Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-६ अब जीब के उन गुणों को कहते हैं जिनको ये कर्म घातते हैं -
केवलणाणं दंसणमणंतविरियं च खयियसम्मं च ।
खयियगुणे मदियादी, खओवसमिए य घादी दु ॥१०॥ अर्थ - केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व तथा 'च' कार से क्षायिक चारिता, द्वितीय च जागो भागिल दानादि ५ लब्धिरूप क्षायिक भाव एवं मति- श्रुत-अवधिमनःपर्यय ज्ञानादिक रूप क्षायोपशमिक भाव, इन गुणों को ज्ञानावरणादि कर्म घातते हैं इसलिए उन्हें घातिया कहते हैं। अब अघातिया कर्मों में सर्व प्रथम आयुकर्म का कार्य कहते हैं -
कम्मकयमोहवडियसंसारम्हि य अणादिजुत्तम्हि ।
जीवस्स अवठ्ठाणं, करेदि आऊ हलिव्व णरं ॥११॥ अर्थ – कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मोह से अनादि चतुर्गतिरूप संसार की वृद्धि होती है। ऐसे संसार की चार गतियों में जीव का अवस्थान कराने वाला आयु कर्म है, जैसे काष्ठ का खोड़ा मनुष्य को रोक कर रखता है।
विशेषार्थ – 'देहट्ठिदि अण्णहाणुववत्तीदो' अर्थात् देह की स्थिति अन्यथा हो नहीं सकती इस अन्यथानुपपत्ति से आयुकर्म का अस्तित्व जानना चाहिए।' नाम कर्म का कार्य कहते हैं -
गदि आदि जीवभेदं, देहादी पोग्गलाण भेदं च ।
गदियंतरपरिणमनं, करेदि णामं अणेयविहं ॥१२॥ अर्थ – गति आदि के भेद से नामकर्म अनेक प्रकार का है। वह नारकी आदि जीव की पर्याय के भेदों को एवं औदारिक शरीरादि पुद्गल के भेदों को और एक गति से दूसरी गति में जानेरूप जीव के परिणमन को अनेक प्रकार का करता है, इस प्रकार नामकर्म अनेक कार्य करता है।
विशेषार्थ - नामकर्म जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकीरूप है। जीव में जिसका फल हो वह जीवविपाकी, पुद्गल में जिसका फल हो वह पुद्गल विपाकी एवं विग्रहगति में जिसका फल हो वह क्षेत्रविपाकी है। इस प्रकार नामकर्म चित्रकार के समान अनेक प्रकार से जीवविपाकी आदि
१.ध.पु. ६ सूत्र ९ की टीका।