Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-८
शूरोऽसि कृतविद्योऽसि, दर्शनीयोऽसि पुत्रक! ।
यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नो, गजस्तत्र न हन्यते ॥ अर्थ - हे पुत्र ! तू शूरवीर है, विद्यावान है, देखने में सुन्दर है, किन्तु जिस कुल में तू उत्पन्न हुआ है उस कुल में हाथी नहीं मारे जाते हैं। (अत: तू यहाँ से भाग जा नहीं तो तेरी जान नहीं बचेगी।)
भावार्थ - रजोतीर्य का संस्कार अनुष्य आ जाता है. नाड़े बड़ कैसे भी विद्यादिगुणों से सहित क्यों न हो, उस पर्याय में संस्कार नहीं मिटता, क्योंकि जैसे रजवीर्य से शरीर-मस्तिष्क व मन का निर्माण होता है वैसे ही जीव के विचार होते हैं। खानपान व बाह्य वातावरण का भी प्रभाव विचारों पर पड़ता
अब वेदनीयकर्म के कार्य कहते हैं -
अक्खाणं अणुभवणं, वेयणियं सुहसरूवयं सादं।
दुक्खसरूवमसाद, तं वेदयदीदि वेदणियं ॥१४॥ अर्थ - इन्द्रियों द्वारा अपने रूपादि विषयों का अनुभव करना वेदनीय है। उसमें सुखरूप से अनुभव कराना सातावेदनीय और दुःखरूप से अनुभव कराना असातावेदनीय का कार्य है। अत: सुखदुःख का जो अनुभव करावे वह वेदनीयकर्म है।
विशेषार्थ - 'वेधत इति वेदनीयम्' अर्थात् जो वेदन-अनुभवन किया जावे वह वेदनीय है। दुःखका प्रतिकार करने की कारणभूतसामग्री को मिलाने वाला और दुःख के उत्पादक द्रव्यकर्म की शक्तिका विनाश करनेवाला सातावेदनीयकर्म है। सुखस्वभाववाले जीव को दुःख उत्पन्न करनेवाला और दुःख के प्रशमन करने में कारणभूतसामग्री का अपसारक असातावेदनीयकर्म है। आवरण का क्रम बताने के लिए पहले जीव के प्रधानगुणों को कहते हैं -
अत्थं देक्खिय जाणदि, पच्छा सद्दहदि सत्तभंगीहिं।
इदि दंसणं च णाणं, सम्मत्तं होंति जीवगुणा ॥१५ ।। अर्थ - संसारी जीव पदार्थ को देखकर जानता है। पश्चात् वह अस्ति-नास्ति-रूप सप्तभंगी से निश्चयकर श्रद्धान करता है। इस प्रकार दर्शन-ज्ञान एवं सम्यक्त्व, ये जीव के गुण हैं।
१. ध. पु. ६ पृ.१० सूत्र ७ की टीका। २. सातावेदनीय यत: अतिशय सुख को उत्पन्न करता है अतएव वह शुभतम (सबसे शुभ) है। धवल १२/४६ ३. घ. पु. १३ पृ. ३५७ सूत्र ८८ की टीका