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भगवतीसूत्र-श. १ उ. १ नारक जीवों का वर्णन
दिया गया कि पन्नवणा सूत्र के उच्छ्वास पद नामक सातवें पद में जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही यहाँ भी जान लेना चाहिए।
. इस प्रश्नोत्तर में 'आणमंति पाणमंति' शब्द आये हैं। इनका क्रमशः अर्थ है-श्वास लेना और श्वास छोड़ना । शरीर के भीतर हवा खींचने को 'आणमन' (श्वास लेना) कहते हैं और हवा को शरीर से बाहर निकालने को 'प्राणमन' (श्वास छोड़ना) कहते हैं । इन दोनों पदों को स्पष्ट करने के लिए इसी प्रश्नोत्तर में 'ऊससंति णीससंति' पद दिये हैं। जो अर्थ 'आणमंति पाणमंति' का है, वही अर्थ 'ऊससंति णीससंति' का है। .
किसी किसी आचार्य के मत से श्वासोच्छ्वास दो प्रकार के होते हैं-आध्यात्मिक (आन्तरिक) श्वासोच्छ्वास और बाह्य श्वासोच्छ्वास । आध्यात्मिक (आन्तरिक)श्वासोच्छ्वास को 'आणमन' और 'प्राणमन' कहते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास को उच्छ्वास और निःश्वास कहते हैं। .
पन्नवणा सूत्र में कहा गया है कि नरयिक जीव निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं। क्योंकि वे अत्यन्त दुःखी हैं । जो अत्यन्त दुःखी होता है, वह निरन्तर श्वास लेता है और छोड़ता है।
गौतम स्वामी ने नैरयिक जीवों के आहार के विषय में प्रश्न किया । जिसका उत्तर भगवान् ने यह दिया कि-नैरयिक जीव आहारार्थी हैं। उनका आहार दो प्रकार का है-आभोगनिवर्तित और अनाभोग निवर्तित । “मैं आहार करता हूँ" इस प्रकार इच्छापूर्वक जो आहार लिया जाता है, वह 'आभोग निवर्तित' कहलाता है। 'मैं आहार करूँ,' इस प्रकार की इच्छा के बिना ही जो आहार होता है, वह 'अनाभोग निवर्तित' कहलाता है। जैसे वर्षाकाल में मत्र अधिक लगता है, जिससे यह ज्ञात होता है कि शरीर में शीत पुद्गलों का प्रवेश अधिक हुआ है। जिस प्रकार उन शीत पुद्गलों का आहार इच्छा बिना हुआ है, उसी प्रकार नैरयिक जीवों के अनाभोग निवर्तित आहार भी होता है । यह आहार तो निरन्तर-प्रतिक्षण होता रहता है । एक समय भी ऐसा व्यतीत नहीं होता जब यह आहार न होता हो । यह आहार बुद्धिपूर्वक-संकल्प द्वारा नहीं रोका जा सकता है। जो आहार इच्छा पूर्वक होता है, उस आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा कम से कम असंख्यात समय में होती है। यहाँ असंख्यात समय, एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जानना चाहिए, अर्थात् नैरयिक जीवों को अन्तर्मुहूर्त में आभोगनिवर्तित आहार की इच्छा होती है। इतने समय तक नैरयिक जीवों की भूख मिटी रहती हो, सो बात नहीं है, क्योंकि नरयिक जीवों को कभी तृप्ति होती ही नहीं
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