________________
श्रुतवली
दे० शुक्लध्यान / ३ / १.२ पृथक्त्व व एकत्व वितर्क ध्यान १४,१० व ६ वा को होते हैं ।
४. मिथ्यादृष्टि साधुको ११ अंग तक भाव ज्ञान सम्भव
1
ला, सं./५/१८-२० एकादशाङ्गपाठोगि तस्य स्याह द्रव्यरूपतः । आत्मानुवृतिशून्यत्वाभावतः संविदुषितःच् पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः । यतस्तस्योपदेश । द्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन । ११ ततः पाठोऽस्ति ते पृच्चे शस्याप्यस्ति ताय च श्रद्धानं प्रतीती रोचनं क्रिया | २०| = कोई • मिथ्यादृष्टि मुनि १९ अंगके पाठी होते हैं, महात्रतादि क्रियाओंको बाह्यरूपसे पूर्णतया पालन करते हैं, परन्तु उन्हें अपने शुद्ध आत्माका अनुभव नहीं होता, इसलिए वे परिणामोंके द्वारा सम्यग्ज्ञानसे रहित हैं |१| ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए कि 'मिथ्यादृष्टिको ११ अंगका ज्ञान केवल पठन मात्र होता है, उसके अर्थोका ज्ञान उसको नहीं होता 1 क्योंकि शास्त्रों में यह कथन आता है कि ऐसे मिथ्यादृष्टियोंके उपदेश से अन्य कितने ही भव्य जीवोंको सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान हो जाता है ।१८। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे मिध्यादृष्टिमुनियोंके ग्यारह अंगों का ज्ञान पाठमात्र भी होता है और उसके अर्थों का ज्ञान भी होता है, उस ज्ञानमें श्रद्धान होता है, प्रतीति होती है, रूचि होती है और पूर्व किया होती है।
* श्र तज्ञानी में
भावश्रुत इष्ट है— दे० श्रुतकेबली/२/४ । ज्ञान सर्वग्राहक कैसे
५.
घ. १/४.१.७/२०/९ पासुन परिति णम पिज्जा भारा अणसभागो दु अभिलम्पाय
-
भादो ११ दिनमादो ति उत्ते होदु नाम सयलपवत्थामतिमभागदणाणओ भावमा विसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयन्ता भावप्पसंगादो । [ तदो ] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बोजबुद्धित्ति सिद्ध | प्रश्न - श्रुतज्ञान समस्त पदार्थोंको नहीं जानता है, क्योंकि, वचन के अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थोंके अनन्तवें भाग प्रज्ञापनीय अर्थात् तीर्थंकरकी सातिशय दिव्यध्वनिमें प्रतिपाद्य होते हैं तथा ज्ञापनीय पदार्थों के अनन्त भाग द्वादशांग के विषय होते हैं ? इस प्रकारका वचन है ? उत्तर- इस प्रश्न के उत्तरमैं कहते हैं. कि समस्त पदार्थोंका अनन्तवाँ भाग द्रव्य श्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव श्रुतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ है, क्योंकि ऐसा माननेके बिना तीर्थंकरोंके वचनातिशयके अभावका प्रसंग होगा। ( इसलिए] भोजपदोंको ग्रहण करनेवाली मजबुद्धि है, यह सिद्ध हुआ ।
६. जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है असे अप
.../१५ दिन
देस समय परसदि जिनसा स १५० जो पुरुष आमाको अबद्ध स्पृष्ट, अनन्य अविशेष ( तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त) देखता है वह जिन शासन बाह्य श्रुत तथा अभ्यन्तर ज्ञानरूप भाव श्रुतवाला है |१५|
यो सां, यो. / १५ जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ असुइ सरीरविभिण्णु । सो जाणइ सत्थई सयल सासय सुक्खहं लोणु । ६५ । =जो आत्माको अशुचि शरीरसे भिश समझता है, वह शाश्वत में लीन होकर समस्त शास्त्रों को जान जाता है । ६६॥
Jain Education International
१६
२. निश्चय व्यवहार श्रुतकेवली निर्देश
न.च./श्रुत./३/६८ पर एको भावः सर्वभावस्वभावः । सर्वे भावा एकभाव-: स्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन बुद्धः सर्वे भवत
बुद्धाः |१| एक भाव सर्व भावों के स्वभावस्वरूप है और सर्व भाव एक भावके स्वभावस्वरूप है; इस कारण जिसने तवसे एक भावको जाना उसने समस्त भावोंको यथार्थतया जाना। (ज्ञा. / ३५/१३/१. ३४४ पर उद्धृत ) ।
का. अ./मू./४६४ जो अप्पाणं जाणदि अमुइ-सरीरा दु तच्चदो भिण्णं जाग- रूव सरू सो सत्यं जाणदे सव्वं ॥ ४६५८ = जो अपनी आत्माको इस अपवित्र शरीरसे निश्चयसे भिन्न तथा ज्ञापक स्वरूप जानता है वह सब शास्त्रोंको जानता है ।४६५॥
जानता
* जो सर्वको नहीं जानता वह एक को भी यथार्थ नहीं - केवलज्ञान/२/१। केवकीका समन्वय
७. निश्चय व्यवहार
प. प्र./मू./१/१६ जोइय अप्पें जानिएण जगु जाणियउ हवेइ । अपह केरह भावडइ बिंविउ जेण वसेइ । = हे योगी ! एक अपने आत्माके जाननेसे यह तीन लोक जाना जाता है, क्योंकि आत्मा के भावरूप केवलज्ञानमें यह लोक प्रतिनिति हुआ बस रहा है।
सा.आ.१-१० यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानावि स केवलीति तावत्परमार्थी, यः श्रुतज्ञानं सवं जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा । न तावदनात्मा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतर पदार्थपञ्चतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यन्तराभावात् ज्ञानमा
यातितः राज्ञानमध्यमेव स्यात् । एवं सति नः आत्मानं जानाति स केवलश्वायाति तु परमार्थ एवं एवं ज्ञानज्ञानि नोर्भेदेन व्यपदिशता उपमहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किचिदव्यतिरिक्तम्। अथ च वः तेन केवल शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेनलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स सकेमलीय व्यवहारः परमार्थप्रतिपाद करनारमानं प्रतिष्ठापयति ॥१-१० प्रथम जो भूसे केसद्धाराको जानते हैं वे तवली हैं वह तो परमार्थ है; और जो सर्व श्रुतज्ञान
जानते हैं वे केवल हैं, यह व्यवहार है । यहाँ दो पक्ष लेकर परीक्षा करते हैं - उपरोक्त सर्वज्ञान आत्मा है या अनात्मा 1 यदि अनात्माका पक्ष लिया जाये तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि जो समस्त जड़ रूप अनात्मा आकाशादिक पाँच द्रव्य हैं, उनका ज्ञानके साथ तादात्म्य बनता ही नहीं । ( क्योंकि उनमें ज्ञान सिद्ध नहीं है ) इसलिए अन्य पक्षका अभाव होनेसे 'ज्ञान आत्मा ही है, यह पक्ष सिद्ध हुआ । इसलिए श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा होनेसे जो आत्माको जाता है वह केवली है ऐसा ही घटित होता है और यह तो परमार्थ ही है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेदले कहनेवाला जो व्यवहार है, उससे भी परमार्थ मात्र ही कहा जाता है; उससे भिन्न कुछ नहीं कहा जाता । और जो श्रुतसे केवल शुद्ध आत्माको जानते हैं वे श्रुतकेवल हैं, इस प्रकार परमार्थका प्रतिपादन करना अशक्य होनेसे 'जोसको जानते हैं सी है ऐसा महार परमार्थ के प्रतिपादक अपनेको दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है। पं.वि./१/९४८ नं दर्शन जीवस्य नार्थान्तर- शुद्धादेशविवक्षया सहि तरिच हस्ते पर्यायश्व गुणैश्च साधु विदते तस्मिन् गिरा सगुरोइति किं न मिलोकित न किम प्राप्त न किं योगिभिः । १५८१ = शुद्ध नयकी अपेक्षा समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान और दर्शन ही जीवका स्वरूप है जो उस जीवसे पृथक् नहीं है । इससे भिन्न कोई दूसरा जीवका स्वरूप नहीं हो सकता है । अतएव वह विद्रूप अर्थात् चेतन स्वरूप ऐसा कहा जाता है। उत्तम गुरुके उपदेशसे अपने गुणों और पर्यायोंके साथ उस ज्ञान
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org