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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् रस्सोंसे अतिशय कसे हुए संसार नामक महान्धकूपमें गिरते हैं। भावार्थ-जैसे अन्धे पुरुष मार्गमें चलते २ अन्धकूपमें गिर पड़ते हैं, उसी प्रकार ये जीव सूझते हुए भी अन्ध पुरुषकेसमान संसाररूपी कूपमें गिरते हैं ॥ २१ ॥ आगे फिर उपदेश करते हैं,
पातयन्ति भवाव” ये त्वां ते नैव वान्धवाः ।
बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः ॥ २२ ॥ अर्थ-हे आत्मन् ! जो तुझे संसारके चक्रमें डालते हैं, वे तेरे बांधव (हितैपी) नहीं हैं; किन्तु जो मुनिगण (गुरुमहाराज) तेरे हितकी वांछाकरके बंधुता करते हैं अर्थात् हितका उपदेश करते हैं, वर्ग तथा मोक्षका मार्ग बताते हैं, वे ही वास्तवमें तेरे सच्चे और परममित्र हैं ॥ २२ ॥ आगे आश्चर्यपूर्वक कहते हैं,
शरीरं शीर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधीः।
मोहः स्फुरति नात्मार्थः पश्य वृत्तं शरीरिणाम् ॥ २३ ॥ अर्थ-देखो ! इन जीवोंका प्रवर्तन कैसा आश्चर्यकारक है कि, शरीर तो प्रतिदिन छीजता जाता है और आशा नहिं छीजती है; किन्तु वढती जाती है । तथा आयुर्वल तो घटता जाता है और पापकार्योंमें बुद्धि बढती जाती है । मोह तो नित्य स्फुरायमान् होता है और यह प्राणी अपने हित वा कल्याण मार्गमें नहीं लगता है । सो यह कैसा अज्ञानका माहात्म्य है ? ॥ २३ ॥ आगे उपदेश करते हैं,
यास्यन्ति निर्दया नूनं यद्दत्वा दाहमूर्जितम् ।
हृदि पुंसां कथं ते स्युस्तव प्रीत्यै परिग्रहाः ॥ २४ ॥ अर्थ-हे आत्मन्! ये परिग्रह पुरुषोंके हृदयमें अतिशय दाह अर्थात् सन्ताप देकर अवश्य ही चले जाते हैं । ऐसे ये परिग्रह तेरी प्रीतिकरने योग्य कैसे हो सक्ते हैं ? भावार्थ-तू वृथा ही इन धनधान्यादि परिग्रहोंसे प्रीति मत कर; क्योंकि ये किसी प्रकार भी नहीं रहेंगे ॥ २४ ॥
आगे अज्ञानके कारण नरकादिक दुःख सहेगा ऐसा कहते हैं,___ अविद्यारागदुर्वारप्रसरान्धीकृतात्मनाम् ।
श्वभ्रादौ देहिनां नूनं सोढव्या सुचिरं व्यथा ॥ २५ ॥ अर्थ-मिथ्याज्ञानजनित रागोंके दुर्निवार विस्तारसे अन्धे किये हुए जीवोंको अवश्य ही नरकादिकमें बहुकालपर्यन्त दुःख सहने पड़ेंगे, जिसका जीवोंको चेत ही नहीं है ॥ २५॥