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३.पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
श्रावक
३. पाक्षिक व नैष्ठिक श्रावक निर्देश
..नैष्ठिक श्रावकमें सम्यक्त्वका स्थान
६.वि./१/१२ सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्र महितं मुक्तः परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति । वृत्तिस्तस्य यदुन्नतः परमया भक्त्यापिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः ।१२। =जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रोंसे पूजित है. मुक्तिका अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाला है उसे साधुजन शरीरके स्थित रहनेपर ही धारण करते हैं। उस शरीरकी स्थिति उत्कृष्ट भक्तिसे दिये गये जिन सद्गृहस्थोंके अन्नसे रहती है उन गुणवान सद्गृहस्थोंका धर्म भला किसे प्रियन होगा ! अर्थात सर्वको प्रिय होगा।
२. श्रावक धमके योग्य पात्र
सा.ध./१/११ न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून. सहगी स्त्रिवर्ग भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदहंगृहिणी-स्थानालयो होमयः । युक्ताहारविहारआर्यसमितिः, प्राज्ञः कृतज्ञो वशी, शृण्वन्धर्म विधि, दयालुरघभी, सागारधर्म चरेत् ।११। न्यायसे धन कमानेवाला, गुणोंको, गुरुजनोंको तथा गुणोंमें प्रधान व्यक्तियों को पूजनेवाला, हित मित और प्रियका वक्ता, त्रिवर्गको परस्पर विरोधरहित सेवन करनेवाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकानसहित लज्जावान् शास्त्रके अनुकुल आहार और विहार करनेवाला, सदाचारियोंकी संगति करनेवाला, विवेकी, उपकारका जानकार, जितेन्द्रिय, धर्मकी विधिको सुननेवाला दयावान् और पापोंसे डरनेवाला व्यक्ति सागार धर्मको पालन कर सकता है ।११।
३. विवेकी गृहस्थको हिंसाका दोष नहीं म. पु./३६/१४३-१४४,१५० स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमे धिनाम् । हिंसादोषोऽनुषङ्गो स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।१४३। इत्यत्र ब्र महे सत्य अल्पसावद्यसङ्गतिः। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ।१४४॥ त्रिवेतेषु न संस्पर्शो वधेनाइद्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृतिः ॥१५० - यहाँपर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मोसे आजीविका करनेवाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसाका दोष लग सकता है परन्तु इस विषयमें हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है; आजीविकाके करनेवाले जैन गृहस्थोंके थोड़ीसी हिंसाकी संगति अवश्य होती है, परन्तु शास्त्रों में उन दोषोंकी शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है ।१४३-१४४। अरहन्तदेवको माननेवालेको द्विजोंका पक्ष, चर्या और साधन इन तीनोंमें हिसाके साथ स्पर्श भी नहीं होता...॥१५॥
घ. १/१,१.१३/१७५/४ सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयतयो दृश्यन्त इति चेन्न, निर्गतमुक्तिकाङ्क्षस्यानिवृत्तविषय पिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्ते । -प्रश्न-सम्यग्दर्शनके बिना भी देशसंयमी देखने में आते है ? उत्तर--नहीं, क्योंकि, जो जीव मोक्षकी आकांक्षासे रहित हैं और जिनकी विषय पिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्यारयान संयमकी
उत्पत्ति नहीं हो सकती है। बसु. श्रा./५ एयारस ठाणाई सम्मत्त विवज्जिय जीवरस । जम्हाण संति तम्हा सम्मत्तं सुणह वोच्छामि।५।(श्रावकके) ग्यारह स्थान चूकि सम्यग्दर्शनसे रहित जीवके नही होते, अतः मैं सम्यक्त्वका वर्णन करता हूँ। हे भव्यो ! तुम सुनो। द्र, सं./टी./४५/१६५/३ सम्यक्त्वपूर्वकेन.. दार्शनिकश्रावको भवति ।
-सम्यक्त्वपूर्वक.. दार्शनिक श्रावक होता है । (ला. सं./२/६ ) । २. ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तम मध्यमादि विभाग चा. सा./४०/३ आद्यास्तु षट् जघन्याः स्युमध्यमास्तदनु त्रयः । शेषौ द्वावुत्तमायुक्तौ जनेषु जिनशासने।जिनागममे ग्यारह प्रतिमाओ मेंसे पहलेकी छह प्रतिमा जघन्य मानी जाती है. इनके बादकी तीन अर्थात सातवी, आठवीं और नौवीं प्रतिमाएँ मध्यम मानी जाती हैं। और बाकी की दशवी, ग्यारहवीं प्रतिमाएँ उत्तम मानी जाती है। (सा. ध./३/२-३); (द्र. सं./टी./४५/१/६/११); ( द. पा./टी./१८/१७) । ३. ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर व्रतोंकीरतमता चा. सा./२/४ इत्येकादेश निलया जिनोदिताः श्रावकाः क्रमशः बतादयो गुणा दर्शनादिभिः पूर्व गुणैः सह क्रमप्रवृद्धा भवन्ति ।- जिनेन्द्रदेवने अनुक्रमसे इन ग्यारह स्थानों में रहनेवाले ग्यारह प्रकार के श्रावक बतलाये हैं। इन श्रावकोंके व्रतादि गुण सम्यग्दर्शनादि अपने पहले
के गुणों के साथ अनुक्रमसे बढ़ते रहते हैं। सा.ध./३/५ तद्वदर्श निकादिश्च, स्थैर्य स्वे स्वे व्रतेऽवजन् । लभते पूर्वमेवार्थाद, व्यपदेशं न तूत्तरम् । =नैष्ठिक श्रावककी तरह अपनेअपने व्रतों में स्थिरताको प्राप्त नहीं होनेवाले दर्शनिक आदि श्रावक भी वास्तवमें पूर्व-पूर्व की ही संज्ञाको पाता है, किन्तु आगेकी संज्ञाको नहीं 11 ४. पाक्षिक श्रावक सर्वथा अवती नहीं ला. सं./२/४७-४६ नेत्थं यः पाक्षिकं कश्चिद् व्रताभावादस्त्यवती। पक्षमात्रावलम्बी स्याद् व्रतमात्रं न चाचरेत् ।४७। यतोऽस्य पक्षग्राहित्वमसिद्ध बाधसंभवात् । लोपात्सर्व विदाज्ञायाः साध्या पाक्षिकता कुतः।४८ आज्ञा सर्व विद: सैव क्रियावान् श्रावको मतः। कश्चित्सर्व निकृष्टोऽपि न त्यजेत्स कुल क्रियाः ।४। = प्रश्न-१ पाक्षिक श्रावक किसी व्रतको पालन नहीं करता, इसलिए वह अवती है। वह तो केवल व्रत धारण करनेका पक्ष रखता है, अतएव रात्रिभोजन त्याग भी नहीं कर सकता 1 उत्तर-ऐसी आशंका ठीक नहीं क्योंकि रात्रिभोजनत्याग न करनेसे उसका पाक्षिकपना सिद्ध नहीं होता। सर्वज्ञदेव द्वारा कही रात्रिभोज नत्याग रूप कुल क्रियाका त्याग न करनेसे उसके सर्वज्ञदेवकी आज्ञाके लोपका प्रसंग आता है, और सर्वज्ञकी अज्ञाका लोप करनेसे उसका पाक्षिकपना भी किस प्रकार ठहरेगा।।४७-४८० २. सर्वज्ञकी आज्ञा है कि जो क्रियावात कुलक्रियाका पालन करता है वह श्रावक माना गया है। अतएव जो सबसे कम दर्जेके अभ्यासमात्र मूलगुणोंका पालन करता है उसे भी अपनी कुल क्रियाएँ नहीं छोड़नी चाहिए ।४।
४. श्रावकको भव धारणकी सीमा बसु. श्रा./५३६ सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं ॥५३६।। - ( उत्तम रीतिसे श्रावकोंका आचार पालन करनेवाला कोई गृहस्थ) तीसरे भवमें सिद्ध होता है। कोई क्रमसे देव और मनुष्यों के सुखोंको भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं ।५३६॥
५. श्रावकको मोक्ष निषेधका कारण
मो. पा./१२/३१३ पर उद्धृत-खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति। -गृहस्थोंके उखली, चक्की, चूलही, घड़ा और झाडू ये पंचसूना दोष पाये जाते हैं। इस कारण उनको मोक्ष नहीं हो सकता।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भो०४-७
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