Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-५
सामान्य से कर्म के भेद-प्रभेदों को दो गाथाओं से कहते हैं -
कम्मत्तणेण एक्कं, दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु ।
पोग्गलपिंडो दव्वं, तस्सत्ती भावकम्मं तु ॥६॥ अर्थ – सामान्य से कर्म एक प्रकार का है, द्रव्य-भाव की अपेक्षा दो प्रकार का है। पुद्गलपिंड को द्रव्यकर्म कहते हैं तथा उसमें जो फल देने की शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं।
विशेषार्थ – कार्य में कारण के उपचार से उस शक्ति से उत्पन्न हुए जो अज्ञानादि वा क्रोधादिरूप परिणाम हैं वे भी भावकर्म ही हैं।
तं पुण अट्ठविहं वा, अडदालसयं असंखलोगं वा ।
ताणं पुण धादित्ति, अघादित्ति य होंति सण्णाओ ॥७॥ अर्थ -- सामान्य से कर्म आठ प्रकार भी है अथवा एक सौ अड़तालीस या असंख्यातलोक प्रमाण भी उसके भेद हैं तथा उन आठ कर्मों में घातिया और अघातियारूप दो भेद हैं।
आठ कर्मों के नाम बताते हुए उनमें धातिया व अघातियारूप कर्मों का विभाग करते
णाणस्स दसणस्स य, आवरणं वेयणीयमोहणियं ।
आउगणामं गोदंतरायमिदि अट्ट पयडीओ ॥८॥ अर्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय ये कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ (स्वभाव) हैं।
आवरणमोहविग्घं, घादी जीवगुणघादणत्तादो ।
आउगणामं गोदं, वेयणियं तह अधादित्ति ॥९।। अर्थ – ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय ये चार तो घातिया कर्म हैं क्योंकि ये जीव के (देवत्वरूप) गुणों को घातते हैं तथा आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अधातिया हैं। ये जीव के (देवत्व प्रगट होने रूप) गुणों को नहीं घातते अत: इनको अघातिया कहा है।
१. प्रा. पं. सं. प्रकृति समुत्कीर्तनाधिकार गाथा २ परं तन्त्र गाथोत्तरार्धे "आउगणामा गोदं तहंतरायं च मूलाओ" इतिपाठः । २. ज.ध. पुस्तक १ पृष्ठ ६७ ।