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भगवती सूत्र-श. १ उ. १ असंवृत अनगार
बन्धन से बांधी हुई सात कर्म प्रकृतियों को गाढ़ रूप से बाँधना प्रारम्भ करता है, अल्पकाल की स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घ काल की स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाग वाली प्रकृतियों को तीव अनुभाग वाली करता है, अल्प प्रदेश वाली प्रकृतियों को बहुत प्रदेश वाली करता है। आयुकर्म को कदाचित् बांधता है और कदाचित् नहीं भी बांधता है । असातावेदनीय कर्म को बारम्बार उपार्जन करता है तथा अनादि अनन्त, दीर्घ मार्ग वाले, चतुर्गति रूप संसार रूपी अरण्य में बारबार पर्यटन करता है। इस कारण हे गौतम ! असंवृत अनगार सिद्ध नहीं होता यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता।
विवेचन-जिसने आश्रव द्वारों को नहीं रोका है ऐसे अनगार-साधु को असंवृत अन। गार कहते हैं । उसके मुक्ति पाने के विषय में यहाँ प्रश्न किया गया है । प्रश्न में 'सिज्झई' आदि पद दिये गये हैं जिनका अर्थ इस प्रकार है
'सिज्झइ'-सिद्ध होता है अर्थात् चरम भव-अन्तिम जन्म प्राप्त करके मोक्ष के योग्य होता है।
'बुज्झइ' बुद्ध होता है अर्थात् केवलज्ञानी होता है । तात्पर्य यह है कि चरमशरीरी जीव को भावी नय की अपेक्षा से सिद्ध कह सकते है किन्तु वह 'बुद्ध' तभी कहा जायगा जब वह 'केवलज्ञानी हो जायगा । अतः 'बुज्झइ' का अर्थ है-केवलज्ञानी होना।
'मुच्चई' कर्मों से मुक्त होता है अर्थात् जिस जीव को केवलज्ञान प्राप्त हो चुका हैं, अतएव जो बुद्ध होगया है, उसके केवल भवोपनाही कर्म (आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय) शेष रहते है, जब वह भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण छोड़ता है तब वह 'मुक्त' कहलाता है।
'परिणिब्वाइ' निर्वाण प्राप्त करता है अर्थात् भवोपनाही कर्मों को प्रतिक्षण छोड़ने वाला वह महापुरुष, कर्म पुद्गलों को ज्यों ज्यों क्षीण करता जाता है त्यों त्यों शीतल होता जाता है । इस प्रकार की शीतलता प्राप्त करना ही निर्वाण प्राप्त करना कहलाता है।
'सव्वदुक्खाणमंतं करेइ' सब दुःखों का अन्त करता है। चरम भव के अन्त समय में समस्त कर्मों का क्षय करने वाला जीव ही सब दुःखों का अन्त करता है।
___ गौतम स्वामी के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि असंवृत अनगार मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि असंवृत अनगार आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के ढीले बन्धन को मजबूत कर लेता है, निधत्त कर लेता
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