________________
श्रावक
सा. ध. /३/६ प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नाश्चार्हतस्य देशयमः । योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी । ६। जिसे प्रकार प्रारब्ध आदि तीन प्रकारके योगसे योगी तीन प्रकारका होता है, उसी प्रकार देशयमी भी प्रारब्ध ( प्राथमिक ), घटमानो ( अभ्यासी) और निष्पन्न के भेदसे तीन प्रकारके हैं ।
पं. घ. //७२५ किं पुनः पाक्षिको ढोनेष्ठिका साधको नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक तो कैसे।
==पाक्षिक, गूढ,
२. नैष्ठिक
के ११ भेद
मा. अणु./६१ सण-यय-सामाइन पोसह सचित राहते व बंधारंपरा अणु उहि देसविरवेये ।१३६ दार्शनिक, मलिक, सामयिकी, प्रोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुक्तविरत, ब्रह्मचारी. आरम्भविरत परिग्रह विरत अनुमति विश्त और उद्दिष्टविरत मे ( आवकके) ग्यारह भेद होते हैं । १३६ (चा. पा./मू./२२) (पं. सं./ प्रा/९/१३६). (ध. १/१.१.२ / ०२/१०२), (५.१/१.१.१२२ / गा. ११२/१७३), (५.६/४.१.४५ /गा. ०८/२०१). (गो. जी./मू./४००/८०), (सु. आ./४), (चा. सा./१/२), (द्र.सं./टी./११/२४ १२ उत (पं.वि./१/१४)।
छ.सं./टी./४५/१६५/२ दार्शनिकवतिक विकासामयिक प्रवृत्तः प्राचितपरिहारेण दिवानापर्येण षष्ठ, सर्वथा अहपर्येण समः आरम्भनिवृशोऽष्टमःपरिग्रहनिवृत्तो नमः... अनुमतनिवृत्तो दागः उद्दिष्टाहारनिवृत्त एकादशमः दार्शनिक, अती सामयिकी श्रोषधोपवासी और सचित विरत तथा दिना मैथुन विरत. अविरत आरम्भविरत और परिग्रह विरत अनुमति विरत और उद्दिष्ट विरत श्रावकके ये ११ स्थान हैं (सा. ध. /३/२-३)।
२. ग्यारहवी प्रतिमाके २ भेद
बसु श्रा./३०१ एयरसम्मि ठाणे उक्किट्ठो सावओ हवे दुविओ । [] प कोपरगड़ी विविध ३०१० ग्यारहवें अर्थात उद्दिष्ट विरत स्थानमें गया हुआ मनुष्य उत्कृष्ट श्रावक कहलाता है। उसके दो भेद हैं- प्रथम एक वस्त्र रखनेवाला ( क्षुल्लक ), दूसरा कोपीन ( लंगोटी ) मात्र परिग्रहवासा ( ऐलक ) (गुल. श्रा./१०४), (सा. प. ७/३८-३६) ।
३. पाक्षिकादि श्रावकके लक्षण
१. पाक्षिक श्रावक
चा, सा/४०/४ असिमधिकृषिवाणिज्यादिभिर्गृहस्थानां हिंसासंभवेऽपि पक्षः । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि आरम्भों कर्मोंसे गृहस्थोंके हिमा होना सम्भव है तथापि पक्ष चर्या और साधकपना इन तीनोंसे हिंसाका निवारण किया जाता है। इनमें से सदा अहिंसा रूप परिणाम करना पक्ष है ।
सा. घ. / २ / २.९६ तत्रादी अनीमा हिंसामपासितु मद्यमांसमधूत्युज्मेद पत्र क्षीरफलानि च 12 स्थूल हिसानृतस्तेयमैथुन प्रवर्द्धनम्। पापभीरुतयाभ्यस्येद्- बलवीर्य निगूहकः | १६ | = उस गृहस्थ धर्म में जिनेन्द्र देव सम्बन्धी आज्ञाको श्रद्धान करता हुआ पाक्षिक आपक हिंसाको छोड़ने के लिए सबसे पहले मध्य, मांस, मधुको और पंच उदुम्बर फलोंको छोड़ देवे |२| शक्ति और सामर्थ्यको नहीं छिपानेवाला पाक्षिक श्रावक पापके डर से स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ; स्थूल चोरी, स्थूल कुशील और स्थूल परिग्रहके त्यागका अभ्यास करे ।१६। (पाक्षिक श्रावक देवपूजा गुरु उपासना आदि कार्यको शक्त्यनुसार नित्य करता है - दे. वह वह नाम) सदावत खुलवाना (बे. पूजा / १) मन्दिरमें फुलवाड़ी आदि लबाना कार्य करता है ( दे. चैत्य वैश्यालय रात्रि भोजनका त्यागी होता है, परन्तु कदाचित |
Jain Education International
४८.
२. श्रावक सामान्य निर्देश
-
रात्रिको साथी आदिका ग्रहण कर लेता है-थे. रात्रि भोजन (३/३) । पर्व के दिनों में प्रोषधोपवासको करता है- दे, प्रोषघोपवास (१/१) । व्रत खण्डित होनेपर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है (सा ध./२/ ७७)। आरम्भादि संकल्पी आदि हिंसा नहीं करता (दे. श्रावक / 2) इस प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धिको पाता प्रतिमाओंको धारण करके एक दिन मुनि धर्मपर आरूढ होता है। दे, पक्ष । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावसे वृद्धिको प्राप्त हुआ समस्त हिसाका त्याग करना जैनोंका पक्ष है ।
२. चर्या श्रावक
}
पा. सा. ४०/४ धर्मा देवतार्य मन्त्र सिद्धार्थ मोषधार्थ माहारार्थं स्वभोगाय च गृहमेधिनो हिंसा न कुर्वन्ति हिंसा भने प्रायश्चित्तविधिना विशुद्धः सन् परिग्रहपरित्यागकरणे सति स्वगृहं धर्म च वेश्याय समय या गृहं परित्यजति तावदस्य चर्या भवति । - धर्म के लिए, किसी देवताके लिए किसी मन्त्रको सिद्ध करनेके लिए, औषधि के लिए और अपने भोगोपभोगके लिए, कभी हिंसा नहीं करते हैं। यदि किसी कारण से हिंसा हो गयी हो तो विधिपूर्वक प्रायश्चित कर विशुद्धता धारण करते हैं। तथा परिग्रहका त्याग करनेके समय अपने घर, धर्म और अपने वंश में उत्पन्न हुए पुत्र आदिको समर्पण कर जबतक वे घरको परित्याग करते हैं तबतक उनके चर्या कहलाती है। यह चर्या दार्शनिकसे अनुमति विरत प्रतिमा पर्यन्त होती है (सा. ध./९/१४)
३. नैष्ठिक श्रावक
सा. घ. / ३ / १ देशयमघ्न कषाय-क्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायकादया-दशा में ष्टिकः सुलेश्य र ११ देशका घात करनेवाली कषायोंके क्षयोपशमकी क्रमशः वृद्धिके वशसे श्रावकके दर्शनिक आदिक ग्यारह संयम स्थानोंके वशीभूत और उत्तम लेश्या वाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है |१|
४. साधक श्रावक
म.पु. / ३ / १४ जीवितान्ते तु साधनम्। देहातिरागाव ध्यानशुद्धात्मशोधनम् | १४६ = जो श्रावक आनन्दित होता हुआ जीवनके अन्तमें अर्थात् मृत्यु समय शरीर, भोजन और मन, वचन काय के व्यापारके त्यागसे पवित्र ध्यानके द्वारा आत्माकी शुद्धिको साधन करता है वह साधक कहा जाता है । ( सा. ध./१/१६-२०/८/१ ) । चा. सा. ४१/१ सकलगुणसं पूर्णस्य शरीरकम्पमानोन्मीलनविधि परिहरमाणस्य लोकाग्रमनसः शरीरपरित्यागः साधकत्वम् = इसी तरह जिसमें सम्पूर्ण गुण विद्यमान हैं, जो शरीरका कंपना, उच्छ्वास लेना, नेत्रोंका खोलना आदि क्रियाओंका त्याग कर रहा है और जिसका चित्त लोकके ऊपर विराजमान सिद्धों में लगा हुआ है ऐसे समाधिमरण करनेवालेका शरीर परित्याग करना साधकपना कहलाता है ।
ste
२. धावक सामान्य निर्देश
१. गृहस्थ धर्मकी प्रधानता
I
कुरल./६.८ गुही स्वस्यैव कर्माणि पास मानतो यदि तस्य नावश्यका धर्मा भिनाश्रमनिवासिना । यो गृही नित्यमुद्यः परेष कार्यसाधने स्वयं चाचारसंपन्नः पूतात्मा स पैरपि यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूपसे पालन करे, तब उसे, दूसरे आश्रमों धर्मो पालनेकी क्या आवश्यकता 2 | ६ | जो गृहस्थ दुसरे लोगों को कर्तव्य पालनमें सहायता देता है और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियोंसे अधिक पवित्र है |
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org