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भगवती सूत्र - श. २ उ १ आर्य स्कन्दक
एतावं ताव आइक्खाहि । वुच्चमाणे एवं, तए णं से खंदए कच्चा - यणसगोते पिंगलएणं णियंठेणं वेसालीसावरणं दोच्चं पि तच्चं पि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए, कंखिए, वितिगिच्छिए, भेदसमावणे कलुससमावणे णो संचाएs पिंगलस्स णियंठस्स, वेसालियसावयस्स किंचि वि पमोक्खमक्खाइउं, तुसिणीए संचिट्ठह ।
विशेष शब्दों के अर्थ - अक्खेवं-आक्षेप पूर्वक, भेदसमावण्णे - मतिभ्रंश हुआ, कलुससमावणे - क्लेशित हुआ, णो संचाएइ - शक्ति नहीं, पमोक्खमक्खाइ - उत्तर देकर प्रश्न से मुक्त होना, सिणिए-चुप संचिट्ठइ - रहा ।
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भावार्थ- वंशालिक श्रावक पिंगलक निर्ग्रन्थ ने ये प्रश्न स्कन्दक परिव्राजक से एक बार, दो बार, . तीन बार पूछे, किन्तु स्कन्दक परिव्राजक इन प्रश्नों का कुछ भी उत्तर नहीं दे सका और मौन रहा। उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि इन प्रश्नों का उत्तर यह है अथवा दूसरा है ? उसके मन में कांक्षा उत्पन्न हुई कि - में इन प्रश्नों का उत्तर कैसे दूं ? मुझे इन प्रश्नों का उत्तर कैसे आवे ? उसके मन में विचिकित्सा उत्पन्न हुई कि मैं जो उत्तर दूं उससे प्रश्न करने वाले को संतोष होगा या नहीं ? उसकी बुद्धि में भेद उत्पन्न हुआ कि अब में क्या करूँ ? उसके मन में क्लेश ( खिन्नता ) उत्पन्न हुआ कि इस विषय में में कुछ भी नहीं जानता हूँ। जब स्कन्दक परिव्राजक कुछ भी उत्तर नहीं दे सका तब पिंगलक निर्ग्रन्थ वहाँ से चला गया ।
विवेचन - प्रश्नों को सुनते ही स्कन्दकजी स्तम्भित रह गये । उनके सामने ये प्रश्न नये ही थे । इस विषय में उन्होंने पहले कभी निर्णय किया ही नहीं था । अतएव उनसे उत्तर नहीं दिये जा सके । वे स्वयं सन्देहशील बन गये । वे पहले निर्णय पर पहुँचना चाहते थे । बिना निर्णय किये उत्तर देने के लिए वे तैयार नहीं थे । इसलिए वे चुप रह
!
गये ।
तणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग, जाव - पहेसु महया जण
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