी श्रावक नहीं है ।७२६। गृहस्थोंको यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओंके करनेकी इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थको अवश्य ही व्यसनोंका त्याग करना चाहिए (७२७। और मूलगुणोंके लगनेवाले अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूपसे मद्य, मांस आदिको कौनसा श्रावक खाता है ।७२८1 (ला. सं./२/६-१), (ला. सं./३/१२६-१३०)।
४. श्रावकके ६ कर्तव्य चा. सा /४३/१ गृहस्थस्येज्या, बार्ता, दत्तिा, स्वाध्यापः, संयमः, तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवन्ति । - इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम
और तप ये छह गृहस्थों के आय कर्म कहलाते हैं। पं.वि./६/७ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति
गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने १७जिनपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थों के लिए प्रतिदिनके करने योग्य आवश्यक कार्य हैं । अ.ग. श्रा./८/२६ सामायिकं स्तवः प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रमा । प्रत्या
ख्यानं तनुत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।२६। = सामायिक, स्तवन, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पण्डितोंके द्वारा कहे गये हैं।२६॥
५. श्रावककी ५३ क्रियाएँ र. सा./१५३ गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणस्थमियं । दंसपणाणचरितं किरिया तेवण्ण सावमा भणिया ।१५३- गुणवत३, अणुवत५, शिक्षावत ४, तप १२, ग्यारह प्रतिमाओंका पालन ११, चार प्रकारका दान देना ४, पानी छानकर पीना १, रातमें भोजन नहीं करना १, रत्नत्रयको धारण करना ३, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकोंकी तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है ।१५३॥ ७. श्रावकके अन्य कर्तव्य
४. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनोंको होते हैं पं.ध./उ./७२३ तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । कचिद
वतिना यस्मात् सर्वसाधारणा इमे ।७२३३ = उनमें जिस कारणसे बतो गृहस्थोंके जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अवती गृहस्थोंके भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण है ।७२३१ (ला. सं./३/१२०-१२८)।
५. साधुको पूर्ण और श्रावकको एकदेश होते हैं पं. ध./3/७२२ मूलोत्तरगुणाः सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथा
नगारिणां न स्युः सर्वत. स्युः परेऽथ ते १७२२॥ - जैसे गृहस्र्थोके मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूपसे नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूपसे ही होते हैं। (विशेष दे. व्रत/२/४ )।
६. श्रावकके अनेकों उत्तर गुण
१. श्रावकके २ कर्तव्य र. सा./११ दाणं पूजा मुकावं साक्पधम्मे प्य सावया तेण विणा | चार प्रकार का दान देना और देवशाख गुरुकी पूजा करना श्रावकका मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।
२. श्रावकके ४ कर्तव्य क. पा./८२/१००/२ दाणं पूजा सीलमुक्वासो चेदि चउबिहो सावय
धम्मो। -दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकके धर्म हैं। (अ. ग. श्रा./४/१), (सा.ध./७/५१), (सा.ध./पं. लालाराम/फुटनोट पृ.६५)
३. श्रावकके ५ कर्तव्य कुरल./५/३ गृहिणः पञ्च कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बन्धु साहाय्यमातिथ्य पूर्वेषा की तिरक्षणम् ।। -पूर्वजोंको कीर्तिकी रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु-बान्धवोंकी सहायता और आत्मोन्नति मे गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं ।।
त. सू./७/२२ मारणान्तिकी सरलेखनां जोषिता ।२२१ तथा वह (श्रावक) मारणान्तिक संलेखनाका प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला होता है ।२२। ( सा, ध./७/५७ ) । बसु. श्रा./३१६ विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं ।
सत्तीए जहजोगं कायव्वं देसविरएहिं ।३१।। देशविरत श्रावकोंको अपनी शक्तिके अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश
और पूजन विधान करना चाहिए ।३१।। पं. वि./६/२५, २६, ४२, ५६ पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः । वस्त्रपूत पिबे तोयं .. २५॥ विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितः ।२६। द्वादशापि चिन्त्या अनुप्रेक्षा महारमभिः.. ४२। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।।
- पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपोंको करना चाहिए । तथा वस्त्रसे छना जल पीना चाहिए ।२५॥ श्रावकों को जिनागमके आश्रित होकर पंच परमेष्ठियाँ तथा रत्नत्रयके धारकोंकी यथायोग्य विनय करनी चाहिए ।२६। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना चाहिए ।४२॥ श्रावकों को भी यथाशक्ति और
आगमके अनुसार दशधर्मका पालन करना चाहिए ॥५६॥ सा. ध./टिप्पणी/२/२४/पृ. ६५ आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनति
र्धार्मिके प्रीतिरुच्चैः । पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया । तत्त्वाभ्यासः स्वकीयवतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्गाहस्थ्य बुधानामितरदिह पुनर्दुःखदो मोहपाशः । जिनेन्द्रदेवकी आराधना, गुरुके समीप विनय, धरिमा लोगोंपर प्रेम, सत्पात्रोंको दान, विपत्तिग्रस्त लोगोंपर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना. तत्वोंका अभ्यास, अपने व्रतोंमें लीन होना और निर्भल सम्यग्दर्शनका होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती है वही गृहस्थधर्म 'विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोकमें
दुख देनेवाला है। सा.ध./७/५५. ५६ स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मन्दायते तत्र, स्वकार्ये सः प्रमाद्यति ।। यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणी, वृत्वं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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